महाराष्ट्र में हुई साधुओं की हत्या के बाद रिपब्लिक भारत के संस्थापक अर्नब गोस्वामी से हो रही पूछताछ ने एक बार फिर कॉन्ग्रेस काल की झलक दिखाई है। महज एक कांड से ही कॉन्ग्रेस ने स्पष्ट कर दिया कि वह आज भी विरोधी स्वर को कुचलने के अपने तरीकों में कितनी स्पष्ट है। यह झलक इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि केंद्र में 2014 के व्यापक सत्ता परिवर्तन के बाद देशभर में मानवाधिकार, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और फ़ासिज़्म जैसे शब्द बच्चे-बच्चे के मुँह से सुने जाने लगे।
मानो इन विशेषणों का उद्भव ही केंद्र में नरेंद्र मोदी सरकार के शपथ ग्रहण के बाद हुआ हो। लेकिन ये लोग कन्नड़ अभिनेत्री स्नेहलता रेड्डी (Snehalata Reddy) की कहानी पर बात नहीं करते, जिनका जीवन इस आपातकाल ने सिर्फ एक आरोप के चलते खत्म कर दिया कि वह ‘एक राजनीतिक शरणार्थी’ से दोस्ती रखतीं थीं। एक लोकतान्त्रिक देश में आपातकाल की दलील पर एक अभिनेत्री को ऐसे कठिन दौर से गुज़रना पड़ा, जब उन्हें अनेक यातनाएँ झेलनी पड़ीं और अंत में उनकी तड़पकर मौत हो गई।
‘लौह महिला’ इंदिरा गाँधी के आपातकाल की वह नारकीय यातनाएँ
स्नेहलता रेड्डी की कहानी भारतीय लोकतंत्र के उन स्याह 19 महीनों के दौरान की है जिस त्रासदी को संविधान आपातकाल का नाम देता है। कहा जाता है कि यह निर्णय कॉन्ग्रेस की लौह महिला इंदिरा गाँधी के नेतृत्व में ‘फासीवादी शक्तियों’ से लोकतंत्र की सुरक्षा के लिए लिया गया था। उस समय के बड़े समाजवादी नेता जॉर्ज फर्नांडिस को पकड़ने के लिए पुलिस द्वारा उनकी मित्र और कन्नड़ अभिनेत्री स्नेहलता रेड्डी पर किए गए बेहिसाब शोषण का यह किस्सा शायद ही लोगों तक आज भी पहुँच सका हो।
आपातकाल के नाम पर लाखों बेकसूर लोगों पर मनचाहे कानून के तहत कार्रवाई कर के उन्हें जेल की नारकीय यातनाओं में भेज दिया गया। इनमें से कुछ वो लोग भाग्यशाली ही कहे जा सकते हैं जो या तो जीवित रह सके या फिर मौत के बाद ही सही लेकिन कहानियों का हिस्सा बन सके। जेल में अटल बिहारी वाजपयी की बगल की ही जेल में रखीं गईं स्नेहलता रेड्डी की चीख ने उन्हें शायद मृत्यु तक पीछा किया होगा लेकिन दुर्भाग्य यह है कि कॉन्ग्रेस ने सत्ता में रहते जितने वाम-उदारवादियों और ‘विचारकों’ की जमात तैयार की, उसे यह चीखें और निर्मम कहानियाँ नहीं सुनाईं दीं।
आपातकाल के दौरान इंदिरा गाँधी के सैनिक, लाखों निर्दोषों को बिना कारण बताए जेल में ठूँस रहे थे। इनमें से अधिकतर की गिरफ्तारी मीसा (मैंनेटेनेंस ऑफ इंटरनल सिक्योरिटी एक्ट/ MISA/Maintenance of Internal Security Act) के तहत हुई थी। कन्नड़ अभिनेत्री स्नेहलता पर आरोप लगाया गया कि वो डाइनामाइट से दिल्ली में संसद भवन और अन्य मुख्य इमारतों को धमाका कर उड़ाना चाहती थीं। स्नेहलता पर IPC की धारा 120, 120A के तहत आरोप लगाए गए। हालाँकि आखिर में इनमें से कोई भी आरोप साबित नहीं हुआ और राज्य ने उन्हें वापस ले लिया। लेकिन ‘मीसा’ के तहत स्नेहलता की कैद जारी रही।
