नई दिल्ली। बीते सोमवार को केंद्रीय मंत्री और भाजपा नेता नितिन गडकरी का एक और बयान चर्चा का विषय बन गया. एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा कि पाकिस्तान के बालाकोट में आतंकियों के खिलाफ भारतीय वायुसेना की कार्रवाई को आम चुनाव से नहीं जोड़ा जाना चाहिए और न ही किसी को इसका इसका राजनीतिक लाभ या श्रेय लेना चाहिए. नितिन गडकरी का यह भी कहना था कि वे न तो किसी पद के दावेदार हैं और न ही प्रधानमंत्री पद की दौड़ में शामिल हैं.
केंद्रीय सड़क परिवहन, राजमार्ग, पोत परिवहन और जल संसाधन मंत्री नितिन गडकरी कुछ समय से लगातार अलग कारणों के चलते सुर्खियों में रहे हैं. हाल में देश की मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस ने उनकी तारीफ की. इससे पहले कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और पूर्व वित्त मंत्री पी चिदंबरम इंडियन एक्सप्रेस में बाकायदा एक लेख लिखकर नितिन गडकरी की प्रशंसा कर चुके थे. उनके इस लेख के बाद बीते दिनों में कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं ने भी गडकरी की तारीफ की. बजट सत्र के दौरान लोकसभा में राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव में अपनी बात पूरी करके जब नितिन गडकरी बैठे तो सोनिया गांधी ने उनकी प्रशंसा की. लोकसभा में विपक्ष के नेता मल्लिकार्जुन खड़गे और कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी भी गडकरी की तारीफ कर चुके हैं.
ऐसे में सवाल यह उठता है कि अगर कांग्रेस एक खास राजनीतिक योजना के साथ ऐसा कर रही है तो फिर नितिन गडकरी कांग्रेस के इस अभियान की हवा निकालने की कोशिश क्यों नहीं कर रहे. बल्कि वे तो अक्सर ऐसे बयान दे रहे हैं जो नरेंद्र मोदी और भाजपा को असहज करते दिख रहे हैं.
कुछ समय पहले नितिन गडकरी ने नेतृत्व की जिम्मेदारियों के संदर्भ में एक बात कही थी जिस पर विवाद हो गया. उन्होंने कहा कि जीत का श्रेय पार्टी नेतृत्व को दिया जाता है तो हार की जिम्मेदारी भी उस पर ही डाली जानी चाहिए. फिर उन्होंने कहा कि जनता से वही वादे किए जाने चाहिए जिन्हें पूरा किया जा सके. इसके बाद वे बोल गए कि जब नौकरियां ही नहीं हैं तो आरक्षण से क्या होगा. उनके इन सभी बयानों को नरेंद्र मोदी के कामकाज पर सवाल समझा गया. कुछ बयानों का नितिन गडकरी ने यह कहते हुए खंडन भी किया कि उनकी कही बात को तोड़-मरोड़कर पेश किया जा रहा है. लेकिन कई जानकारों के मुताबिक अगर ऐसा होता तो लगभग हर हफ्ते कोई न कोई ऐसा बयान नितिन गडकरी की ओर से नहीं आता.
नितिन गडकरी के मुखर होने को कई राजनीतिक जानकार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की सहमति से जोड़कर देख रहे हैं. इन लोगों का कहना है कि नरेंद्र मोदी के विकल्प के तौर पर संघ नितिन गडकरी को विकसित करने की कोशिश में है, ताकि अगर लोकसभा चुनावों के बाद भाजपा की सीटों की संख्या 200 के नीचे चले जाए तो उनके नेतृत्व में केंद्र में गठबंधन सरकार बनाई जा सके.
इसकी वजह पूछे जाने पर भाजपा के एक राष्ट्रीय पदाधिकारी कहते हैं, ‘पार्टी के अंदर जो चर्चा है, उसमें दो-तीन वजहों पर बात चल रही है. पहली बात तो यह कि संघ इस योजना पर भी काम कर रहा है कि अगर लोकसभा चुनावों के बाद गठबंधन सरकार बनाने की स्थिति आती है तो मोदी के अलावा भी उसके पास एक विकल्प हो. दूसरी वजह यह बताई जा रही है कि जब नितिन गडकरी महाराष्ट्र का मुख्यमंत्री बनना चाह रहे थे तो उस वक्त मोदी-शाह की जोड़ी ने उन्हें रोक दिया था. अब मोदी-शाह कमजोर पड़े हैं तो नितिन गडकरी आक्रामक हो गए हैं.’
वे आगे कहते हैं, ‘तीसरी वजह सबसे महत्वपूर्ण है. किसी भी संगठन में जब नेतृत्व के लिए संघर्ष चलता है तो सबसे महत्वपूर्ण यह होता है कि नेतृत्व के लिए संघर्ष कर रहा नेता पार्टी के छोटे-बड़े नेताओं और कार्यकर्ताओं में यह विश्वास जगाए कि वह खुद आक्रामक ढंग से नेतृत्व पर अपनी दावेदारी पेश कर रहा है और उसके पक्ष में खड़ा होने वालों का संगठन में कोई नुकसान नहीं होगा. नितिन गडकरी बार-बार इस तरह का बयान देकर पार्टी नेताओं और कार्यकर्ताओं को अपने पक्ष में यह विश्वास दिलाते हुए गोलबंद करना चाह रहे हैं कि उनके पाले में आकर खड़ा होने पर मोदी-शाह उनका कुछ बिगाड़ नहीं पाएंगे. क्योंकि जब तक पार्टी नेताओं और कार्यकर्ताओं के मन में यह विश्वास नहीं जगेगा कि नितिन गडकरी के साथ खड़ा होने से उनका नुकसान नहीं बल्कि फायदा होगा, तब तक वे पाला नहीं बदलेंगे. आडवाणी-मोदी संघर्ष में भी यही हुआ था. आडवाणी के करीब माने जाने वाले सभी नेता मोदी के सबसे करीब हो गए थे.’
भाजपा के एक दूसरे नेता इन तीन वजहों में एक वजह और जोड़ते हैं. वे कहते हैं, ‘नितिन गडकरी लगातार मोदी-शाह के खिलाफ बोलकर छोटे दलों में भी आत्मविश्वास जगाने का काम कर रहे हैं ताकि वे सीटों को लेकर मोदी-शाह से ठीक से मोलभाव कर सकें. क्योंकि ऐसे में भाजपा की सीटें उसी दायरे में रहेंगी जो गडकरी के अनुकूल हों और इससे चुनावों के बाद गडकरी छोटे क्षेत्रीय दलों की स्वाभाविक पसंद बनकर भी उभर सकते हैं.’
अपनी इन कोशिशों में नितिन गडकरी कितना कामयाब रहते हैं, यह तो 2019 के लोकसभा चुनावों के परिणाम के बाद ही पता चल पाएगा. लेकिन इतना तय है कि शह और मात का राजनीतिक खेल भाजपा में लगातार बढ़ता जा रहा है.