‘कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी…’ – हममें निश्चित रूप से कुछ खास है, जिसकी वजह से हमारा अस्तित्व मिट नहीं पाया (रोम, ईरान, मिस्र आदि जैसे प्राचीन सभ्यताओं और धर्मों की तुलना में)। अल्लामा इकबाल द्वारा लिखी गईं ये पंक्तियाँ उनके लोकप्रिय गीत ‘सारे जहां से अच्छा…’ का हिस्सा हैं। अक्सर इन पंक्तियों को इस आश्वासन के रूप में प्रस्तुत किया जाता है कि पर्याप्त हिंदू जनसंख्या वाले दुनिया के एकमात्र देश भारत हजारों वर्षों से जीवित है और आगे भी जीवित रहेगा। इस तरह हिंदू और हिंदू धर्म का भी अस्तित्व बना रहेगा।
विडंबना यह है कि इकबाल ने खुद अपने लिखे इस गीत को कुछ ही वर्षों में नकार दिया था। उन्होंने एक और गीत ‘मुस्लिम हैं हम, वतन है सारा जहां हमारा’ लिखा, जो उनके पहले लिखे गीत ‘हिंदी हैं हम, वतन है हिंदुस्तां हमारा’ से पूरी तरह विरोधाभासी था। बाद में यही इकबाल द्वि-राष्ट्र सिद्धांत के प्रस्तावक बन गए, जिसके परिणामस्वरूप भारत का विभाजन हुआ और मुसलमानों के लिए एक अलग इस्लामी मुल्क का निर्माण हुआ। वर्तमान पाकिस्तान की भूमि और हिंदू उस व्यक्ति के दर्शन से नहीं बच सके, जिसकी पंक्तियों को हिंदुओं और हिंदुस्तान के अस्तित्व को आश्वस्त करने वाला माना जाता है।
हिंदुओं और हिंदू धर्म के अस्तित्व और भविष्य के बारे में बहस नई नहीं है। भारत विभाजन एक अच्छा उदाहरण है, जिससे पता चलता है कि कैसे हिंदुओं ने अपनी भूमि और विरासत का एक बड़ा हिस्सा रातों-रात खो दिया। विभाजन के बाद जो धर्मनिरपेक्ष भारत के रूप में बचा, उसमें हिंदुओं की जनसंख्या वृद्धि दर में गिरावट हिंदू ताकत में गिरावट के सबूत के रूप में दिखाता है, जो एक और विभाजन की ओर हमें ढकेल रहा है। हालाँकि, कुछ ‘उदारवादी’ इसे ‘साजिशी सिद्धांत’ बताकर खारिज करते रहते हैं, जबकि हर दशक में देश की कुल जनसंख्या में हिंदुओं की हिस्सेदारी लगातार गिरती जा रही है।
हालाँकि, जनसंख्या में घटती हिस्सेदारी दिखाना एक सरल अंकगणितीय प्रक्षेपण नहीं है, जिसमें भारत में हिंदुओं को अल्पसंख्यक बन जाने के वास्तविक समय की भविष्यवाणी की जा सके। स्तंभकार और रक्षा विश्लेषक अभिजीत अय्यर मित्रा का मानना है कि यह प्रक्रिया जल्द ही एक ऐसे मोड़ पर पहुँच सकती है, जहाँ से अपरिवर्तनीय गिरावट आएगी और ‘हिंदू धर्म का अंत’ होगा। उनका मानना है कि अगर हिंदू और हिंदू नेतृत्व इस खेल को नहीं समझे तो ऐसा एक सदी के भीतर ही हो जाएगा।
अभिजीत एक घंटे से अधिक समय के एक वीडियो टॉक में इस दिन की भविष्यवाणी की व्याख्या करते हैं। इसे पॉडकास्टर कुशाल मेहरा द्वारा होस्ट किया गया है, जिसे यहाँ देखा जा सकता है। अभिजीत भारत में हिंदुओं को अल्पसंख्यक बनाने के लिए कुछ शक्तिशाली लॉबी द्वारा की जा रही किसी बड़ी साजिश को यहाँ नहीं बता रहे हैं। वह इतिहास के माध्यम से स्वतंत्रता के बाद के आधुनिक भारत में क्या हुआ और ईसाई पूर्व यूरोप, इस्लाम आने से पूर्व के ईरान एवं मिस्र के धर्मों के साथ क्या हुआ, जिन्हें अब संग्रहालयों में स्थानांतरित कर दिया गया है, के बीच समानताएँ दिखाने का प्रयास कर रहे हैं।
