लखनऊ। उत्तर प्रदेश की सियासत में टीपू से ‘सुल्तान’ बने चुके अखिलेश यादव अपने पिता की सियासी विरासत को लगातार खोते जा रहे हैं. बीते कुछ चुनावों में सपा के हिस्से में जो परिणाम आए हैं, उससे अखिलेश यादव को आलोचना का शिकार होना पड़ा है. विपक्षी ही नहीं सहयोगी दल और मुलायम कुनबे के सदस्य तक उनके खिलाफ खड़े नजर आ रहे हैं. सपा अपने सियासी इतिहास के सबसे मुश्किल दौर से गुजर रही है. इसके बावजूद अखिलेश यादव एक के बाद एक सियासी गलतियां करते जा रहे हैं, जिसके चलते उनके नेतृत्व पर भी सवाल खड़े होने लगे हैं.
सपा का आदिवासी दांव कैसे पड़ा उल्टा
सपाइयों ने कीर्ति कोल को आदिवासी समुदाय का नेता बताते हुए राष्ट्रपति चुनाव की तर्ज पर नया कार्ड खेलने की कोशिश की थी. सपा को उम्मीद थी कि कोल बिरादरी के जरिए राष्ट्रपति चुनाव में दलित, आदिवासी विरोधी होने के लग रहे आरोपों को खारिज किया जा सकेगा, लेकिन पार्टी नेताओं की छोटी सी गलती ने सारे अरमानों को फेल कर दिया. आदिवासी कार्ड खेलने का दांव सपा के लिए उल्टा पड़ गया. इससे अखिलेश के चुनावी रणनीतिकारों की समझ पर तो सवाल उठ रहे हैं और बीजेपी को अब सपा को घरेना का मौका भी मिल गया. सपा अब भले ही इसे ब्लंडर का नाम दें और जांच-कन्फ्यूजन की बात कहें, लेकिन पर्चा खारिज होने ने सपा की कार्यशैली पर गंभीर सवाल जरूर खड़ा कर दिए हैं.
यूपी के अनुसूचित जाति एवं जनजाति कल्याण राज्यमंत्री संजीव गोंड ने अखिलेश यादव की नीयत पर सवाल खड़े करते हुए कहा कि सपा ने अनुसूचित जनजाति को प्रतिनिधित्व देने का जो ढोंग रचा था, उसकी कलई खुल गई है. वहीं, सुभासपा चीफ ओम प्रकाश राजभर ने कहा कि अखिलेश यादव कोई भी चुनाव को गंभीरता से नहीं लेते हैं. उनकी राजनीतिक अपरिपक्वता एमएलसी चुनाव में भी सामने आ गई है. ऐसे ही पिछले दिनों भी निकाय क्षेत्र की एमएलसी चुनाव में देखा गया था कि सपा प्रत्याशियों के पर्चे खारिज कर दिए गए थे और कुछ उम्मीदवार नामांकन करने तक नहीं पहुंच पाए थे. वहीं, मुलायम सिंह के दौर में कभी भी सपा में इस तरह के घटनाएं नहीं होती थी जबकि अखिलेश की नई सपा में हर रोज कोई न कोई सियासी चूक हो रही है.
सपा के महासचिव प्रो. रामगोपाल यादव ने सोमवार शाम मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से अकेले मुलाकात की थी. इस दौरान उन्होंने सीएम योगी से अपने रिश्तेदार पूर्व विधायक रामेश्वर यादव व उनके परिजनों का उत्पीड़न रोकने की मांग की है. पत्र में उन्होंने मांग है कि पूरे मामले की जांच सीबीआई व एसआईटी से कराई जाए. रामगोपाल के सीएम से अकेले में मिलने और रामेश्वर यादव के संबंध में ही सिर्फ बात रखने से सवाल खड़े होने लिए हैं, क्योंकि सपा के दूसरे नेताओं पर हुए मामलों का कई जिक्र नहीं किया गया.
अखिलेश के लिए टेंशन बन गए ओपी राजभर
सपा प्रमुख अखिलेश यादव ने सुभासपा अध्यक्ष ओम प्रकाश राजभर के साथ गठबंधन तोड़कर एक और विरोधी को अपने खिलाफ खड़ा कर लिया है. कांग्रेस और बसपा प्रमुख मायावती पहले ही अखिलेश को लेकर आक्रमक हैं. ऐसे में राजभर के रूप में एक और सियासी दुश्मन खड़ा हो गया है. राजभर जब से सपा से अलग हुए हैं तब से खुलकर अखिलेश यादव को लेकर मोर्चा खोल रखा है. अखिलेश को दलित और अतिपिछड़ा विरोधी के रूप में पेश कर रहे हैं. ओम प्रकाश राजभर जिस तरह के तेज तर्रार और मुखर नेता हैं, उस लहजे में उन्हें जवाब देने के लिए सपा में कोई नहीं है. ऐसे में राजभर हर रोज एक टेंशन खड़ी कर रहे हैं.
उत्तर प्रदेश की सियासत में सपा 47 सीटों से बढ़कर 111 विधायकों के साथ मुख्य विपक्षी दल के रूप में उभरी है. 2022 के चुनाव में बीजेपी विरोधी वोट एकजुट होकर अखिलेश यादव के पक्ष में गया था, लेकिन सपा जिस तरह से एक के बाद एक सहयोगी दल को खोती जा रही है. चुनाव से बाद से सपा के तीन सहयोगी दल साथ छोड़ चुके हैं. वहीं, मुख्य विपक्षी दल होने के नाते सपा से जिस तरह की उम्मीदें की जा रही थी, उसे पार्टी आक्रमक तरीके से नहीं उठा सकी.
जन भावनाओं से जुड़े हुए मुद्दों को लेकर भी सपा ने योगी-मोदी सरकार के खिलाफ न तो सड़क पर उतरी है और न कोई आंदोलन अभी तक खड़ी कर सकी है. इसी का नतीजा है कि आजमगढ़ में सपा का मुस्लिम वोट बैंक खिसका है और सत्ता विरोधी वोटों में भी एक बेचैनी दिख रही है. इस तरह सूबे की सियासी पिच पर अखिलेश यादव के लिए राजनीतिक चुनौतियां बढ़ती जा रही है और ऐसी कार्यशैली रही तो सपा के लिए 2024 की सियासी राह काफी मुश्किलों भरी साबित हो सकती है?