लखनऊ। बीती 22 जनवरी को बहुजन समाज पार्टी की राष्ट्रीय अध्यक्ष बहन मायावती ने अपने आधिकारिक ट्विटर हैंडल से पहला ट्वीट किया. हालांकि यहां बहनजी की जगह सुश्री शब्द का प्रयोग उन्होंने अपने लिये किया है. यह एक बहुत साधारण सी लेकिन फिर भी विशिष्ट घटना है. क्योंकि इससे अब तक स्थापित वह सिद्धांत पीछे छूट जाएगा जिसमें कहा जाता था कि मायावती का वोटर अखबार नहीं पढ़ता, इसलिए वह मीडिया से दूर रहती हैं. इस सिद्धांत में यह भी निहित था कि जिस आदमी के पास खाने के लिए दो वक्त की रोटी नहीं है, वह सोशल मीडिया की चुहल में क्या करेगा.
मायावती और उनकी राजनीति की पहचान अब तक नीले झंडों के समुद्र में डूबे विशाल जन समुदाय की मौजूदगी से होती थी. लखनऊ के किसी पत्रकार या नेता से पूछ लीजिए, वह एक झटके में कहेगा कि लखनऊ का रमाबाई पार्क सिर्फ मायावती की रैली में ही भर सकता है. रमाबाई पार्क ही क्या उत्तर प्रदेश में मायावती चुनाव हारें या जीतें उसके बावजूद सबसे ज्यादा भीड़ उन्हीं की रैलियों में आती है.
और इतनी बड़ी भीड़ को मायावती अपनी तरफ तब खींच लेती हैं, जब वे न तो जनता से बहुत मुलाकात करती हैं. न पत्रकारों से मिलती हैं और न टेलीविजन चैनलों को इंटरव्यू देती हैं. यानी सार्वजनिक तौर पर सबसे कम सामने आकर भी मायावती सबसे ज्यादा लोगों को अपनी तरफ आकर्षित करती रही हैं.
सोशल मीडिया की ताकत
उनकी यह राजनीति प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अब कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी की राजनीति से बिलकुल उलट है. मोदी ने तो पूरे देश में यह सिद्धांत स्थापित कर दिया कि नेता जितना ज्यादा जनता के सामने रहेगा, उसकी लोकप्रियता उतनी ही ज्यादा बढ़ेगी. वे न सिर्फ जनता के सामने बने रहे बल्कि सामने आने के नए से नए तरीके भी उनके लिए उनकी टीम सुझाती रही.
यही नहीं मोदी ही वह पहले नेता हैं जिन्होंने भारतीय राजनीति को सोशल मीडिया की बिना दुही ताकत से रूबरू कराया. ट्विटर, फेसबुक, व्हाट्सअप और यू ट्यूब को नरेंद्र मोदी ने 2014 के लोकसभा चुनाव के पहले जिस पैनेपन से इस्तेमाल किया, उसे तो उस समय तक आम आदमी पार्टी के अलावा कोई दूसरा दल समझ ही नहीं सका. बाकी दलों को डिजिटल मीडिया का महात्म्य समझने में लंबा समय लग गया. यहां तक कि कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने पिछले साल जाकर अपना ऑफिशियल ट्विटर एकाउंट बनाया. वहीं यूपीए चेयरपर्सन सोनिया गांधी और कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा का भी अब तक ट्विटर एकांउट नहीं है. हो सकता है कि समय के साथ प्रियंका भी इस प्लेटफॉर्म पर आ जाएं.
लेकिन सवाल है कि ये सब क्यों आ रहे हैं. क्या मोदी की तरह मायावती ने भी मान लिया है कि सोशल मीडिया के बिना राजनीति करना कठिन है. अगर उन्होंने मान भी लिया हो तो क्या मोदी के मध्यम वर्गीय वोटर की तरह ही मायावती का आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग का वोटर भी सोशल मीडिया पर वैसे ही रेस्पॉन्ड कर पाएगा.
यह सवाल महत्वपूर्ण है. और इसका जवाब और भी महत्वपूर्ण है. दरअसल गौर से देखें तो दलित आंदोलन को मुख्य धारा के समाचार माध्यम जैसे टीवी और अखबार में वैसी जगह नहीं मिल रही है, जैसी जगह जनसंख्या में हिस्सेदारी के हिसाब से मिलनी चाहिए. लेकिन पिछले कुछ साल में दलित उत्थान की भावना से जुड़े यूट्यूब चैनल आए हैं. इनमें से कई चैनल्स के पास दसियों लाख सब्सक्राइबर हैं. ये लोग यहां अपनी बात कह रहे हैं और लोग उनकी बात को गंभीरता से सुन रहे हैं. इन यू ट्यूब चैनल्स ने अपना अलग ऑडियंस विकसित किया और देश में पत्रकारिता की नई परिभाषा गढ़ी है.
