मतलब तो आप समझ कर भी नहीं समझते हैं । अरे वही परत जिसे अंग्रेजी में लेयर कहते हैं। आजकल सबको चढ़ गया है। किसी को विकास का , किसी को अति प्रगतिशीलता का , किसी को विश्व बंधुत्व का , किसी को निरपेक्षता का, अरे वही जिसमें अपना बुरा और दूसरे का अच्छा लगने लगता है वही धर्म निरपेक्षता का, परत दर परत इतना चढ़ गया है कि इ देश दुनिया देख रहे हैं न सब उसी परत की आड़ में आड़ी तिरछी हो गयी है।
अब भी कोई संदेह है तो उस आंख में पड़ी परत को उतारने के लिये प्याज की दो बूंद आंखों में डालने के लिये अनुज सर्वेश तिवारी श्रीमुख ने “परत” लिखी है।
यकीन मानिये आपकी दृष्टि साफ हो जायेगी । परत एक पुस्तक मात्र नहीं , भारतीय जीवन का विषेशकर आधुनिक जीवन का रोजनामचा है। आप एक बार पुस्तक शुरू करते हैं तो उसके प्रवाह में स्वयं को बहने के लिये छोड़ देते हैं। आरोह अवरोह आते रहते हैं और रोते हंसते जब अंत में पहुँचते हैं तो पुस्तक और आंखें बंद कर कुछ शान्ति चाहते हैं , सोचना चाहते हैं । क्या यही वह देश है जिसे हम गढ़ रहे , ये कहां आ गये हम ?
यही लेखन की सफलता है।
परत में सर्वेश एक साथ बहुत कुछ साधने की कोशिश करते हैं। मेरा अपना मानना है कि दो अलग बड़े विषय थे । दोनों पर अलग अलग लिखने का सामर्थ्य सर्वेश में है पर पहली पुस्तक होने के कारण वह देश काल की परिस्थितियों से अकुलाये हुये दोनों को एकाकार कर दिये। पर यहीं सर्वेश की निपुणता पता चलती है और उनके उज्ज्वल भविष्य की आश्वस्ति भी ।
लेखक की छोटी छोटी बातों पर पकड़ उनकी अन्तरदृष्टि गजब की है।
अतृप्त इच्छाओं को बाजारवाद से जोड़ जब वह आपको मूर्ख घोषित करते हैं तो आप नाराज नहीं होते ! सोचते हैं । ऐसे ही जब वह लिखते हैं कि “दस पन्द्रह वर्ष पूर्व तक गाँव की हर लड़की बहन होती थी। और आज अपनी छोड़ कर सब माल हैं ।” तो आप झेंप के साथ स्वीकार कर लेते हैं। परत यूं ही नहीं विशेष है। लव जेहाद और भारतीय लोकतंत्र ( वास्तविक , पुस्तकीय नहीं) को भीतर से उसके दहकते अंगारों को महसूसना “परत” है। फकरूद्दीन उर्फ सोनू और शिल्पी आपको रोज दिखते होंगे । जानते हैं जब सोनू शिल्पी को लात मारता है तब आप विलाप की स्थिति में होते हैं। उस समय आपको यत्र नारियष्य पुज्यन्ते याद आने लगता है। आप महसूस कर सकते हैं कि सोनू ने शिल्पी को नहीं उस सनातन को लात मारी है जहां शिल्पी – गार्गी, अरुंधति होती । पर वहाँ तो वह एक मुर्गी है। राजनैतिक उठापटक के बीच जब आलोक पाण्डेय अरविन्द सिंह को फोन पर विनोद लाल के लिये कचहरी चलने को कहते हैं और अरविन्द तुरंत तैयार दीखते हैं वहाँ आप ग्रामीण मनुष्यों में बची हुई संवेदना से निश्चिंत हो सकते हैं कि अभी कुछ शेष है।
हां परत श्रद्धा शिल्पी और फातिमा के मानवीय गुणों और संवेदना के लिये भी याद रखी जायेगी । कहां है वह मित्रता । आप एक बार अवश्य बोलेंगे “काश” ।
फातिमा का चरित्र गजब का है। बिल्कुल लंका में विभीषण जैसी । वह भारतीय मुस्लिम लड़कियों की प्रतिनिधि है। उसके परिवार के प्रति वितिष्णा का भाव होने के बाद भी उसके प्रति एक अजीब सा खिचाव महसूस होता है। साधुवाद सर्वेश ।
यह पुस्तक हर लड़की के हाथ होना चाहिए जो अपने उम्र के तेरहवें साल में हो । सावधानी बरतने को इससे बेहतर कोई उपहार नहीं । मां बाप को तो पढ़ना ही चाहिए ।
सर्वेश अभी आपका सर्वश्रेष्ठ आना बाकी है। यह एक ट्रेलर है। आपसे साहित्य जगत को और हम सबको बहुत उम्मीद है। आशीर्वाद ।
सूर्य कुमार त्रिपाठी