लंबी लड़ाई के बाद 1947 में जब भारत को आजादी मिली तो एक तरफ उम्मीदें थीं और दूसरी तरफ कई आशंकाएं. पश्चिमी दुनिया के एक बड़े हिस्से को लगता था कि भारत लोकतंत्र की राह पर ज्यादा दूर तक नहीं चल पाएगा. इसकी एक वजह तो उसकी असाधारण विविधता थी जिसके चलते कहा जाता था कि इस एक देश में कई देश हैं. दूसरा कारण यह था कि जिस मजबूत विपक्ष को लोकतांत्रिक राजनीतिक व्यवस्था के लिए बेहद जरूरी माना जाता है वह यहां नदारद दिखता था.
इसी दौरान देश में कुछ हस्तियां हुईं जिन्होंने सत्ता का मोह छोड़कर उससे लोहा लिया और यह कमी पूरी की. इन व्यक्तित्वों ने तब सर्वशक्तिमान कहे जाने वाले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के कई निर्णयों को चुनौती दी. इनमें राममनोहर लोहिया और जयप्रकाश नारायण या जेपी का नाम लिया जाता है.
जेपी तो 1953 से ही सक्रिय राजनीति से संन्यास लेकर दलविहीन लोकतंत्र और ‘सर्वोदय’ का प्रयोग कर रहे थे. ऐसे में वे लोहिया ही थे जिन्होंने विपक्ष क्या होता है और उसे क्या करना चाहिए, का पाठ भारतीय लोकतंत्र को सिखाया. अपने प्रयासों से उन्होंने आजादी के बाद एकछत्र राज करने वाली कांग्रेस को अपनी मौत से ठीक पहले यानी 1967 तक पानी पीने पर मजबूर कर दिया.
लेकिन ऐसा करने के लिए उन्होंने अपने मूल सिद्धांतों से समझौता नहीं किया. राम मनोहर लोहिया की रचनात्मक राजनीति और अद्भुत नेतृत्व क्षमता का प्रभाव इतना दूरगामी रहा कि उनके जाने के करीब 20 सालों बाद ही उनके सिद्धांतों को मानने वाली कई पार्टियां भारतीय लोकतंत्र के पटल पर छाने लगीं. ‘सामाजिक न्याय’ की उनकी संकल्पना तो आज राजनीति का मूल सिद्धांत बन चुकी है. यह राम मनोहर लोहिया की ही दूरदर्शिता थी कि तमाम वंचित जातियों और वर्गों की धीरे-धीरे ही सही, सभी क्षेत्रों में हिस्सेदारी बढ़ रही है.
बताया जाता है कि लोहिया शुरू में नेहरूवादी थे और गांधीवादी वे बाद में बने. मतलब यह है कि शुरू में वे गांधी की तुलना में नेहरू से ज्यादा प्रभावित थे. बाद में नेहरू से उनका मोहभंग होता गया और गांधी के सिद्धांतों और कार्यनीतियों पर उनका भरोसा बढ़ता गया.
उच्च शिक्षा के दौरान जर्मनी में राम मनोहर लोहिया की राजनीतिक सक्रियता की जानकारी कांग्रेस के नेताओं विशेषकर तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष जवाहरलाल नेहरू को भी थी. इसलिए 1933 में पीएचडी करने के बाद देश लौटने पर नेहरू ने उन्हें कांग्रेस की विदेश मामलों की समिति में रखा था. अगले दो सालों तक उन्होंने भविष्य के भारत की विदेश नीति तय करने में महत्वपूर्ण योगदान दिया. इसलिए उन्हें भारत का पहला गैर-आधिकारिक विदेश मंत्री भी कहा जाता है. आजादी के बाद देश ने गुटनिरपेक्षता की नीति अपनाई, जिसके बारे में कहा जाता है कि उसे निर्धारित करने में लोहिया का महत्वपूर्ण योगदान था.
कांग्रेस मॉडल के तहत कांग्रेस का सदस्य रहते हुए कोई किसी अन्य संगठन का भी सदस्य बन सकता था. इसलिए समाजवादी विचारधारा से प्रभावित जयप्रकाश नारायण जैसे कई कांग्रेसी नेताओं ने मई 1934 में ‘कांग्रेस समाजवादी पार्टी’ की नींव डाली. लोहिया का इसमें महत्वपूर्ण योगदान था.