नए दलित चेहरे
दूसरी तरफ देखें तो इन्हीं तीन-चार साल में उत्तर प्रदेश, गुजरात और महाराष्ट्र से नए दलित आइकन निकले हैं. पश्चिमी उत्तर प्रदेश के चंद्रशेखर, गुजरात के जिग्नेश मेवानी और महाराष्ट्र के कई दलित नेता, ऐसे नौजवान हैं जो संचार के हर माध्यम में दक्ष हैं. एससी/एसटी उत्पीड़न कानून के विरोध के आंदोलन की पृष्ठभूमि यहीं तैयार हुई. पिछले तीन-चार साल में देश में हुए दलित आंदोलनों की तैयारी सोशल मीडिया के प्लेटफार्म पर ही की गई. यहीं से वीडियो संदेश वायरल हुए.
यह वायरल संदेश ही वह चीज हैं जो मायावती जैसी संकोची नेता को डिजिटल मीडिया पर आने को प्रेरित कर रहे हैं. दरअसल एक निरक्षर व्यक्ति भी एक वीडियो या ऑडियो संदेश को समझ सकता है. यह काम अखबारों के जरिए नहीं हो सकता. यानी मायावती का जो वोटर अखबार नहीं पढ़ता है, उसे भी डिजिटल मीडिया के जरिये संबोधित किया जा सकता है.
यह काम टीवी से भी हो सकता है, लेकिन टीवी हर समय आदमी के पास नहीं रहती. जबकि अब सस्ते से सस्ते मोबाइल के स्मार्ट हो जाने और इंटरनेट की दरें बहुत सस्ती हो जाने से हर आदमी अपनी मुट्ठी में बंद मोबाइल में सूचना का एक पूरा संसार लेकर चल रहा है. अगर वह निरक्षर है तो वह गूगल वॉइस टैक्नोलॉजी से ऑपरेट कर सकता है. यानी जो काम टीवी और अखबार सोच भी नहीं सकते वह सब काम डिजिटल मीडिया करेगा, सो भी कम खर्चे में.
सीधा संवाद
इसी वजह से कुछ समय से ज्यादातर नेता भी प्रेस कान्फ्रेंस करने के बजाय ट्विटर मैसेज से अपनी बात कहते रहे हैं. दिलचस्प बात यह है कि कई बार इन ट्विटर संदेश को प्रेस कांफ्रेंस से ज्यादा तवज्जो समाचार माध्यमों में मिल जाती है. यहां किसी भी अन्य माध्यम की तुलना में तेजी से बल्कि यों कहें तत्काल अपनी बात कही जा सकती है. इस तरह से यह माध्यम समय और धन दोनों की बचत करते हुए, बढ़िया परिणाम देने वाले माध्यम के तौर पर सामने आया है. एक यह वजह भी होगी जिसने मायावती को इस तरफ खींचा.
मायावती टीवी और अखबार को मनुवादी मीडिया कहती रही हैं. वह इस हद तक मीडिया से खफा रही हैं कि लंबे समय तक बहुजन समाज पार्टी ने या तो कोई प्रवक्ता नियुक्त ही नहीं किया और किया भी तो उसे पत्रकारों से बात करने की छूट नहीं दी गई. मीडिया का संपूर्ण निषेध मायावती की राजनीति का अभिन्न अंग था.
लेकिन अब वह देख रही हैं कि टीवी या अखबार उनके साथ जो कथित अन्याय कर सकते थे, वैसा अन्याय सोशल मीडिया नहीं कर सकता. यहां उनकी बात किस एडिटर की छन्नी से छन कर नहीं जाएगी. इस छन्नी से उन्हें खासी तकलीफ थी, क्योंकि यह छन्नी ज्यादातर सवर्ण पत्रकारों के हाथ में है.
इस तरह मायावती के तमाम डर, भय और संदेहों का निवारण करने वाला डिजिटल मीडिया आखिर को मायावती को जंच रहा है. छह फरवरी को जब मायावती ने पत्र जारी कर अपने अकाउंट की सूचना दी तो उनके 18,000 फॉलोअर हो चुके हैं. यहां भी वे ट्विटर सपोर्ट के अलावा किसी को फॉलो नहीं कर रही हैं. यह अंदाज उन्हें जेब देता है.
बस देखना यह है कि क्या इस नए माध्यम में वे अपना तरीका थोड़ा सा बदलती हैं. क्योंकि इस माध्यम पर लोग उनसे सीधे सवाल पूछ सकते हैं. विरोधी उन्हें टैग करके उन पर आरोप लगाएंगे. तो क्या वह भी बाकी नेताओं की तरह पलट कर जवाब देंगी और बहस में पड़ेंगी. या फिर अपनी प्रेस कान्फ्रेंस की तरह सवाल आने पर यही कहेंगी- पत्रकार बंधुओं के लिए भोजन का इंतजाम किया गया है, आप लोग भोजन कर लीजिए.