प्रभात रंजन दीन
‘मित्रों के चेहरे वाली किताब’ के सभी साथी..! उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में बड़े तामझाम से आयोजित किए गए ‘डिफेंस-एक्सपो-2020’ के परिप्रेक्ष्य में मैंने पिछले दिनों एक खबर लिखी थी। खबर थी कोरोना वायरस के मनुष्य पर असर के एक गुप्त शोध-परीक्षण को लेकर। ‘डिफेंस-एक्सपो-2020’ ने सैन्य-सुरक्षा से जुड़े इस अहम मसले की अनदेखी कर दी, इस पर कोई सुगबुगाहट नहीं दिखी, कोई चर्चा नहीं हुई। जबकि यह गुप्त शोध-परीक्षण भारतवर्ष के सुदूर पूर्वोत्तर राज्य नगालैंड के मिमी गांव में चल रहा था। चीन के वूहान इंस्टीट्यूट ऑफ वायरोलॉजी में खतरनाक पैथोजेन का जार फूटने से कोरोना वायरस का पिशाच जो बाहर आ गया, यह बाद की घटना है। इसका गोपनीय शोध-परीक्षण तो पहले ही हो चुका था, वह भी अपने देश भारतवर्ष में..! इसे विडंबना कहें या संदेहास्पद स्थिति… कि नगालैंड के मिमी गांव में चल रहे गुप्त शोध-परीक्षण के लिए केंद्र सरकार से औपचारिक मंजूरी नहीं ली गई थी। ऐसा केंद्र सरकार का कहना है। जबकि उस गुप्त शोध-परीक्षण में देश की प्रतिष्ठित विज्ञान संस्था टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च और नेशनल सेंटर फॉर बायोलॉजिकल साइंस के वैज्ञानिक शरीक थे। इसमें चीन के वूहान इंस्टीट्यूट ऑफ वायरोलॉजी के दो वैज्ञानिक भी शामिल थे। इस पूरे गोपनीय अभियान में कौन-कौन वैज्ञानिक और कौन-कौन संस्थाएं शामिल थीं, इसका अभी पूरा खुलासा करेंगे… लेकिन पहले आपका ध्यान उन कुछ ‘खास’ प्रतिक्रियाओं पर दिलाएं जो मेरी खबर पर फेसबुक के पन्ने पर दर्ज कराई गईं। यह केवल इसलिए है कि समाज और सरोकारों में ऐसे भी निम्न स्तर के लोग हैं जिन्हें सामान्य किस्म की जानकारी भी नहीं होती, लेकिन वे अपने जैसे ही शब्दों से अपनी प्रतिक्रियाएं देने से नहीं हिचकते। उन्हें नई जानकारी हासिल करने में भी कोई रुचि नहीं रहती… वे बस अस्तित्व में औचक ही आ गए हैं। एक नवीन झा नालायक हैं… यह उपनाम उनका खुद का किया-धरा है। उन्होंने लिखा कि मैं ऐसे ही ‘कुछ भी’ लिख देता हूं। अब वो अपने नाम के साथ अपना यथार्थ खुद ही लगा चुके हैं, तो उनके बारे में क्या कहना। एक और शख्स हैं, नीतीश कुमार… वे खबर लिखने वाले के लिए बेसाख्ता लिखते हैं, ‘ऐसे लोग ही समाज में अफवाह फैलाते हैं। इनसे बचना चाहिए।’ इन्हीं की तरह के हैं दिग्विजय प्रताप सिंह, जो लिखते हैं, ‘सब rumour है। इनको लगता है कि मीडिया चुप बैठी होती? या राहुल गांधी चुप बैठे रहते? घंटा… सब अपना-अपना दिमाग लगा रहे।’ यह है उनके दिमाग के स्तर का प्रताप जो समाज में घंटा बजा रहा है। एक और शख्स विकास सिंह हैं जिन्होंने एक शब्द से काम चलाया… ‘फर्जी’…। विशाल पंवार लिखते हैं कि उन्हें मेरी खबर पढ़ कर हॉलीवुड फिल्म जैसी फीलिंग आई और नितिन चौधरी लिखते हैं, ‘गज़ब… इस भाई को कोई जासूसी उपन्यास लिखना चाहिए।’ राकेश त्रिपाठी नामक जीव ने तो मुझे मानसिक दिवालिया ही घोषित कर दिया। …और राजन शर्मा जैसे लोग तो इस समाज के कोढ़ हैं, जिन्हें सामाजिक-मीडिया के इस प्रतिष्ठित सार्वजनिक मंच पर गंदी गाली के शब्द लिखने में शर्म नहीं आती। वे लिखते हैं, ‘कपोल पल्पना की …. दी है।’ राजन शर्मा अपनी मां के लिए गंदे शब्द का इस्तेमाल करते हैं। नाम के साथ शर्मा लिखते हैं, लेकिन शर्म से इनका कोई वास्ता नहीं… जो ‘कल्पना’ शब्द भी सही नहीं लिख पाते, उसे ‘पल्पना’ लिखते हैं। आप ऐसे व्यक्ति के स्तर के बारे में कल्पना कर सकते हैं। ‘पल्पना’ उनके हिस्से में छोड़ दीजिए।
