नई दिल्ली। चुनावों में लगातार हार और कई कद्दावर नेताओं के भाजपा या शिवसेना में जाने के बाद से महाराष्ट्र कांग्रेस और शरद पवार की एनसीपी में हलचल मची हुई है. ऐसे में एनसीपी के कांग्रेस में विलय की बातें जोर पकड़ रही हैं. इसके पक्ष में दलील दी जा रही है कि सिर्फ सोनिया गांधी के विदेशी मूल के होने के चलते ही कांग्रेस से निकलकर एनसीपी बनी थी. इसके अलावा दोनों की विचारधारा और तौर- तरीके में रत्ती भर भी फर्क नहीं है.
दोनों ने केंद्र और राज्य में सरकार भी चलाई. वहीं सोनिया गांधी का विदेशी मूल का मुद्दा भी खत्म हो गया है. साथ ही पहले दोनों दल महाराष्ट्र में बराबर की ताकत रखते थे, तब विलय संभव नहीं था. दोनों दलों के नेताओं और कार्यकर्ताओं की लंबी फेहरिस्त को एक दल में लाना खासा मुश्किल था, लेकिन अब दोनों कमज़ोर हैं. ऐसे में चर्चा है कि इसी साल होने वाले महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव से पहले दोनों एकजुट होकर मुकाबला करें तो ज़्यादा बेहतर रहेगा.
कांग्रेस को मिल जाएगा विपक्ष के नेता का पद
फैसला तो कांग्रेस और एनसीपी के आलाकमान करेंगे, लेकिन दोनों दलों के नेताओं में चर्चा जोरों पर है कि अब एनसीपी का कांग्रेस में विलय हो जाना चाहिए. इस विलय का सुझाव देने वाले नेता दोनों दलों में हैं लेकिन आलाकमान का रुख साफ हुए बिना खुलकर बोलने से बच रहे हैं. पार्टी के नेताओं ने अंदरखाने प्रस्ताव भी तैयार किया है, जिसके तहत विलय होने पर एनसीपी सुप्रीमो शरद पवार को राज्यसभा में विपक्ष के नेता का पद दे दिया जाए. इससे विपक्षी एकता को पवार धार देंगे. वहीं लोकसभा में एनसीपी के 5 सांसदों के विलय से कांग्रेस सदस्यों की संख्या भी बढ़कर 57 हो जाएगी और उसको विपक्ष के नेता का पद भी मिल जाएगा, जिस पर राहुल खुद काबिज होकर मोदी सरकार से मुकाबला कर सकते हैं.
एनसीपी को केंद्र में मिलेगा फायदा
दरअसल, शरद पवार की बढ़ती उम्र के मद्देनजर भविष्य में एनसीपी के पास राष्ट्रीय स्तर का कोई चेहरा फिलहाल नहीं है. पवार के भतीजे अजीत पवार राज्य की राजनीति से बाहर नहीं निकले और न निकलना चाहते हैं। वहीं, अभी तक पवार की बेटी सुप्रिया सुले केंद्र की राजनीति में पवार जैसा कद बना नहीं पाई हैं इसलिए अगर सुप्रिया को कांग्रेस केंद्र की राजनीति में अच्छे औहदे पर रखने का वादा करे तो बात बन सकती है. हालांकि, दोनों दलों का आलाकमान चाहता है कि ये विलय ऊपर से थोपा हुआ ना दिखे बल्कि, नीचे कार्यकर्ताओं से इसकी आवाज़ उठे.
यही वजह है कि इस मसले पर नेता कुछ भी बोलने से बच रहे हैं और दोनों दलों के आलाकमान फिलहाल देखो और इंतज़ार करो की नीति पर अमल कर रहे हैं.