वह बताते हैं कि भारत पर इस्लामी और बाद में ईसाई (औपनिवेशिक) आक्रमण के बावजूद यहाँ के मूल धर्म यानी हिंदू धर्म का सफाया क्यों नहीं हो सका, जबकि मध्य युग में इन्हीं आक्रमणकारियों द्वारा यूरोप, मिस्र, ईरान आदि के मूल धर्मों का सफाया कर दिया गया था। वह यह भी बताते हैं कि मध्य काल में उन देशों के मूल धर्मों का सफाया करने वाले कारक आज भारत में कैसे प्रचलन में हैं। इस तरह सदियों पहले विदेशी शासन के अधीन रहने की तुलना में आज हिंदू धर्म के लुप्त होने का खतरा कहीं अधिक है।
अभिजीत का तर्क है कि रोम, मिस्र, ईरान आदि में अब्राहमिक धर्म (इस्लाम और ईसाई) के पूर्व पगन धर्म था, जिसे हिंदू धर्म के समान होने का तर्क दिया जा सकता है। खुद को धर्मनिरपेक्ष बताने वाले धर्मों की अपेक्षा हिंदू धर्म इस तरह से बेहतर था कि मृत्यु और उसके बाद के जीवन के बारे में उसके दार्शनिक पहलू स्वयं धर्मशास्त्र का हिस्सा थे। इसने हिंदू धर्म को अब्राहमिक धर्मों की चुनौतियों का सामना करने के लिए सैद्धांतिक और धार्मिक रूप से मजबूत बनाया।
हालाँकि, हिंदू धर्म और मूर्तिपूजक पगन, दोनों धर्मों ने गलती की और बाद में आने वाले एकेश्वरवादी अब्राहमिक विश्वासों और दर्शन के खतरे को महसूस नहीं किया। हिंदू धर्म और उन पूर्व-अब्राहमिक धर्मों ने अब्राहमिक विश्वासों के साथ सह-अस्तित्व के लिए सामान्य आधार तलाशने की कोशिश की, जबकि अब्राहमिक धर्म सामान्य आधारों की खोज में बेहद कम रुचि रखते थे। इसके बजाय वे एकमात्र आधार तलाश करते थे, वह था भूमि पर नियंत्रण। सैद्धांतिक रूप से हम कह सकते हैं कि अब्राहमिक धर्म ने उस स्थान के मूल धर्मों का सफाया अपनी विशिष्टता और कट्टरता के कारण किया, जबकि अभिजीत का तर्क है कि उनका वास्तविक सफाया आर्थिक, भौगोलिक और राजनीतिक कारणों से हुआ।
अभिजीत ईसाई पूर्व यूरोप के विभिन्न उदाहरणों का हवाला देते हुए बताते हैं कि यूरोप की अधिकांश आबादी घोर गरीबी (ईसाई धर्म ने दुख और गरीबी को ईसा मसीह या गॉड के निकट आने के तरीकों के रूप में पेश किया है) और इन देशों के अधिक उपजाऊ वाले हिस्सों में अत्यधिक आबादी (जहाँ आक्रमणकारी न केवल कुलीन शासकों के रूप में आए थे, बल्कि बसने के इरादे से अपने साथ आबादी और पशुधन लेकर भी आए थे), ईसाई धर्म में मतांतरण की प्रमुख वजह थी। उनका कहना है कि उपजाऊ भूमि और उसके आसपास बनी संपत्तियों पर नियंत्रण रखने की इच्छा बड़े पैमाने पर धर्मांतरण में मददगार साबित हुईं।