लेकिन नेहरू से लोहिया के संबंध 1939 के बाद खट्टे होने लगे. संबंधों के खराब होने की शुरुआत दूसरे विश्वयुद्ध में भारत के शामिल होने के सवाल पर हुई. लोहिया चाहते थे कि अंग्रेजों की कमजोर स्थिति को और कमजोर करने के लिए भारत को युद्ध में शामिल नहीं होना चाहिए. उधर, नेहरू चाहते थे कि भारतीय सेना इस महायुद्ध में अंग्रेजों का साथ दे.
भारत छोड़ो आंदोलन में निर्णायक भूमिका
नौ अगस्त 1942 को जब भारत छोड़ोंं आंदोलन छेड़ा गया तो अंग्रेजों ने पूरे देश में कांग्रेस के नेताओं को गिरफ्तार कर लिया. ऐसा लगा अब यह आंदोलन विफल हो जाएगा. लेकिन कांग्रेस के भीतर जयप्रकाश नारायण और राममनोहर लोहिया जैसे समाजवादी नेताओं ने आंदोलन का अगले दो सालों तक सफलतापूर्वक नेतृत्व किया. आंदोलन की घोषणा होते ही मुंबई में एक भूमिगत रेडियो स्टेशन से आंदोलनकारियों को दिशा-निर्देश दिए जाने लगे थे. ऐसा करने वाले कोई और नहीं लोहिया थे. अंग्रेज जब तक उस रेडियो स्टेशन को ढूंढ़ पाते तब तक लोहिया कलकत्ता जा चुके थे. वहां वे पर्चे निकालकर लोगों का नेतृत्व करने लगे. उसके बाद वे जयप्रकाश नारायण के साथ नेपाल पहुंच गए. वहां पर ये लोग ‘आजाद दस्ता’ बनाकर आंदोलनकारियों को सशस्त्र गुरिल्ला लड़ाई का प्रशिक्षण देने लगे.
अंग्रेजों को दो सालों तक छकाने के बाद जेपी और लोहिया मई 1944 में पकड़ लिए गए. इन दोनों पर मुकदमा चला और वे लाहौर जेल में बंद कर दिए गए. यहां से वे लोग अप्रैल 1946 में ही छूट पाए. जेल में अंग्रेजों ने लोहिया को जमकर यातनाएं दी थीं जिससे उनका स्वास्थ्य बिगड़ने लगा था.
‘विभाजन के गुनहगार गांधी नहीं नेहरू’
लोहिया ने अपनी किताब ‘विभाजन के गुनहगार’ में बताया है कि दो जून 1947 की बैठक में वे और जेपी विशेष आमंत्रित सदस्य थे. बैठक का नजारा ऐसा था मानो नेहरू और पटेल पहले से सब कुछ तय कर आए हों. महात्मा गांधी के विरोध करने के बाद नेहरू और पटेल ने कांग्रेस के सभी पदों से इस्तीफा दे देने की धमकी दे दी. लोहिया लिखते हैं कि तब गांधी के पास विभाजन के प्रस्ताव पर मौन सहमति देने और विभाजन के गुनहगारों में शामिल हो जाने के सिवाय दूसरा कोई विकल्प नहीं बच गया था.
सोशलिस्ट पार्टी का गठन और दमदार विपक्ष की भूमिका
गांधी के मरने के बाद कांग्रेस मॉडल को नेहरू ने 1948 में खत्म कर दिया. कांग्रेस के समाजवादी नेताओं को पार्टी का विलय कांग्रेस में करने या कांग्रेस छोड़ने का विकल्प दिया गया. लोहिया को तो नेहरू ने कांग्रेस पार्टी का महासचिव बनाने का प्रस्ताव दिया. लेकिन उन्होंने अन्य समाजवादियों जिनमें जेपी भी शामिल थे, के साथ कांग्रेस छोड़ने का विकल्प चुना. यह समझते हुए भी कि कांग्रेस की छवि देशवासियों के दिलोदिमाग पर छप चुकी है और उसे हटाना आसान नहीं है, खासकर तब जब कोई स्थापित संगठन न हो और न ही मजबूत आर्थिक समर्थन. लेकिन लोहिया और उनके साथियों ने लोकतंत्र के हित मेंं विपक्ष की आवाज बनने और उसे बुलंद करने का फैसला लिया.
