प्रभात रंजन दीन
आज पूरा देश महात्मा गांधी की 150वीं जयंती मना रहा है। भाजपा कुछ अधिक ही उत्साही है। भाजपा शासित केंद्र सरकार और भाजपा शासित राज्य सरकारें गांधी के लिए ऐसे फिदा हैं, जैसे गांधी के साथ उनका कालजयी नाता रहा है। बेचारे कांग्रेसी ही अब हाशिए पर चले गए हैं। कांग्रेसी एक बार फिर अपनी जानकारियों और दस्तावेजों को खंगाल रहे हैं कि महात्मा गांधी उनके थे या भाजपाइयों के…
पूरी दुनिया में गांधी पर बात हो रही है… लेकिन भारत में जो गांधी पर बात हो रही है, वह अलग है… दोनों में कोई साम्य नहीं है। यह फर्क स्पष्ट तौर पर समझ में आना चाहिए। दुनिया के अन्य देशों में गांधी पर चर्चा का मतलब है हिंदुस्तान की अहिंसावादी, सत्यवादी और प्रेमवादी पुरातन शाश्वत संस्कृति की स्वीकारोक्ति… गांधी के जरिए बुद्ध कबीर नानक विवेकानंद जैसे तमाम संतों की स्वीकारोक्ति… लेकिन भारतवर्ष में गांधी पर न्यौछावर होने का जो सत्ताई प्रहसन चल रहा है, वह बड़ी बुद्धिमानी, चालाकी और कूटनीति से गांधी को स्थायी तौर पर हथियाने की कुटिल सियासत है। असली गांधी भाजपा की तरफ और नकली गांधी कांग्रेस की तरफ… इसकी स्थायी स्थापना की गहरी सियासत है भाजपा के गांधी-प्रेम की जड़ में… गांधी गुजरात के, पटेल गुजरात के, मोदी गुजरात के, शाह गुजरात के… इसकी स्थापना हो रही है, सनद रहे। खैर, अभी गुजरात का ‘एकात्म-महानतावाद’ विचार-प्रसंग में नहीं है, अभी तो हम गांधी पर मची आंधी के प्रसंग में बात कर रहे हैं। हम तो मुक्तचिंतक जमात वाले हैं… अपने ही कबीले के एक साथी ने बड़ा अच्छा कहा कि अहिंसा का ‘अ’ सत्य के साथ जोड़ कर गांधी‘नाम’वादी सियासत जोर-शोर से चल रही है… न अहिंसा रही, न सत्य रहा…
महात्मा गांधी की 150वीं जयंती का पूरे देश-संसार में जबसे ढोल बजाया जा रहा है तब से, और आज जब उस ढोल-ध्वनि की पूर्णाहुति का सत्ताई-ढोंग सज रहा है और सब तरफ गांधी दर्शन के गूढ़ घोंटवाए जा रहे हैं, मेरा दिमाग और मन देश के विभाजन पर चुप्पी का गांधी-दर्शन तलाश रहा है… मेरी आत्मा विभाजनकालीन भीषण रक्तपात के दरम्यान गांधी के संदेहास्पद मौन का अहिंसा-दर्शन ढूंढ़ रही है… मेरा हृदय सरदार भगत सिंह को फांसी की सजा से बचाने के लिए गांधी द्वारा वायसराय को लिखी गई चिट्ठी के शब्द-भ्रम का जलेबी-दर्शन समझने की कोशिश कर रहा है, जिसका न ओर पता चलता है न छोर।
मैं उस आम आदमी की तरह सोचता हूं… जो भेड़ों की भीड़ का हिस्सा बनने के लिए कतई तैयार नहीं। वह उस प्रायोजित-आस्था का हिस्सा नहीं कि सत्ता जो कहे उसमें मत्था-टेक भाव से शामिल हो जाए। अपनी चेतना की कसौटी पर कस कर देखना और तब उसे अपनी विचार-प्रक्रिया में शामिल करना ही स्वाभाविक है, नैसर्गिक है और नैतिक है… कोई पिता अपने जिंदा रहते हुए घर के विभाजन की बेटों की मांग नहीं सुनता। बाप के जिंदा रहते हुए बेटे घर के विभाजन की मांग भी नहीं