नई सपा से अपने ही खफा! पार्टी के बदले तेवरों से सवर्ण नेता क्यों हैं बेचैन?

डॉ. अंबेडकर की तस्वीर के साथ अखिलेश यादव लखनऊ। उत्तर प्रदेश में अभी से ही 2024 के लोकसभा चुनाव को लेकर सियासी बिसात बिछाई जाने लगी है. सपा प्रमुख अखिलेश यादव बीजेपी से मुकाबला करने के लिए अपना सियासी ट्रैक बदल रहे हैं और अब सर्वजन के बजाय बहुजन की सियासत पर फोकस कर रहे हैं. एक तरफ सपा महासचिव स्वामी प्रसाद मौर्य रामचरितमानस की कुछ चौपाई को लेकर आक्रमक रुख अपनाए हुए हैं तो दूसरी तरफ अखिलेश यादव ‘शुद्र पॉलिटिक्स’ का एजेंडा सेट करने में जुटे हैं.

समाजवादी पार्टी और अखिलेश यादव के इस बदले नए सियासी तेवर से पार्टी के सवर्ण नेताओं की राजनीतिक बेचैनी बढ़ती जा रही है, क्योंकि उन्हें न पार्टी संगठन में तवज्जो मिली और न ही अखिलेश अहमियत दे रहे हैं. ऐसे में सपा के ब्राह्मण और ठाकुर समुदाय के नेता खुद को पार्टी के नए एजेंडे के साथ फिट नहीं बैठा पा रहे हैं तो अखिलेश भी एम-वाई समीकरण के साथ सर्वजन की राह पर चलकर बीजेपी से मुकाबला नहीं कर पा रहे हैं. ऐसे में बहुजन पालिटिक्स की दिशा में कदम बढ़ाया है.

सपा संगठन में नहीं मिली खास तवज्जो
अखिलेश यादव ने अपनी राष्ट्रीय टीम का गठन किया तो यादव-मुस्लिम के साथ दलित-ओबीसी की तमाम जातियों को तवज्जो दी, लेकिन सवर्ण समुदाय को खास अहमियत नहीं मिली. राष्ट्रीय कार्यकारिणी में शामिल 64 चेहरों में 11 यादव, 8 मुस्लिम, 5 कुर्मी, 7 दलित, चार ब्राह्मण और 16 अति पिछड़े वर्ग के लोगों को शामिल किया गया है. ठाकुर और ब्राह्मण समुदाय से किसी भी नेता को राष्ट्रीय महासचिव नहीं बनाया. सपा के इतिहास में पहली बार सवर्ण नेताओं को महासचिव का पद नहीं मिला. ब्राह्मण और ठाकुर समुदाय के नेताओं को राष्ट्रीय कार्यकारिणी में सदस्य और सचिव का पद दिया है. इतना ही नहीं पिछली राष्ट्रीय कार्यकारिणी में शामिल रही जूही सिंह को इस बार जगह नहीं मिली.

बहुजन की सियासत कर रहे अखिलेश 
अखिलेश यादव विधानसभा चुनाव 2022 से लगातार अंबेडकरवादियों और लोहियावादियों को एक मंच पर लाने की दुहाई देते रहे हैं. अब राष्ट्रीय कार्यकारिणी में बसपा पृष्ठभूमि वाले नेताओं को महत्वपूर्ण जिम्मेदारी दी है. रामचरितमानस पर मोर्चा खोलने वाले स्वामी प्रसाद मौर्य को महासचिव बनाते हुए जिस तरह से जातिगत जनगणना पर आगे बढ़ने के लिए अखिलेश यादव ने कहा उससे साफ है कि सपा की सियासत किस दिशा में जा रही है.

सपा अध्यक्ष लखनऊ के एक धार्मिक आयोजन में गए हुए थे, वहां पर बीजेपी कार्यकर्ताओं ने हंगामा काटा. अखिलेश यादव ने इसके बाद एक मीडिया बयान में कहा कि वे शुद्र हैं, इसलिए उनका विरोध भाजपा के लोग कर रहे हैं. अखिलेश यादव ने सवाल करते हुए कहा कि योगी जी बताएं की वे शुद्र हैं कि नहीं हैं? इसके बाद समाजवादी पार्टी के कार्यालय के बाहर एक होर्डिंग लगी जिसपर लिखा हुआ है कि गर्व से कहो कि हम शुद्र हैं. इस तरह से स्वामी प्रसाद मौर्य की सियासत को अखिलेश ने दो कदम आगे बढ़ दिया है.

सपा के सवर्ण नेता की बेचैनी
सपा की सियासत जिस तरह से बहुजन (दलित-ओबीसी) पॉलिटिक्स के इर्द-गिर्द केंद्रित हो रही है, उससे पार्टी के सवर्ण नेता बेचैन हैं. सपा विधायक मनोज पांडेय, पवन पांडेय से लेकर राकेश प्रताप सिंह, रिचा सिंह और जूही सिंह जैसे नेताओं ने स्वामी प्रसाद मौर्य के बयान को लेकर खुलकर मोर्चा खोल रखा था, लेकिन अखिलेश की शूद्र पॉलिटिक्स पर कदम बढ़ाए जाने से वे चिंता में पड़ गए हैं. सपा के सवर्ण नेताओं को अपने समुदाय के बीच जवाब देते नहीं बन रहा है और स्वामी प्रसाद मौर्य जिस तरह से खुलकर ब्राह्मणों को निशाने पर ले रहे हैं, उससे उनकी बेचैनी और भी बढ़ती जा रही है.