इसका परिणाम 1948 में ‘सोशलिस्ट पार्टी’ के गठन के रूप में हुआ. फिर 1952 में जेबी कृपलानी की ‘किसान मजदूर पार्टी’ के साथ विलय करके ‘प्रजा सोशलिस्ट पार्टी’ का निर्माण किया गया. हालांकि मतभेदों के चलते लोहिया ने 1955 में पीएसपी छोड़कर फिर से ‘सोशलिस्ट पार्टी’ को जिंदा करने का निर्णय किया.
लोहिया से सोशलिस्ट पार्टियों की इस टूट-फूट पर किसी ने पूछा तो उन्होंने व्यंग्य के लहजे में कहा था, ‘समाजवादी विचारधारा की पार्टियों और अमीबा में एकरूपता है. मतलब जैसे ही पार्टी मजबूत होकर बड़ी बनती है, अमीबा की तरह टूटकर फिर पहले की तरह छोटी हो जाती है.’ उनका यह कथन आज भी खुद को उनकी विरासत का उत्तराधिकारी कहने वाली पार्टियों पर लागू होता दिखता है.
लोकतंत्र को लोहिया की देन
लोहिया और अन्य समाजवादियों की पहले आम चुनाव में हार हुई. लेकिन यह हार इन नेताओं की अलोकप्रियता की वजह से नहीं बल्कि उनके संगठन के कांग्रेस की तुलना में कमजोर होने और कमतर आर्थिक संसाधन होने के चलते हुई थी. इसे मजबूत कांग्रेस को नियंत्रण में रखने की जिजीविषा ही कहेंगे कि इस हार के बाद कई सोशलिस्ट पार्टियां एकजुट हो गईं. इसी समय लोहिया के सिद्धांत पार्टी के अन्य नेताओंं को पच नहीं रहे थे. वे जैसे भी हो केरल में सत्ता में बने रहना चाहते थे. इसी बात पर लोहिया ने 1955 में पीएसपी छोड़कर फिर से सोशलिस्ट पार्टी को जिंदा करने का निर्णय लिया.
इसके बाद वे घूम-घूमकर तमाम पिछड़ी जातियों के संगठनों को जोड़ने लगे. इसी सिलसिले में उन्होंने बीआर अंबेडकर से मिलकर उनके ‘आॅल इंडिया बैकवर्ड क्लास एसोसिएशन’ के सोशलिस्ट पार्टी में विलय की बात शुरू की. बातचीत पक्की हो गई थी कि दिसंबर 1956 में अंबेडकर का निधन हो गया. और उन्हें अपने साथ जोड़ने की उनकी मुहिम अधूरी रह गई. फिर भी ऐसे दूसरे संगठनों को जोड़ने का उनका प्रयास जारी रहा.
राम मनोहर लोहिया के ऐसे प्रयासों का ही नतीजा रहा कि 1967 कांग्रेस पार्टी सात राज्यों में चुनाव हार गई और पहली बार विपक्ष उसे टक्कर देने की हालत में दिखने लगा. इस चुनाव के बाद लोहिया ने तय किया कि वे जेपी को मुख्यधारा में वापस लाकर विपक्ष को और मजबूत बनाएंगे. पर वे अक्टूबर में चल बसे.
हालांकि राम मनोहर लोहिया का प्रयास करीब एक दशक बाद रंग लाया जब 1975 में जयप्रकाश नारायण राजनीति की मुख्यधारा में वापस लौटे. आपातकाल के बाद हुए 1977 के चुनाव में विपक्षी पार्टियों की एकजुटता रंग लाई और 25 सालों से केंद्र में सत्तारूढ़ पार्टी को हार का सामना करना पड़ा.