यह प्रसंग लिखना इसलिए जरूरी था कि हमें अपने इर्द-गिर्द की बौद्धिक-सड़ांध को भी समझते हुए आगे चलना चाहिए। इस खबर को लेकर ढेर सारी समझदार, जागरूक, बुद्धिमान और जिज्ञासु प्रतिक्रियाएं मिलीं। इससे आत्मविश्वास जगता है कि समाज अभी सकारात्मक-जिज्ञासा से खाली नहीं हुआ है। ‘मित्रों के चेहरे वाली किताब’ के कई साथियों ने इस खबर की तथ्यता और सत्यता भी परखनी चाही… यह जिज्ञासा स्वाभाविक है। कई साथियों ने अंतरराष्ट्रीय शोध पत्रिकाओं के कई संदर्भों का हवाला दिया और मेरी खबर की प्रत्यक्ष और परोक्ष पुष्टि की। एक दो अखबारों ने इस तरह भी लिख डाला, ‘नगालैंड में शोध-परीक्षण, केंद्र ने दिए जांच के आदेश’…। जबकि स्वास्थ्य मंत्रालय की जांच पहले ही हो चुकी है। आज एक मित्र ने एक रूसी अखबार का संदर्भ देते हुए उस खबर की पुष्टि की। जहां तक मीडिया के दायित्वबोध का प्रसंग है, इस बारे में कुछ कहना नहीं है, बस समझना है। सत्ता की भावाभिव्यक्ति (एक्सप्रेशन) के मुताबिक खबरें परोसने की मीडियाई-होड़ में आप क्या सोचते हैं कि ऐसी कोई खबर लिखी या दिखाई जाएगी जो सत्ता को परेशान करे और आम आदमी को राहत दे..! ‘फेसबुक’ किसी अखबार और चैनल से कम है क्या..? जिन्हें खबर बेचकर खाना नहीं है, वे सब आएं और इस सर्वाधिक प्रसारित ‘सार्वजनिक-अखबार’ पर लिखें। खबर अगर तथ्यपूर्ण और सत्यपूर्ण हो तो आप इस सामाजिक फोरम पर पत्रकारिता का डंका बजा सकते हैं… संपादक या मालिक नहीं छापे तो इस पर लिख कर अलख जगा दो… पत्रकारिता को किसी भी तरह अगर जिंदा रखना है तो यह करना होगा।
अब आइए कोरोना वायरस वाली खबर पर। जो साथी वह खबर नहीं देख पाए हों तो थोड़ा कष्ट करके मेरे टाइम-लाइन पर जाकर वह खबर पढ़ सकते हैं। उस खबर को लेकर कई जिज्ञासाएं थीं… बहुत सारे साथी नगालैंड में हुए गोपनीय शोध-परीक्षण में शामिल वैज्ञानिकों और संस्थाओं का नाम जानना चाहते थे। किसी खबर की प्रामाणिकता जानने के लिए यह जानना जरूरी भी होता है। कोरोना-वायरस प्रसंग में कई नई-नई जानकारियां हम आपसे साझा करेंगे… अभी आपको बताएं कि नगालैंड के मिमी गांव में किए गए शोध-परीक्षण में कौन-कौन वैज्ञानिक शामिल थे और वे किन संस्थाओं से जुड़े हैं। उस गुप्त अभियान दल में 12 वैज्ञानिक शामिल थे, जिनमें
(1) बीआर अंसिल, नेशनल सेंटर फॉर बायोलॉजिकल साइंस, टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च, बंगलुरू
(2) उमा रामकृष्णन, नेशनल सेंटर फॉर बायोलॉजिकल साइंस, टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च, बंगलुरू
(3) पाइलट डोवी, नेशनल सेंटर फॉर बायोलॉजिकल साइंस, टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च, बंगलुरू
(4) झिंगलाउ यांग, वूहान इंस्टीट्यूट ऑफ वायरोलॉजी, चीन
(5) झेंगली शी, वूहान इंस्टीट्यूट ऑफ वायरोलॉजी, चीन
(6) क्रिस्टोफर सी ब्रोडर, यूनिफॉर्म्ड सर्विसेज़ युनिवर्सिटी ऑफ दि हेल्थ साइंसेज़, अमेरिका
(7) डॉलीस एचडब्लू लो, ड्यूक नेशनल युनिवर्सिटी ऑफ सिंगापुर मेडिकल साइंसेज़, सिंगापुर
