अजय कुमार
लखनऊ। उत्तर प्रदेश में सरकारी भ्रष्टाचार कैंसर की तरह जड़े जमाए हुए है। गत वर्ष इंडियन करप्शन सर्वे ने जब 2019 की रिपोर्ट तैयार की तो इसमें सबसे भ्रष्ट राज्यों की सूची में चैथे नंबर पर उत्तर प्रदेश का नाम आया। सर्वे टीम ने जिन लोगों से बात की उसमें से 74 प्रतिशत लोगों का कहना था कि भ्रष्टाचार के प्रति जीरो टालरेंस की नीति पर चलने वाली योगी सरकार में भी उन्हें रिश्वत देकर अपना काम निकालने को मजबूर होना पड़ा था, जबकि 57 फीसदी लोगों ने कहा उन्होंने कई बार रिश्वत दी है। इस लिस्ट में राजस्थान पहले, बिहार दूसरे और झारखंड तीसरे स्थान पर था।
वैसे, उत्तर प्रदेश में सरकारी भ्रष्टाचार कोई नया नहीं है। पिछले तीन-चार दशकों में उत्तर प्रदेश का कोई मुख्यमंत्री ऐसा नहीं बचा होगा, जिसके ऊपर भ्रष्टाचार के आरोप न लगे हों। बसपा सुप्रीमों और पूर्व मुख्यमंत्री मायावती को तो वर्षो तक ताज कारिडोर सहित कई मामलों में अदालत के चक्कर लगाने पड़े थे। भले ही यह आरोप सिद्ध नहीं हो पाए हों, लेकिन समाज में इससे नेताओं की प्रतिष्ठा तो धूमिल होती ही है। कई पूर्व मुख्यमंत्रियों को भ्रष्टाचार के आरोपों के चलते वर्षो तक कोर्ट-कचहरी के चक्कर लगाते देखा जा चुका है। सत्तारूढ़ दल के नेताओं पर तो भ्रष्टाचार का आरोप लगते ही है सचिवालय में बैठने वाले अधिकारियों-कर्मचारियों की भी भ्रष्टाचार में अहम भूमिका रहती है।
पिछले एक दशक में फर्जीवाड़े, घोटाले और अनुशासनहीनता के जितने भी मामले सामने आए उसमें जो सचिवालय के अधिकारी/कर्मचारी शामिल रहे, यदि उनकी ईमानदारी से जांच हो जाती तो कई जेल की सलाखों के पीछे होते,लेकिन विभागीय जांच तो दूर स्वयं वह विभाग ही उनके लिए सुरक्षा कवच बन गया जहां घोटाले को अंजाम दिया गया होता था। अनेकों केस में दिखाने भर की कार्रवाई के बाद जैसे ही मामला मीडिया की सुर्खिंयों से दूर चला जाता है, पूरे मामले को विभाग रफा-दफा कर देता है। फर्जीवाड़े, घोटाले के अलावा अनुशासनात्मक कार्रवाई के भी तमाम मामले इसमें शामिल हैं।
सचिवालय को-ऑपरेटिव बैंक में बड़ा गबन हुआ और इसकी वजह से आरबीआई ने कार्रवाई करते हुए बैंक के लेन-देन पर रोक लगा दी। को-ऑपरेटिव बैंक के पदाधिकारी भी सचिवालय कर्मचारी थे और जिनकी रकम फंस गई वे भी सचिवालय कर्मचारी। मामले में को-ऑपरेटिव विभाग के आदेश पर बैंक ने हजरतगंज थाने में विभागीय जांच रिपोर्ट के साथ तहरीर दी, लेकिन न तो पुलिस ने ही कार्रवाई की और न ही सचिवालय प्रशासन विभाग ने। मामले में सचिवालय प्रशासन विभाग के अधिकारी गबन के आरोपित कर्मचारियों को बचाने में लगे रहे और उनसे वसूली तक नहीं हुई। आरोपित बैंक अध्यक्ष तो रिटायर तक हो गए और उन्हें पेंशन देयकों का भुगतान भी हो गया। मौजूदा सरकार के कार्यकाल में एक-दो बार कर्मचारियों पर कार्रवाई के लिए चिट्ठी जरूर लिखी गई लेकिन हुआ कुछ नहीं।