गांधी के बाद सबसे मौलिक चिंतक राजनेता
राम मनोहर लोहिया ने जर्मनी में रहते कार्ल मार्क्स और एंगेल्स को खूब पढ़ा. लेकिन उन्होंने पाया कि भारत के संदर्भ में कम्युनिस्ट विचारधारा अपूर्ण है. मार्क्सवाद ने साम्राज्यवाद और पूंजीवाद के संबंधों की जो व्याख्या की थी लोहिया उससे असहमत थे. बल्कि वे तो उसे उल्टा मानते थे. मार्क्सवाद मानता था कि पूंजीवाद के विकास से साम्राज्यवाद पनपता है. इसलिए पूंजीवाद के खात्मे से ही साम्राज्यवाद का विनाश होगा. लोहिया ने बताया कि मामला असल में उल्टा है. वह साम्राज्यवाद ही है जिससे पूंजीवाद का विकास हुआ. इसलिए पूंजीवाद का नाश करने के लिए जरूरी है कि साम्राज्यवाद को उखाड़ फेंका जाए. उन्होंने ब्रिटेन के उदय को भारत जैसे उपनिवेशों के शोषण से जोड़ दिया और कहा कि भारत को आजाद किए बगैर पूंजीवाद की जड़ें कमजोर नहीं हो सकती. इस तरह लोहिया ने पूंजीवाद के विनाश के लिए भारत जैसे उपनिवेशों की आजादी को सबसे महत्वपूर्ण बताया.
लोहिया ने मार्क्स के वर्ग-सिद्धांत की भारत के संदर्भ में नई व्याख्या दी. उनके अनुसार भारत का समाज औद्योगिक समाज नहीं है. इस समाज में असमानता की मुख्य वजह जाति रही है. यहां पर शोषण का कारण जाति व्यवस्था रही है. इसलिए यहां पर ‘बुर्जुआ’ और ‘सर्वहारा’ वर्गों की मौजूदगी मार्क्सवाद के सिद्धांतों की तरह नहीं है.
राम मनोहर लोहिया का मानना था कि भारत की सवर्ण जातियों को बुर्जुआ माना जाना चाहिए और तमाम वंचित वर्गों, जिनमें आदिवासी, दलित, अन्य पिछड़ी जातियां और यहां तक कि सभी समुदायों की महिलाएं भी शामिल हैं, को सर्वहारा माना जाना चाहिए. भारत के संदर्भ में मार्क्सवाद की लोहिया की यह व्याख्या और इसके परिणाम क्रांतिकारी रहे.
आलोचकों का भी मानना है कि साठ के दशक से भारत में समाजवादी विचारधारा के साथ-साथ क्षेत्रीय दलों के मजबूत होने के पीछे लोहिया की इस अनूठी व्याख्या का ही योगदान रहा है. इसने जातिगत पहचानों को तो मजबूती दी ही है, राजनीति में वंचित जातियों की पैठ भी बढ़ाई है.
सप्तक्रांति सिद्धांत
हर तरह की विषमता को खत्म करने की दिशा में सप्तक्रांति सिद्धांत को भी राम मनोहर लोहिया की अनूठी देन माना जाता है. इस सिद्धांत में सात बिंदु थे. मसलन रंगभेद खत्म हो, जातिगत भेदभाव बंद हो, औरत और मर्द में कोई अंतर नहीं है, राष्ट्रवाद को संकुचित नहीं व्यापक तरीके से समझा जाए, समाजवादी आर्थिक मॉडल श्रेष्ठ है, सभी देश निरशस्त्रीकरण के रास्ते चलें और भेदभाव से लड़ने का तरीका सत्याग्रह ही होना चाहिए.
नेतृत्व खड़ा करने में सफल
लोहिया के प्रयासों का ही असर रहा कि तमाम पिछड़ी जातियों में आत्मविश्वास विकसित हुआ. उन्होंने कमोबेश सभी पिछड़ी जाति के नेताओं को आगे बढ़ाया. उनके जाने के बाद उत्तर भारत के कई राज्यों में समाजवादी विचारधारा की सरकार बनी. इससे सामाजिक न्याय को अभूतपूर्व मजबूती मिली. किसी जानकार ने कहा है कि गांधी को छोड़ दिया जाए तो लोहिया का अनुसरण करने वाली पार्टियों और नेताओं की संख्या देश के इतिहास में सबसे ज्यादा है.