(8) एरिक डी लैंग, यूनिफॉर्म्ड सर्विसेज़ युनिवर्सिटी ऑफ दि हेल्थ साइंसेज़, मैरीलैंड, अमेरिका
(9) गैविन जेडी स्मिथ, ड्यूक नेशनल युनिवर्सिटी ऑफ सिंगापुर मेडिकल साइंसेज़, सिंगापुर
(10) मार्टिन लिंस्टर, ड्यूक नेशनल युनिवर्सिटी ऑफ सिंगापुर मेडिकल साइंसेज़, सिंगापुर
(11) यीहुई चेन, ड्यूक नेशनल युनिवर्सिटी ऑफ सिंगापुर मेडिकल साइंसेज़, सिंगापुर और
(12) ईयान एच मैन्डेन्हॉल, ड्यूक नेशनल युनिवर्सिटी ऑफ सिंगापुर मेडिकल साइंसेज़, सिंगापुर शामिल थे।
नगालैंड के मिमी गांव में 85 आदिवासियों पर हुए गुप्त शोध-परीक्षण की फंडिंग अमेरिकी रक्षा मंत्रालय के तहत काम करने वाली ‘डिफेंस थ्रेट रिडक्शन एजेंसी’ (डीटीआरए) कर रही थी। गुप्त शोध-परीक्षण की रिपोर्ट उजागर होने के बाद चौकन्ना हुई भारत सरकार ने इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च (ICMR) से इस मामले की जांच कराई। लेकिन जांच रिपोर्ट दबा दी गई। कोरोना वायरस को जैविक-युद्ध-हथियार (बायोलॉजिकल-वार-फेयर) बनाने के चीन के कुचक्र का आधिकारिक खुलासा होने के बावजूद भारत सरकार ने रक्षा मंत्रालय या केंद्रीय जांच एजेंसी से इस संवेदनशील प्रकरण की सूक्ष्मता से जांच कराने की जरूरत नहीं समझी। जबकि अमेरिका का ‘बायोलॉजिकल वीपन्स एंटी टेररिज़्म एक्ट ऑफ 1989’ ड्राफ्ट करने वाले प्रख्यात वैज्ञानिक एवं कानूनविद् डॉ. फ्रांसिस बॉयले आधिकारिक तौर पर यह दर्ज करा चुके हैं कि कोरोना वायरस जैविक-युद्ध-हथियार है।
चीन के वैज्ञानिकों (Biological Espionage Agents) ने कोरोना वायरस का पैथोजेन सबसे पहले कनाडा के विन्नीपेग स्थित नेशनल माइक्रोबायोलॉजी लेबोरेट्री से चुराया था। इसकी आधिकारिक पुष्टि हो चुकी है। इसके बाद चीन के वैज्ञानिक वेशधारी Biological Espionage Agents ने अमेरिका के हार्वर्ड विश्वविद्यालय से कई खतरनाक वायरस के पैथोजेन चुराए और उसे चीन पहुंचाया। खतरनाक वायरस और संवेदनशील सूचनाओं की तस्करी के आरोप में हार्वर्ड विश्वविद्यालय के केमिस्ट्री एवं केमिकल बायोलॉजी डिपार्टमेंट के विभागाध्यक्ष डॉ. चार्ल्स लीबर को पिछले महीने 20 जनवरी को गिरफ्तार किया गया। डॉ. लीबर चीन को संवेदनशील सूचनाएं लीक करने के एवज में भारी रकम पाता था। यहां तक कि चीन ने डॉ. लीबर को वुहान इंस्टीट्यूट ऑफ वायरोलॉजी का ‘रणनीतिक वैज्ञानिक’ (स्ट्रैटेजिक साइंटिस्ट) के मानद पद पर भी नियुक्त कर रखा था। 29 साल की युवा वैज्ञानिक यांकिंग ये भी गिरफ्तार की गई थी। यांकिंग ये की गिरफ्तारी के लिए अमेरिका की फेडरल ब्यूरो ऑफ इन्वेस्टिगेशन (एफबीआई) को बाकायदा लुक-आउट नोटिस जारी करनी पड़ी थी। बाद में पता चला कि यांकिंग ये वैज्ञानिक के वेश में काम कर रही थी, जबकि असलियत में वह चीन की पीपुल्स लिबरेशन आर्मी की लेफ्टिनेंट थी। चीन ने अपने सारे कूटनीतिक दांव आजमा कर लेफ्टिनेंट यांकिंग ये को अमेरिकी गिरफ्त से छुड़ा लिया। 10 दिसम्बर 2019 को बॉस्टन के लोगान इंटरनेशनल एयरपोर्ट पर चीनी वैज्ञानिक झाओसोंग झेंग को खतरनाक वायरस की 21 वायल्स के साथ रंगे हाथों गिरफ्तार किया गया। वह ये खतरनाक वायरस चीन ले जा रहा था। बाद में यह भी पाया गय़ा कि झाओसोंग जाली पासपोर्ट और फर्जी दस्तावेज लेकर अमेरिका आया था। …आगे के क्रम में इसके कई और पेंच खोलेंगे और इस पर हम लोग विस्तार से चर्चा करेंगे… आप सबको शुभकामनाएं।