कहा जाता है कि जब भारत के पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपयी अपने ओजस्वी भाषणों और उससे भी धारदार नारों के चलते बेंगलुरु जेल में बंद कर दिए गए थे, तभी उनके साथ भाजपा के दिग्गज नेता लाल कृष्ण आडवाणी को भी रखा गया था। उस समय भारतीय जनसंघ के युवा और उर्जावान चेहरों में यही दो नाम सबसे पहले आते थे।
स्नेहलता को धोखे से जेल में डाल दिया गया। बैंगलोर केंद्रीय कारावास पहुँचते ही उन्हें ढेरों अपमानजनक अनुभवों का सामना करना पड़ा। वहाँ उन्हें एक हवादार कोठरी में बंद कर दिया गया, जिसका आकार एक व्यक्ति के हिसाब से पर्याप्त था। इस कोठरी में पेशाबघर की जगह पर कोने में एक छेद बना हुआ था, और दूसरे छोर पर लोहे का एक जालीदार दरवाजा लगा हुआ था।
आपातकाल के नाम पर यातनाएँ
स्नेहलता ने फर्श पर सोकर रातें गुजारीं। जेल में उनकी रातें इस भय में ज्यादा गुजरने लगीं कि उनके पीछे उनके परिवार से क्या सलूक किया जा रहा होगा, क्योंकि वह उनसे जेल में मिलने भी नहीं आए थे। किसी तरह आखिरकार उनके घरवाले यह पता लगाने में कामयाब रहे कि स्नेहलता को किस जेल में बंद किया गया है। ऐसे समय में, जब नागरिकों के सभी मौलिक अधिकारों को निलंबित कर दिया गया था, उन्हें आठ महीने तक बिना मुकदमा चलाए हुए असीम यातनाओं के बीच बेंगलुरु सेंट्रल जेल में रखा गया।
उसी समय जेल में दोनों नेताओं को किसी महिला की चीखें सुनाई देती और बाद में उन्हें पता चला कि वह कोई अपराधी या नेता नहीं बल्कि कन्नड़ अभिनेत्री स्नेहलता रेड्डी थीं। स्नेहलता पर डायनामाईट केस में शामिल होने का आरोप लगाया गया और उन्हें मई 02, 1976 को गिरफ़्तार किया गया था।
बेंगलुरु की ही जेल में क़ैद उनके साथ बेहद अमानवीय दुर्व्यवहार किए गए। मधु दंडवते जो कि उस समय उसी बैंगलोर के जेल में थे, उन्होंने अपनी पुस्तक में लिखा था कि उन्हें रात के सन्नाटे में स्नेहलता की चीखती हुई आवाजें सुनाई देतीं थीं।
जेल में लिखी हुई एक छोटी सी डायरी में स्नेहलता ने लिखा-
“जैसे ही एक महिला अंदर आती है, उसे बाकी सभी के सामने नग्न कर लिया जाता है। जब किसी व्यक्ति को सजा सुनाई जाती है, तो उसे पर्याप्त सजा दी जाती है। क्या मानव शरीर को भी अपमानित किया जाना चाहिए? इन विकृत तरीकों के लिए कौन जिम्मेदार है? इन्सान के जीवन का क्या मकसद है? क्या हमारा मकसद जीवन मूल्यों को और बेहतर बनाना नहीं है? इन्सान का उद्देश्य चाहे कुछ भी हो, उसे मानवता को आगे बढ़ाने के प्रयास करने चाहिए।”
