दयानंद पांडेय
अब तो बनारस से भाजपा ने नरेंद्र मोदी की उम्मीदवारी घोषित कर दी है। समूचे विपक्ष को मिल कर कोई एक बड़ा नाम संयुक्त रूप से मोदी के ख़िलाफ़ उम्मीदवार उतारना चाहिए। भले वह हार जाए , ज़मानत ज़ब्त हो जाए पर समूचे विपक्ष की तरफ से चुनौती बड़ी मिलनी चाहिए। अगर ऐसा हो गया तो चुनौती का यह संदेश पूरे देश में जाएगा और विपक्ष को बहुत लाभ मिलेगा। आखिर नरेंद्र मोदी को हटाना ही लक्ष्य है तो इस के लिए मोदी को हराना भी तो पड़ेगा। विपक्ष को यह बात भी बताने वाला कोई क्यों नहीं है । सो संयुक्त उम्मीदवार मतलब मज़बूत उम्मीदवार , कोई डमी उम्मीदवार नहीं। बल्कि तोप टाईप कोई सोनिया गांधी , कोई ममता बनर्जी। कोई दिग्विजय सिंह , कोई अहमद पटेल [ मुस्लिम वोट को कांग्रेस की मुगली घुट्टी मानने वाले यह बड़े लोग ही तो हैं।] कमलनाथ ने दिग्विजय सिंह से कहा भी है कि मध्य प्रदेश की किसी कठिन सीट से लड़ें। तो न सही मध्य प्रदेश , उत्तर प्रदेश । देश में इस से कठिन सीट तो कांग्रेस के लिए दूसरी है नहीं। या फिर कोई मायावती , कोई अखिलेश आदि-इत्यादि टाईप उम्मीदवार जो टक्कर दे और टक्कर देता हुआ दिखाई भी दे। आंटे-दाल का भाव कुछ तो पता चले।
राहुल गांधी जैसा पार्ट टाईमर पालिटिशियन , शरद यादव जैसा निठल्ला या अपने गले से माला उतार कर शास्त्री जी की प्रतिमा को माला पहनाने वाली पाखंडी प्रियंका गांधी टाईप कोई कमज़ोर उम्मीदवार नहीं । अरविंद केजरीवाल जैसा लफ्फाज गिरगिट भी नहीं । अगर ऐसा हो गया , कोई बड़ा और ताकतवर उम्मीदवार खड़ा हो गया तो इस से विपक्ष द्वारा देश बचेगा और संविधान भी। विपक्ष की लफ्फाजी भी। लालकृष्ण आडवाणी का टिकट कट जाने पर टेसुए बहाने से बेहतर है मोदी को बनारस में चारो तरफ से घेर लेने की और पटक कर , गिरा कर , हरा देने की। बाक़ी विपक्षी लफ्फाजी का कोई मतलब नहीं। मुहावरे में ही सही , कोई तो बिल्ली के गले में घंटी बांधने का साहस दिखाए । कम से कम प्रधान मंत्री बनने का जो सपना जोड़ रहा है , वह इस प्रधान मंत्री को हराने का साहस भी तो दिखाए । अपनी हिफ़ाज़त के लिए अपनी सुरक्षित सीट से भी चुनाव लड़ ले । यह और बात है। अगर ऐसा नहीं कर पाता विपक्ष तो मान लीजिए कि विपक्ष बनारस ही नहीं पूरे देश में भाजपा और मोदी को वाकओवर दे चुका है । जैसा कि दिखाई भी दे रहा है ।
आख़िर नेहरु के खिलाफ एक समय लोहिया पूरी ताक़त से लड़ते ही थे न । इंदिरा गांधी के खिलाफ राजनारायण लड़ते ही थे न । इस समय भी विपक्ष का तकाज़ा यही है कि कम से कम बनारस में साझा विपक्ष लड़े और कोई बड़ा और ज़ोरदार नाम पूरी ताकत से लड़े। प्रतीकात्मक लड़ाई नहीं। ताकि विपक्ष के हिसाब से संविधान बचे , देश बचे , संस्थाएं बचें और अभिव्यक्ति की आज़ादी भी , सेक्यूलरिज्म की साख भी। चुनौती बड़ी है , सो लड़ाई भी बड़ी लड़नी होगी । विपक्ष को इस बात को भी समझ लेना चाहिए कि अगर वह बनारस में मोदी को बड़ी चुनौती देने से चूका तो पूरे देश में पटकनी खाएगा और उत्तर प्रदेश में तो विपक्ष मुंह की खाएगा । गठबंधन का सारा जातीय नशा उतर जाएगा । मुस्लिम वोटों की मुगली घुट्टी भी काम नहीं आएगी। बड़े-बड़े अक्षरों में यह बात कहीं लिख कर रख लीजिए। ताकि सनद रहे और वक्त ज़रूरत काम आए।