करते। पिता की यही दृढ़ता और बेटों की यही मर्यादा हमारी संस्कृति का आधार और परिवारों की एक्यबद्धता का मूल रही है… महात्मा गांधी को पूरा देश पिता मान चुका था… फिर उन्होंने अपने दो अमर्यादित बेटों की घर-विभाजन की मांग को सिरे से ठुकराने की दृढ़ता क्यों नहीं दिखाई..? देश विभाजन के इस गांधी-दर्शन का कोई मतलब समझा दे..! बड़े-बड़े विद्वान गांधी के नाम पर बड़ा-बड़ा ‘हउंकने’ में लगे हैं लेकिन गांधी के विभाजन-दर्शन के गूढ़ पर विमूढ़ बने रहते हैं।
विचित्र बात है..! देश को दो टुकड़ों में बांटने का फैसला हो चुका था। दो सत्ता-लोलुप अमर्यादित बेटे नेहरू और जिन्ना माउंटबेटन को ‘पंच’ बना कर घर का दो हिस्सा करने का प्रपंच रच रहे थे, या कहें उस दिशा में निर्णायक तौर पर आगे बढ़ चुके थे। क्या आप समझते हैं कि गांधी को इसके बारे में नहीं पता था..? अगर आप ऐसा समझते हैं तो अपने दिमाग पर पड़े जाले को साफ कर लें। नेहरू और जिन्ना के कुत्सित प्रयास के बारे में पूरा देश जानता था। तभी तो उस पार के हिंदू सिख अपना घर-बार अपनी जमीन-जायदाद बेच कर व्यापक तादाद में इस पार आने की तैयारी कर रहे थे..! तभी मई 1947 में गांधी का एक बयान जारी हुआ… ‘अगर विभाजन होगा तो वह मेरे शव पर होगा…’ गांधी के बयान की इतनी साख थी और इतना असर था कि उस पार के हिंदुओं और सिखों ने राहत की सांस ली कि अब तो विभाजन नहीं ही होगा। गांधी के उस बयान से पूरा देश आश्वस्त हो गया कि अब तो देश नहीं बंटेगा। लेकिन देश बंटा, घर का दो हिस्सों में विभाजन हुआ और उन सारे हिंदुओं और सिखों को काट डाला गया जो उस पार गांधी के भरोसे निश्चिंत बैठे थे… जब माउंटबेटन के पंचत्व में विभाजन के दस्तावेज पर नेहरू और जिन्ना हस्ताक्षर बना रहे थे, तब गांधी मौन क्यों धारण किए हुए थे..? रक्तपात पर मौन थे या झेंप में चुप थे..? एक स्वाभिमानी पिता ने तभी आत्महत्या कर लेने का फैसला क्यों नहीं कर लिया था..? या खुल कर देश के सामने आ गए होते और मुनादी की होती कि वे विभाजन नहीं मानते और देश का आह्वान करते कि ऐसी खंडित आजादी कतई स्वीकार नहीं… फिर आप सोचते हैं, क्या हुआ होता..? देश का विभाजन किसी भी कीमत पर नहीं हुआ होता और देश को अपनी बपौती मान कर उसे बांट कर खाने पर आमादा कुपुत्र नेहरू और जिन्ना कालखंड के बिल में घुस गए होते, जन-घृणा के घटाटोप में विलुप्त हो गए होते… लेकिन गांधी ने ऐसा नहीं किया। क्यों..? पूरे देश को इस रहस्यमय गांधी-दर्शन के बारे में समझने-जानने का हक है। इस पर कोई ज्यादा सिद्धांत न पिलाए… ठोस जमीनी बात करे। ‘अगर विभाजन होगा तो वह मेरे शव पर होगा…’ ऐसा बयान देने वाले गांधी ने फिर ‘लाहौर-संकल्प’ को क्यों स्वीकार किया था और जिन्ना को यह सुझाव क्यों दिया था, ‘यदि विभाजन होना ही है, तो वैसा हो, जैसे दो भाइयों के बीच होता है…’? गांधी दर्शन का यह वीभत्स-विरोधाभास क्यों..?