खुद जेल की यातनाओं का हिस्सा होने के बावजूद स्नेहलता ने अन्य कैदियों के अधिकारों के लिए जंग जारी रखी। उन्होंने साथ के कैदियों का मनोबल बढ़ाया। आखिरकार उनकी मेहनत कुछ हद तक रंग लाई और कम से कम कैदियों को पहले से बेहतर खाना दिया जाने लगा। उन्होंने लिखा-
“महिलाओं को पहले बुरी तरह से पीटा जाता था, लेकिन अब इसमें कुछ कमी आई। कम से कम मैंने उनके अंदर के भय को तो दूर कर ही दिया है। मैंने तब तक भूख हड़ताल की, जब तक कैदियों को मिलने वाले खाने की गुणवता में सुधार नहीं हुआ।”
स्नेहलता अस्थमा की मरीज थीं, बावजूद इसके उन्हें घोर यातनाएँ दीं जाती और जेल में उन्हें निरंतर उपचार भी नहीं दिया गया। यह बातें स्वयं स्नेहलता ने मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के समक्ष रखीं थीं। जेल में मिलने वाली क्रूर यातनाओं ने और उस वास्तविकता ने स्नेहलता को बेहद कमजोर कर दिया और उनकी हालत गंभीर हो गई। जनवरी 15, 1977 को उन्हें पैरोल पर रिहा कर दिया गया। और रिहाई के 5 दिन बाद ही 20 जनवरी को हार्ट अटैक के कारण उनकी मृत्यु हो गई।
सवाल यह भी रह गया कि ऐसी ही न जाने और कितनी स्नेहलताएँ इंदिरा गाँधी और कॉंग्रेस की सत्ता में बने रहने की चाह की बलि चढ़ीं। स्नहेलता की मृत्यु के बाद मानवाधिकार आयोग ने उनकी डायरी के कुछ पन्ने जारी किए, जिनमें उन्होंने अपने ऊपर हुए अत्याचार और अपनी दृढ़ इच्छाशक्ति का वर्णन किया था।
जून, 2015 में ‘द हिंदू’ के एक लेख में स्नेहलता की बेटी नंदना रेड्डी ने बताया कि उनकी माँ औपनिवेशिक ब्रिटिश राज की प्रबल विरोधी थीं। जब वह कॉलेज गईं तो उन्होंने अपने भारतीय नाम को वापस अपना लिया था और वह केवल भारतीय कपड़े और एक बड़ा ‘बॉटू’ पहनती थी। नंदना ने लिखा कि उनकी माँ ने प्रसिद्ध श्री किट्टप्पा पिल्लई से भरतनाट्यम सीखा और एक बहुत ही कुशल नर्तकी बन गईं।
कॉन्ग्रेस को कम कर आँकने की भूल कर रहा है देश
कॉन्ग्रेस ने सत्ता और शासन के लिए हमेशा हर तरीके को अपनाया है। इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि जहाँ पूरा देश आज कॉन्ग्रेस को एक सिमट चुकी कहानी समझते आ रहा है, वह महाराष्ट्र जैसे राज्य में एक पत्रकार को 12 घंटों तक पुलिस की पूछताछ के लिए बिठा सकती है। विरोधियों के स्वर को कुचलने और असत्य को स्थापित करने में यह पार्टी आज भी उतनी ही नीतिकुशल, शक्तिशाली और बलवान है, जितनी की आपातकाल के समय थी।
यह शासन के साम-दाम-दंड भेद को जानती है इसके एक इशारे पर किसान से लेकर साहित्यकार सड़कों पर उतर आते हैं और ख़ास बात देखिए कि सत्ता की भूख ले लिए स्नेहलता जैसी कहानियों की जिम्मेदार इस कॉन्ग्रेस पार्टी ने अपने तंत्र के जरिए कभी किसी को सोचने का अवसर नहीं दिया कि वास्तव में फ़ासिस्ट कौन रहे हैं?