नई दिल्ली। कहा जाता है कि इतिहास बहुत हद तक अपने आपको दोहराता है. चीजें घूम-फिरकर लौटती हैं. राहुल गांधी की संसद सदस्यता रद्द होने के बाद फिर ऐसी ही चर्चा हो रही है कि क्या वो अपनी दादी के जैसे इतिहास को दोहरा सकेंगे? केंद्र में एक मजबूत सरकार है. पर राहुल गांधी तीखे बयानों के साथ लगातार हमलावर हैं. इस बीच एक पुराने भाषण के आधार पर एक लोअर कोर्ट मानहानि के मुकदमे में फैसला सुनाकर राहुल गांधी को दोषी ठहरा देती है. दूसरे ही दिन उनकी संसद सदस्यता भी खत्म हो जाती है. कुछ ऐसा ही सत्तर के दशक में इंदिरा गांधी के साथ हुआ था. जनता पार्टी की सरकार ने इंदिरा गांधी को एक प्रस्ताव पास करके लोकसभा सदस्याता से वंचित कर दिया. यह आदेश इंदिरा गांधी के लिए रामबाण साबित हुआ. इंदिरा गांधी के प्रति ऐसी सहानुभूति पैदा हुई कि उस आंधी में देश की पहली गैरकांग्रेसी सरकार 3 साल में उखड़ गई.
1971 में पाकिस्तान के 2 टुकड़े करने का श्रेय इंदिरा गांधी को मिला और वो भारी बहुमत से चुनाव जीतकर फिर प्रधानमंत्री बनीं. रायबरेली संसदीय सीट से उनके खिलाफ चुनाव लड़े थे प्रख्यात समाजवादी राजनेता राजनारायण. राजनारायण ने चुनाव हारने के बाद हाईकोर्ट में अर्जी दाखिल की थी कि लोकसभा चुनावों में भारी पैमाने पर सरकारी मशीनरी का दुरुपयोग हुआ है इसलिए इदिरा गांधी की लोकसभा सदस्यता समाप्त की जाए. इलाहाबाद हाईकोर्ट के जज जगमोहन लाल सिन्हा की अदालत में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की करीब 5 घंटे की पेशी हुई.
कहा जाता है कि सिन्हा को तमाम तरीके से समझाने की कोशिश हुई थी. आखिरकार इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इंदिरा गांधी की सदस्यता रद्द कर दी. सुप्रीम कोर्ट में अर्जी दाखिल की गई पर वहां से मनमुताबिक फैसला नहीं आया. सुप्रीम कोर्ट ने कहा सदस्यता वंचित नहीं होगी पर वोट देने का अधिकार नहीं रहेगा. इसके बाद विपक्ष इंदिरा सरकार के खिलाफ गोलबंद हो गया. अंत में विपक्ष के हमलों से परेशान होकर इंदिरा गांधी ने देश में इमरजेंसी की घोषणा कर दी.
दूसरी बार संसद सदस्यों की विशेषाधिकार समिति ने खत्म की थी सदस्यता
1977 में इमरजेंसी को खत्म करके आम चुनाव हुए. इंदिरा गांधी को इस चुनाव में बहुत बुरी तरह हार का सामना करना पड़ा. इंदिरा गांधी खुद रायबरेली से चुनाव हार गईं थीं. संजय गांधी अमेठी से चुनाव हार गए थे. यह इंदिरा गांधी की पहली और अंतिम हार थी. देश में पहली बार एकजुट विपक्ष के नेतृत्व में जनता पार्टी की सरकार बनी. सरकार का नेतृत्व मोरारजी देसाई कर रहे थे. जिनको इंदिरा गांधी के चलते ही कांग्रेस छोड़ना पड़ा था.
कहा जाता है कि इंदिरा गांधी इतने सदमें में थीं कि 2 महीने तक उन्होंने घर से बाहर कदम नहीं निकाला. इस बीच जीप घोटाले में उनकी एक दिन की गिरफ्तारी भी हुई. पर इंदिरा गांधी अपने कुशल नेतृत्व के चलते एक बार फिर जनता के बीच सहानुभूति बटोरने में सफल हुईं. चिकमंगलूर उपचुनाव जीतकर वो लोकसभा पहुंची. पर उनका लोकसभा पहुंचना सरकार को रास नहीं आया. स्वंय पीएम मोरारजी देसाई ने इंदिरा गांधी के खिलाफ तमाम आरोपों के साथ प्रस्ताव पेश किया. जिस पर लोकसभा में करीब एक हफ्ते तक बहस हुई. बाद में एक समिति बनाई गई . समिति ने इंदिरा गांधी की सदस्यता को खत्म कर दिया.
सांसदी खत्म होने के बाद इंदिरा के प्रति सहानुभूति बढ़ गई. और उन्होंने इस मौके को बखूबी भुनाया भी. दूसरी ओर जनता पार्टी अपने अंतर्विरोधो के चलते खुद कमजोर हो रही थी. कई विचारधारा के लोगों को एक साथ लाकर सरकार चलाने का सपना 3 साल के भीतर ही टूट गया. इंदिरा गांधी देश भर में तूफानी दौरे कर रही थीं. देश भर में उनको लेकर पुराना उत्साह देखने को मिल रहा था. देश में मध्यावधि चुनाव हुए और इंदिरा गांधी भारी बहुमत से फिर सरकार बनाने में सफल हुईं.
अब सवाल यह उठता है कि क्या राहुल गांधी आपदा में अवसर ढूंढ पाएंगे. बहुत से राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि यह राहुल गांधी के लिए ब्लेसिंग्स ऑफ डिसगाइज है. पर क्या राहुल गांधी अपनी दादी इंदिरा गांधी वाली हैसियत में हैं? टीवी 9 भारत वर्ष के एग्जिक्यूटिव एडिटर कार्तिकेय शर्मा कहते हैं कि इंदिरा गांधी और राहुल गांधी में एक फर्क है, इंदिरा गांधी को सिम्पैथी मिली थी जब वो डिटेन हुई थीं. उसके बाद वो बेलछी गईं थीं जहां दलितों का नरसंहार हुआ था.
इसके बाद अचानक देश भर में इंदिरा गांधी को सिंपैथी मिली थी. राहुल को पहले इस तरह की सिंपैथी मिलना जरूरी है फिर उसका वेपैनाइज होना भी जरूरी है. इसके बाद ही राहुल को सड़क पर समर्थन मिलेगा जो वोट में तब्दील होगा. शर्मा कहते हैं कि पहली बात ये है कि क्या राहुल गांधी के साथ ममता बनर्जी, लेफ्ट , चंद्रशेखर राव, जगनमोहन रेड्डी और नवीन पटनायक आ सकते हैं? अगर ये उनके साथ आ जाते हैं तो यह उनकी सफलता की पहली सीढ़ी होगी. अगर यह नही हो पाएगा तो फिर ढाक के तीन पात .