2022 के विधानसभा चुनाव में सपा के टिकट पर पांच ब्राह्मण और चार ठाकुर समुदाय के विधायक चुनकर आए हैं. सपा के इन सवर्ण विधायकों को यादव-मुस्लिम वोटों के साथ-साथ सवर्ण समुदाय के भी वोट मिले हैं, जिसके चलते उन्हें अपने-अपने क्षेत्रों में सपा की नई राजनीति के चलते जवाब देते नहीं बन रहा है. इसीलिए सवर्ण नेता ही स्वामी प्रसाद के बयान को लेकर सवाल खड़े कर रहे हैं, लेकिन अखिलेश यादव अब जिस तरह से बहुजन की सियासत की तरफ बढ़ रहे हैं. उससे चलते इन नेताओं की चिंता बढ़ती जा रही है?

मुलायम की सियासत में ठाकुर-मुस्लिम-यादव

बता दें कि मुलायम सिंह यादव अपने शुरुआती दौर में भले ही ओबीसी की पॉलिटिक्स करते रहे हों, लेकिन समाजवादी पार्टी के गठन के बाद सभी समाज को लेकर चले. एक समय तो सपा के कोर वोटबैंक में यादव-मुस्लिम-ठाकुर समाज हुआ करता था. मुलायम सिंह की सरकार से लेकर अखिलेश यादव के राज में यादव-मुस्लिम के साथ ठाकुर समुदाय के नेताओं का बोलबाला हुआ करता था. इतना ही नहीं जानेश्वर मिश्र और ब्राह्म शंकर त्रिपाठी जैसे ब्राह्मण चेहरा भी सपा में हुआ करते थे.

यूपी में साल 2012 में समाजवादी पार्टी पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में आई थी. उस समय सूबे में 48 ठाकुर विधायक जीतकर आए थे, जिनमें 38 सपा के टिकट पर जीते थे. यही वजह थी कि अखिलेश सरकार में 11 ठाकुर मंत्री बनाए थे. इतना ही नहीं ब्राह्मण समुदाय से माता प्रसाद पांडेय को विधानसभा अध्यक्ष और ब्राह्मण नेताओं को मंत्री बनाया गया था. इस तरह से सपा के सियासी एजेंडे में ठाकुर-ब्राह्मण भी अहम हुआ करते थे, लेकिन 2017 में बीजेपी के सरकार में आने के बाद ब्राह्मण और ठाकुरों को सपा से मोहभंग हुआ है.

बीजेपी के कोर वोट बैंक ठाकुर-ब्राह्मण 

योगी आदित्यनाथ के मुख्यमंत्री बनने के बाद सपा से ठाकुर नेताओं ने बीजेपी का दामन थामा है. सपा को समर्थन देने वाले रघुराज प्रताप सिंह उर्फ राजा भैया ने अब अपनी अलग पार्टी बना ली है और बीजेपी को समर्थन कर रहे हैं. राजकिशोर सिंह, मदन चौहान सपा छोड़ बसपा में, राजा महेंद्र अरिदमन सिंह, राजा आनंद सिंह बीजेपी में शामिल हो गए. इस तरह से सपा के अन्य ठाकुर नेताओं का सियासी ठिकाना बीजेपी बन गई.

2022 के विधानसभा चुनाव में अखिलेश यादव ने सपा की रणनीति बदली है और ठाकुरों की जगह ब्राह्मण नेताओं को खास सियासी अहमियत देना शुरू किया है. चुनाव में बड़ी संख्या में ब्राह्मण नेताओं को प्रत्याशी भी बनाया, जिसमें से महज पांच ही जीत सके. सीएसडीएस के आंकड़े को मानें तो 2022 के चुनाव में ठाकुर-ब्राह्मण-वैश्य समुदाय ने बीजेपी को 80 से 90 फीसदी के बीच वोट किया है. सपा को 2022 के चुनाव में करीब 32 फीसदी वोट मिले हैं जबकि बीजेपी को 40 फीसदी वोट मिला है.

बहुजन की सियासत क्यों 

राजनीतिक विश्लेषकों की मानें तो अखिलेश यादव सूबे की सियासी नब्ज को पूरी समझ गए हैं कि ठाकुर समुदाय किसी भी कीमत पर योगी आदित्यनाथ को छोड़कर उनके साथ नहीं आएगा. ब्राह्मण और वैश्य समुदाय भी बीजेपी के साथ मजबूती से जुड़ा हुआ है. ऐसे में सवर्ण वोटों के बजाय बहुमत वोटों पर फोकस करने के रणनीति है. 2022 के चुनाव में बीजेपी और सपा के बीच आठ फीसदी वोटों का अंतर है. ऐसे में अखिलेश यादव बीजेपी के वोटबैंक से पांच से छह फीसदी वोट को हासिल करना चाहते हैं, जिसमें उनकी नजर अतिपिछड़े वोटों पर है. यादव-मुस्लिम को जोड़े रखते हुए अखिलेश दलित-ओबीसी वोटों को साधने की कवायद कर रहे हैं. ऐसे में सवाल उठता है कि समाजवादी पार्टी सवर्णों को नजरअंदाज कर क्या दलित-ओबीसी वोटों को जोड़ने में सफल हो सकते हैं?