बात पूर्ववर्ती अखिलेश सरकार की कि जाए तो आज जो अखिलेश यादव बात-बात पर योगी पर उंगली उठाने लगते हैं उन्हीं के शासनकाल में व्यवस्था अधिकारी समेत 22 लोगों को फर्जी पास बनाकर प्रवेश देने और बिना अनुमोदन के नौकरी के आरोप में शामिल लोगों को सचिवालय के ही अधिकारियों ने रंगे हाथों पकड़ा। बावजूद इसके इस मामले में जितने भी सचिवालय कर्मचारी थे, वे बहाल हुए और उन्हें बाकायदा समय से प्रमोशन भी मिला। इसी तरह अखिलेश सरकार में सचिवालय में स्टेशनरी घोटाला सामने आया था। कई लोगों ने ऊंचे-ऊंचे दामों पर स्टेशनरी के सामान खरीदे। जब यह घोटाला पकड़ा गया तो केवल स्टेशनरी का काम देखने वाले व्यक्ति को उसके दायित्व से हटा दिया गया। बाकी सभी आरोपित बचे रहे। किसी पर कोई भी कार्रवाई नहीं हुई। कहा जाता है कि सचिवालय प्रशासन विभाग के तत्कालीन प्रभावशाली अधिकारियों की मंशा के पहले से ही ऐसा हुआ।
योगी ने जब सत्ता संभाली तो सचिवालय के भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने के लिए वर्ष 2017 में सचिवालय सहित सभी अधिकारियों/कर्मचारियों को चल-अचल संम्पति का ब्योरा सौंपने का आदेश दिया गया। पहले तो सरकारी कर्मी आनाकानी करते रहे,लेकिन जब दबाव ज्यादा पड़ा तो सबने सम्पति का ब्योरा तो दे दिया,लेकिन इसकी जांच कभी नहीं हुई की किस कर्मी के पास कितनी चल-अचल सम्पति है, क्योंकि अधिकारियों ने इसकी जांच ही नहीं होने दी। कम से कम उन अधिकारियों/कर्मचारियों की सम्पति की तो जांच कराना ही चाहिए था,जिन पर भ्रष्टाचार,घोटाले और धन उगाही के आरोप लगे थे। सचिवालय के ही कुछ नेता और कर्मचारी बेहद साफगोई से कहते हैं कि यदि अधिकारियों/कर्मचारियों की सम्पति की जांच हो गई होती तो कई कई सलाखों के पीछे पहुंच चुके होते और भ्रष्टाचार पर अंकुश भी लग जाता।
ऐसा नहीं है कि हमेशा सरकारी भ्रष्टाचार सरकार के मुखिया यानी मुख्यमंत्री के ही संरक्षण में फलता-फूलता हो, लेकिन हिन्दुस्तान की सियासत में एक ऐसी परिपाटी बन गई कि जब भी कोई मंत्री या अधिकारी भ्रष्टाचार करता है तो यह मान लिया जाता है कि ऐसे भ्रष्टाचारियों को मुख्यमंत्री का संरक्षण मिला हुआ होगा। इसी लिए तो मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की छवि भी धूमिल हो रही है। वर्ना तो योगी की ईमानदारी पर विरोधी दलों के नेताओं को छोड़कर कोई विश्वास ही नहीं करता है। योगी की ईमानदारी की तो मिसाल दी जाती है,लेकिन ऐसी बातों से राजनीति का कोई सरोकार नहीं होेता है। राजनीति में नेतागण आरोपों की सियासत अपना लक्ष्य साधने और सत्ता हासिल करने के लिए करते हैं।
