राज खन्ना
जिंदा कौमें पांच साल इंतजार नहीं करतीं की ललकार के साथ डॉक्टर लोहिया याद किए जा रहे थे तो दूसरी ओर सिंहासन खाली करो कि जनता आती है, की गूंज के साथ दिनकर दोहराए जा रहे थे. हर तरफ सरकार विरोधी नारों का शोर था. सड़कों पर जुलूसों-प्रदर्शनों का अंतहीन सिलसिला था. दूसरी ओर प्रधानमंत्री आवास के सामने जुटने वाले इंदिरा समर्थकों की भीड़ बढ़ती जा रही थी. ये भीड़ अपनी नेता को को भरोसा देने के लिए थी कि वे किसी भी कुर्बानी के लिए तैयार हैं.
तब के हालात और भी बहुत कुछ इसमें जोड़ते हैं. अगर बांग्लादेश का निर्माण शोहरत और पाकिस्तान से हिसाब चुकता करने का मौका लाया तो त्रासदियों का कारण भी बना. वहां से आये एक करोड़ से ज्यादा शरणार्थियों का बोझ देश पर आया. 1972 से लगातार तीन साल तक सूखा पड़ा. अनाज उत्पादन आठ फीसद घट गया. कीमतों में जबरदस्त उछाल आया. खाद्यान्न के थोक व्यापार को सरकार ने हाथों में लिया और फिर समस्याएं बढ़ते ही उससे पिंड छुड़ाया. खाद्यान्न व्यापार के राष्ट्रीयकरण की अफवाह के बीच खाद्यान्न बाजार से गायब होने लगे.
सत्तादल को अब सरकार के प्रगतिशील उपायों में न्यायपालिका बाधक नजर आने लगी थी. पार्टी के भीतर वामपंथी रुझान के स्वरों ने प्रतिबद्ध न्यायपालिका की जरूरत का राग छेड़ दिया. अप्रैल 1973 में इसी कोशिश के तहत सर्वोच्च न्यायालय के तीन न्यायधीशों जस्टिस के. एस. हेगड़े, जस्टिस जे. एम. शेलेट और जस्टिस ए. एन. ग्रोवर की वरिष्ठता को अतिक्रमित करके जस्टिस ए. एन. रे को मुख्यं न्यायाधीश नियुक्त कर दिया गया. इंदिराजी का मन संसदीय कार्यवाही से उचटने लगा था.
कम्युनिस्ट नेता हीरेन मुखर्जी ने 1973 मे लिखा, ‘उनके पिता संसद की कार्यवाही में हिस्सा लेकर खुश होते थे, जबकि इंदिराजी उससे उदासीन नजर आती हैं. कभी-कभी लगता है कि वह राष्ट्रपति प्रणाली की सरकार तो नहीं चाहतीं? ‘
सिक्किम विलय, पोखरण परीक्षण भी अनुकूल माहौल नहीं बना पाया
इस संकट के बीच इंदिराजी ने दो बड़े साहसिक कदम उठाए. 18 मई 1974 को देश ने पोखरण में पहला परमाणु परीक्षण किया. उधर 8 अप्रैल 1975 को सिक्किम के चोग्याल को उनके महल में नजरबंद कर दिया गया. सिक्किम का भारत में विलय हो गया और वह देश का 22वां प्रदेश बन गया. अन्य किसी समय में यह दो बड़े काम प्रधानमंत्री को देश के भीतर बेहद लोकप्रिय बनाकर और मजबूत करते. लेकिन आंतरिक अशांति और बेकाबू जन समस्याओं के बीच ये बड़ी उपलब्धियाँ भी अनुकूल राजनीतिक असर नहीं दिखा सकीं.
इंदिरा विपक्ष और विदेशी साजिश को लेकर सशंकित क्यों रहती थीं?
सरकार और विपक्ष की कटुता बढ़ रही थी. इंदिरा जी को हर समस्या के पीछे विदेशी और विपक्ष की साजिश नजर आ रही थी. उनके हर भाषण में जोर-शोर से विपक्ष पर हमले होते. 1971 के चुनाव में साफ हो गए विपक्ष को फिर से खड़ा होने का मौका मिल रहा था. 1974 के जबलपुर लोकसभा उपचुनाव में साझा विपक्ष के प्रत्याशी शरद यादव की जीत ने विरोधी दलों का हौसला बढ़ाया.
भोपाल में जनसंघ के बाबूलाल गौड़ और हरियाणा के उपचुनावों में भी साझा विपक्ष को जीत मिली. लेकिन उसे असली ताकत गुजरात ने दी. 12 जून को इलाहाबाद हाईकोर्ट के खिलाफ फैसले के बाद इंदिराजी के लिए गुजरात से दूसरी निराश करने वाली खबर थी. पिछले चुनाव की तुलना वहाँ कांग्रेस की 65 सीटें कम हुईं. पार्टी विपक्ष में पहुँची. राज्य में जनता मोर्चा की बाबू भाई पटेल की अगुवाई में पहली गैरकांग्रेसी सरकार बनी.
इंदिरा विपक्ष से हिसाब चुकता कर लेना चाहती थीं
गुजरात की आंच दूसरे राज्यों तक पहुंच रही थी. बिहार इसमें आगे था. जेपी की अगुवाई ने सरकार विरोधी आंदोलन को एक बड़ा चेहरा दे दिया था. वे जिस राज्य में भी पहुंचे लोग उन्हें सुनने को उमड़ पड़े. वे पंडित जवाहर लाल नेहरू के मित्र रहे थे. उनकी सरकार में शामिल होने या फिर बाद में भी सत्ता से जुड़े हर लाभ को उन्होंने ठुकराया था. उनकी नैतिक सत्ता और आभामंडल किसी भी सत्ता पर भारी था. इंदिराजी के कुछ बयानों और उनसे ज्यादा कुछ चाटुकारों की अशोभनीय टिप्पणियों ने जेपी को सीधे संघर्ष के रास्ते पर खींच लिया.
उधर सदन में प्रचंड बहुमत के बावजूद सरकार जन असंतोष को थामने में विफल साबित हो रही थी. इलाहाबाद हाईकोर्ट के 12 जून के फैसले ने इंदिरा गांधी के लिए सत्ता में बने रहना और मुश्किल कर दिया. कानून मंत्री एच.आर.गोखले उन्हें सुप्रीम कोर्ट की ओर से आश्वस्त कर रहे थे लेकिन इंदिरा गांधी अपने राजनीतिक विरोधियों से हिसाब चुकता कर लेना चाहती थीं. वो कुछ ऐसा करने जा रही थीं, जिसकी उनके सहयोगियों को भी भनक नहीं थी. 25 जून1975 की तारीख करीब थी..!