लखनऊ। मार्च 2017 में प्रदेश में योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की सरकार बनने के बाद अपराधियों की धड़पकड़ के लिए अभियान चलाया गया था. इस क्रम में प्रदेश में अब तक अपराधियों और पुलिस के बीच 6,200 से अधिक मुठभेड़ हो चुकी है जिनमें 14 हजार से अधिक अपराधी गिरफ्तार हुए हैं. इन मुठभेड़ में अबतक 2,300 से अधिक अभियुक्त और 900 से अधिक पुलिसकर्मी घायल हुए हैं. अपराधियों से मोर्चा लेते हुए 13 पुलिसकर्मी शहीद हुए हैं जबकि अब तक 124 अपराधी पुलिस मुठभेड़ में मारे गए हैं. अगर जातिवार इन अपराधियों का ब्योरा देखा जाए तो 47 अल्पसंख्यक, 11 ब्राह्मण, 8 यादव और शेष 58 अपराधियों में ठाकुर, पिछड़ी और अनसूचित जाति/जनजाति के अपराधी शामिल हैं.
मुठभेड़ की ज्यादातर घटनाएं पश्चिमी यूपी में हुई हैं. मेरठ में अब तक एनकाउंटर में 14 अपराधी मारे गए हैं. मुजफ्फरनगर में 11, सहारनपुर में 9 और शामली में 5 अपराधी एनकाउंटर में मारे गए हैं. पूर्वी जिलों में सबसे ज्यादा एनकाउंटर आजमगढ़ में हुआ है जहां 5 अपराधी पुलिस से मुठभेड़ में मारे गए हैं.
यूपी में अपराधियों के एनकाउंटर पर शुरू से ही सवाल खड़े हो रहे हैं. नवंबर, 2018 में एनजीओ ‘पीपल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टी” की सुप्रीम कोर्ट में दाखिल जनहित याचिका पर दाखिल हलफनामे में यूपी सरकार ने कहा कि याचिकाकर्ता संगठन का यह दावा झूठा है कि एनकाउंटर में अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों को ही टारगेट किया गया है. योगी सरकार ने हलफनामे में बताया था कि पुलिस कार्रवाई में मारे गए 48 अपराधियों में 30 बहुसंख्यक समुदाय से हैं जबकि 18 अल्पसंख्यक समुदाय से. यह प्रकरण अभी भी न्यायालय में लंबित है. पिछले वर्ष जनवरी, 2019 में यूपी में हुए एनकाउंटरों के मामले में दाखिल याचिका की सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि एनकाउंटरों के नजदीकी और गंभीर परीक्षण की जरूरत है.
यूपी के अपर पुलिस महानिदेशक (कानून व्यवस्था) प्रशांत कुमार कहते हैं, “यूपी पुलिस ने हर जिले के टॉप टेन अपराधियों को चिन्हित करके सबके लिए अलग-अलग रणनीति बनाकर कार्रवाई की जा रही है. पिछले एक महीने में अतीक अहमद और मुख्तार अंसारी अपराधियों के खिलाफ जो कार्रवाई हुई है वैसी अभी तक नहीं हुई थी. पुलिस अपराधियों में कड़ी कार्रवाई कर रही है. इसमें जात, पांत, धर्म, संप्रदाय नहीं देखा जाता.” वर्ष 2014 में सुप्रीम कोर्ट ने पुलिस मुठभेड़ के हर मामले की मजिस्ट्रीयल जांच करने का आदेश दिया था. इसी क्रम में यूपी में भी हर एनकाउंटर की मजिस्ट्रेट जांच की जा रही है. सरकारी जानकारी के मुताबिक, अब तक अब तक उन 74 इनकाउंटर की मजिस्ट्रीयल जांच पूरी हो चुकी है जिसमें अपराधी की पुलिस मुठभेड़ में मौत हो गई थी. इन सभी मामलों में पुलिस को मजिस्ट्रीयल जांच में क्लीन चिट मिल चुकी है. इनमें 61 मामलों में पुलिस द्वारा दाखिल क्लोजर रिपोर्ट को कोर्ट ने मान लिया है.
बावजूद इसके कुछ पुराने मामले अभी भी लंबित हैं. वर्ष 2001 में लखनऊ के मडि़यांव थाने में तैनात एक दरोगा ने पुलिस मुठभेड़ में अपराधी आलमगीर को मार गिराने का दावा किया था. घरवालों ने इसे कत्ल बताया. मजिस्ट्रेटी जांच शुरू हुई और 19 साल बाद प्रकरण लंबित है. इसी तरह लखनऊ में अब तक अलग-अलग मामलों में लंबित करीब तीन दर्जन मजिस्ट्रीयल जांचों में हो रही लेट लतीफी से जहां पीड़ित पक्ष प्रशासनिक सिस्टम को कोस रहा है वहीं यह देरी अपराधियों के लिए ढाल साबित हो रही है. यूपी के एक वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी बताते हैं, “मजिस्ट्रेटी जांच में कई सरकारी पक्ष शामिल होते हैं. अफसरों के लगातार स्थानांतरण होते रहते हैं जिसके चलते वह बयान और साक्ष्यों के लिए उपलब्ध नहीं हो पाते हैं. तो वहीं जांच करने वाले अफसरों के कार्यक्षेत्र भी बदलते रहते हैं. यही वजह है कि आने वाला नया अफसर जबतक केस को समझता है उसका तबादला हो जाता है. मजिस्ट्रेटी जांचों के लंबित रहने का यह एक बड़ा कारण है.”
लखनऊ के वरिष्ठ क्रिमिनल वकील शैलेंद्र सिंह सुझाव देते हैं कि सरकार को एक ऐसा कानून बनाना चाहिए जिसमें एनकाउंटर जैसे संवेदनशील मसलों की मजिस्ट्रेटी जांच को एक तय सीमा के भीतर समाप्त करने का प्रावधान रखना चाहिए. हालांकि विकास दुबे के एनकाउंटर के बाद यूपी के गृह विभाग ने सभी जिलों को लंबित मजिस्ट्रीयल जांच को प्राथमिकता के तौर पर पूरा करने का निेर्दश दिया है.