बहरहाल, बात आज की नहीं है,वर्षो से सरकारी भ्रष्टाचार के ‘हमाम’ में मंत्री से लेकर संत्री तक और अधिकारी से लेकर कर्मचारी हर कोई ‘नंगा’ नजर आता है। यूपी में सरकारी अधिकारियों-कर्मचारियों का तबादला एक उद्योग की तरह फलता-फूलता है। शायद ही कोई असहमत हो कि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने भ्रष्टाचार के खिलाफ दिल से जीरों टाॅलरेंस नीति अपना रखी है, बावजूद इसके सरकारी कार्यप्रणाली में भ्रष्टाचार पर अपेक्षानुसार अंकुश नहीं लग पा रहा है। कुछ महीने पहले पीएफ घोटाला, फिर शिक्षक भर्ती और पुशपालन विभाग में टेंडर घोटाले से जाहिर है कि तताम सख्ती के बाद भी अधिकारीं-कर्मचारी और ठेकेदार घपले-घोटाले करने से बाज नहीं आ रहें हैं।
मौजूदा सरकार के शासनकाल में भ्रष्टाचार के जो भी मामले उजागर हुए, उनमें जांच एजेंसियों ने कड़ी कार्रवाई की और कई बड़े अधिकारी भी जेल गए। इसके बावजूद तमाम तरह के घोटाले में आरोपितों की दुस्साहिसक कार्यशैली से लगता है कि सरकार की सख्त नीति भी भ्रष्टाचारी तंत्र में खौफ पैदा नहीं कर पाई है। पशुपालन घोटाले का तो यह हाल था कि घोटालेबाजों ने सरकार की नाक के नीचे सचिवलाय में न सिर्फ फर्जी कार्यालय खोल लिया, बल्कि वहां फर्जी अधिकारी बैठाकर ठेकेदार के साथ डीलिंग भी चलती रही। अंततः आरोपित उससे 9.72 करोड़ रूपये ठगने में सफल रहे। कस्तूरबा बालिका विद्यालयों का प्रकरण भी इस तरह चैंकाने वाला है, जिसमें जालसाजों ने अभ्यर्थी अनामिका शुक्ला के नाम और शैक्षिक दस्तोजों का दुरूपयोग करके 25 जिलों में शिक्षिकाओं की फर्जी नियुक्तियां करवा दीं।
भ्रष्टाचार के आदी अधिकारियों-कर्मचारियों और ठेकेदारों के मन में कोई खौफ न होने की दो अहम वजह हंै। पहली, आरोपित पकड़े तो जाते है, पर उन्हें आसानी से जमानत मिल जाती है। दूसरी यह कि आरोपितों से अर्थदंड नहीं वसूला जाता है। उत्तर प्रदेश में ऐसा कोई प्रावधान ही नहीं है। जहां तक पशुपालन विभाग टेंडर घोटाले की बात है, उस ठेकेदार के बारे में जांच एजेंसी का रुख स्पष्ट नहीं है, जिसने इस घोटाले की नींव रखी थी। स्पष्ट है कि करीब 300 करोड़ का टेंडर हासिल करने के लिए ठेकेदार ने घूस का सहारा लिया विधि अनुसार इस पर भी कार्रवाई की जानी चहिए थी,लेकिन भ्रष्ट सिस्टम ने पूरे मामले को चालाकी से दबा दिया।कुल मिलाकर मुख्यमंत्री जितनी भी स्वच्छ छवि वाला क्यों न हो,लेकिन जब उसके नीचे भ्रष्टाचार फलता-फूलता है तो दाग तो सीएम के भी दामन पर लगता है। यह कल भी होता था और आज भी हो रहा है। बस मोंहरे बदल गए हैं।
लेखक अजय कुमार लखनऊ के वरिष्ठ पत्रकार हैं.