एक और बात मुझे बहुत तकलीफ पहुंचाती है कि पांच मार्च 1931 को महात्मा गांधी और तत्कालीन वायसराय लॉर्ड इरविन के बीच हुए समझौते में गांधी ने सरदार भगत सिंह की रिहाई की शर्त क्यों नहीं रखी थी..? कोई तड़ाक से बोलेगा कि गांधी-इरविन समझौते में ‘हिंसा के आरोपियों को छोड़कर बाकी सभी राजनीतिक बंदियों को रिहा करने’ पर करार हुआ था। लेकिन इतिहासकारिक षडयंत्रों से अलग होकर हमें यह समझने की जरूरत है कि भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने असेम्बली में बम केवल सांकेतिक तौर पर फेंका था, हिंसा के इरादे से नहीं फेंका था। असेम्बली के खाली स्थान पर बम फेंका गया था और उसमें केवल तेज धमाके की कूवत थी, वह बम घातक नहीं था। हिंसा के इरादे से बम फेंका जाता तो लोग मरते और भगत सिंह और उनके साथी वहीं बैठे नहीं रहते… उस धमाके में कोई जख्मी भी नहीं हुआ था, केवल धमाका हुआ और असेम्बली हॉल धुएं से भर गया था। अंग्रेजों द्वारा भारतीयों के खिलाफ लाए जा रहे दो खतरनाक बिल, ‘पब्लिक सेफ्टी बिल’ और ‘ट्रेड डिस्प्यूट्स बिल’ के सांकेतिक विरोध में वह बम फेंका गया था… साथ में एक पर्चा भी था, जिस पर लिखा था, ‘यह धमाका केवल बहरों को आवाज सुनाने के लिए है’। आज गांधी होते तो उनसे मैं पूछता कि इसमें उन्हें हिंसा कहां दिख रही थी..? अंग्रेजों की बर्बर हिंसा पर बोलने के बजाय गांधी यह क्यों बोल रहे थे, ‘इरविन अच्छा आदमी है और वह भारत का भला कर रहा है’..? यह विचित्र है किन्तु सत्य है…
भगत सिंह को माफी देने के लिए गांधी ने वायसराय ‘अच्छे आदमी’ लॉर्ड इरविन को जो चिट्ठी लिखी थी, वह महज औपचारिकता थी। आप उस चिट्ठी की भाषा देखें तो आप समझ ही नहीं पाएंगे कि वह किस बात के लिए लिखी गई थी..! आप भी उस शब्द-जाल में घुसें और कुछ समझने की कोशिश करें… ‘प्रिय मित्र, आपको यह पत्र लिखना आपके प्रति क्रूरता बरतने जैसा लगता है, पर शांति के लिए अंतिम अपील करना आवश्यक है। यद्यपि आपने मुझे साफ-साफ बता दिया था कि भगत सिंह और अन्य दो लोगों की मौत की सजा में कोई रियायत किये जाने की आशा नहीं है, फिर भी यदि इस पर पुन: विचार करने की कोई गुंजाइश हो, तो मैं आपका ध्यान दिलाना चाहता हूं कि देश का जनमत, वह सही हो या गलत, सजा में रियायत चाहता है। …मैं आपको यह सूचित कर सकता हूं कि क्रांतिकारी दल ने मुझे यह आश्वासन दिया है कि यदि इन लोगों की जान बख्श दी जाए तो यह दल अपनी कार्रवाइयां बंद कर देगा। यह देखते हुए मेरी राय में मौत की सजा को क्रांतिकारियों द्वारा होनेवाली हत्याएं जब तक बंद रहती हैं, तब तक के लिए मुल्तवी कर देना एक लाजमी फर्ज बन जाता है।’
कुछ समझ में आया कि इस पत्र के जरिए गांधी क्या कहना चाहते थे..! भगत सिंह को माफी के लिए वायसराय को लिखी गई गांधी की चिट्ठी से उनकी ही कुछ पंक्तियां निकाल कर मैं आपके समक्ष रख देता हूं… आप देखें कि ये पंक्तियां आपको गंभीर सवाल की तरह चुभती हैं कि नहीं… (1) ‘आपको यह पत्र लिखना आपके प्रति क्रूरता बरतने जैसा लगता है।’ (2) ‘यद्यपि आपने मुझे साफ-साफ बता दिया था कि भगत सिंह और अन्य दो लोगों की मौत की सजा में कोई रियायत किए जाने की आशा नहीं है।’ (3) ‘देश का जनमत, वह सही हो या गलत, सजा में रियायत चाहता है।’ (4) ‘क्रांतिकारी दल ने मुझे यह आश्वासन दिया है कि यदि इन लोगों की जान बख्श दी जाए तो यह दल अपनी कार्रवाइयां बंद कर देगा। यह देखते हुए मेरी राय में मौत की सजा को क्रांतिकारियों द्वारा होनेवाली हत्याएं जब तक बंद रहती हैं, तब तक के लिए मुल्तवी कर देना एक लाजमी फर्ज बन जाता है।’ आप इन पंक्तियों के निहितार्थ समझिए…
गांधी-इरविन समझौते में भगत सिंह की रिहाई की अनिवार्य शर्त डाली जा सकती थी, क्योंकि भगत सिंह द्वारा की गई असेम्बली की घटना हिंसा के दायरे में नहीं आती… अगर आती तो एक ही अपराध के लिए भगत सिंह को फांसी और बटुकेश्वर दत्त को आजीवन कारावास की सजा क्यों दी गई..? गांधी चाहते तो भगत सिंह को फांसी नहीं होती… गांधी चाहते तो देश का विभाजन नहीं होता…