इसके अलावा, कम उपजाऊ भूमि वाले क्षेत्र में, जहाँ बड़े पैमाने पर मतांतरण के माध्यम से संपत्तियों को नियंत्रित करने के अवसर कम थे, वहाँ अब्राहमिक धर्मों में धर्मांतरण उन सैनिकों का किया गया, जो मुख्यत: पैसे के बजाय अपने धर्म के लिए मरने को तैयार थे। अभिजीत का तर्क है कि इसी लिए शासकों के लिए मतांतरित लोगों की सेना बनाना और उसे रखना पहले की तुलना में सस्ता था।
जब बात भारत की आती है तो अभिजीत का तर्क है कि ये दोनों कारक यहाँ महत्वपूर्ण नहीं थे। सर्वप्रथम, यहाँ केवल कुलीन सैन्य वर्ग ही आक्रमण के साथ आया। पलायन के दौरान वह अपने साथ बड़ी आबादी और पशुओं को नहीं लाया। इस प्रकार मंदिरों के आसपास स्थित स्थानीय संपत्तियों को नियंत्रित करने का कोई उन पर दबाव नहीं था। जनता को मतांतरित करने और उनके कल्याण पर खर्च करने के लिए मजबूर होने की तुलना में शासकों के लिए स्थानीय आबादी से कर लेना (इस्लामी शासकों द्वारा जजिया के रूप में, ब्रिटिश शासकों द्वारा लगान आदि के रूप में) एक बेहतर विकल्प था। इसके अलावा, इस्लामी और ब्रिटिश, दोनों शासकों ने भी एक विशाल और लगातार बढ़ती हुई सेना को बनाए रखने की आवश्यकता महसूस नहीं की, जो पूरी आबादी को मतांतरित करने का एक बड़ा कारण होता। भारत में प्रजा या शासकों के लिए स्थानीय आबादी को बड़े पैमाने पर मतांतरित करने का कोई बड़ा कारण नहीं था।
हालाँकि, 1947 के बाद यह बदल गया है। अभिजीत कहते हैं कि ईसाई धर्म में धर्मांतरण के लिए बहुत बड़ा प्रोत्साहन है, क्योंकि भारत के धर्मनिरपेक्ष संविधान में केवल अल्पसंख्यकों को उनकी इच्छा के अनुसार स्कूल और कॉलेज चलाने की अनुमति है। वहीं, मुसलमानों को अपने लिए सेना बनाने और उसे रखने (संख्या के रूप में) की आवश्यकता महसूस होती है, क्योंकि वे हमेशा ‘डरा हुआ’ होते हैं और देश की धर्मनिरपेक्ष राजनीति ने उन्हें दशकों से इस मोड में रखा है। इस प्रकार आज बड़े पैमाने पर धर्मांतरण के ट्रिगर, पहले की तुलना में कहीं अधिक सक्रिय और प्रासंगिक हैं।
अभिजीत का कहना है कि सरकार द्वारा मंदिरों का राष्ट्रीयकरण ने, जिसके आसपास हिंदुओं की संपत्ति और आर्थिक पारिस्थितिकी तंत्र सबसे पहले पनपा था, इन चुनौतियों के लिए एक व्यवस्थित प्रतिक्रिया खोजने की हिंदुओं की क्षमता को घटा दिया है। इस प्रकार, जो आजादी से पहले और मध्यकाल में भी नहीं हुआ, वह वास्तव में आजादी के बाद हो रहा है। आज न केवल खतरे अधिक स्पष्ट हैं, बल्कि उनसे उबरने की क्षमता भी कमजोर हो गई है। इसलिए अभिजीत को विश्वास नहीं है कि हिंदू धर्म लंबे समय तक जीवित रह पाएगा।
जब एक व्यक्ति ने अभिजीत से पूछा कि अगर आपकी भविष्यवाणी सत्य होती है और जब भारत में हिंदू अल्पसंख्यक हो जाएँगे एवं बड़े पैमाने पर उनका उत्पीड़न होने लगेगा तो कौन-सा देश हिंदुओं को सुरक्षित पनाह देगा? इस पर अभिजीत ने कहा, “आपके पास कहीं जाने का रास्ता नहीं होगा”।
(इस आर्टिकल को अभिजीत ने नहीं लिखा है, बल्कि उनके तर्कों को संक्षिप्त और सारांश के रूप में प्रस्तुत किया गया है। अभिजीत से उनके ट्विटर @Iyervval पर संपर्क किया जा सकता है।)