लखनऊ। उत्तर प्रदेश की सियासत इस वक्त गर्माई हुई है. आए दिन पड़ रही रेड और साथ आए हैवी वेट से. हैवी वेट कौन. मायावती और अखिलेश यादव. दोनों के बीच गठबंधन हुआ. और इसी के साथ सीबीआई और ईडी ने अपने जीपीएस में उत्तर प्रदेश का पता डाल दिया. पहले अखिलेश सरकार के दौरान हुए खनन घोटाले में सीबीआई ने छापेमारी की. इससे अखिलेश यादव की भउवें तनीं. ये बैठ पातीं कि 31 जनवरी को ईडी ने मायावती काल में हुए स्मारक घोटाले में छापेमारी की. एकसाथ लखनऊ और एनसीआर के 6 ठिकानों पर. इस छापेमारी में क्या निकला, वो तो बाद में पता चलेगा. हम आपको बताते हैं आखिर है क्या ये स्मारक घोटाला.
देखो 2007 में सत्ता में पहली बार अपने दम पर आई बहुजन समाज पार्टी. 403 में से 206 सीटें जीतकर. मुख्यमंत्री बनी बसपा सुप्रीमो मायावती. उन्होंने फिर देखा एक सपना, लखनऊ और नोएडा में हो पार्क अपना. सो कई पार्क और स्मारक बने. अम्बेडकर और कांशीराम के नाम पर. 2007 से लेकर 2012 के बीच. पर 2012 में चली गई मायावती की सरकार. सत्ता में फिर आई समाजवादी पार्टी. सीएम बने अखिलेश यादव और फिर हुई इस स्मारक घोटाले की जांच. कायदे से. क्या-क्या हुआ. समझिए –
कहां से शुरू हुआ ये मामला
ये पार्क बनवाने का शौक नया नहीं है. उत्तर प्रदेश में मुलायम सरकार थी तो बना था लोहिया पार्क. मायावती आईं तो उन्होंने अंबेडकर और कांशीराम स्मारक बनवाए. मुलायम ने पार्क में लगवाए थे पेड़. मायावती आईं तो पार्कों में लगवाया हाथी. वही जो बहुजन समाज पार्टी का चुनाव चिह्न है. इसकी सप्लाई में सब कॉन्ट्रैक्टर थे मदन लाल. क्रिकेट वाले नहीं, हाथी वाले. उनको हाथी बनाने के लिए 48 लाख रुपये देने का वादा किया गया था. पर दिए गए सिर्फ 7.5 लाख. मदनलाल ने जब बकाया रकम मांगी तो मिली धमकी. चुप बैठ जाओ वरना टपका दिए जाओगे. धमकी उत्तर प्रदेश निर्माण निगम के अधिकारी और मेन कॉन्ट्रैक्टर दे रहा था. मदनलाल की बुद्धि ठनकी और उन्होंने करवा दी एफआईआर. इसमें मदनलाल ने कहा –
उत्तर प्रदेश निर्माण निगम के कॉन्ट्रैक्टर आदित्य अग्रवाल ने मुझे 196 इंच लंबे, 170 इंच ऊंचे और 2 इंच चौड़े हाथी बनाने का कॉन्ट्रैक्ट दिया था. बात 48 लाख की थी, मिले केवल 7.5 लाख.
इस पर लखनऊ पुलिस ने आदित्य को कर लिया गिरफ्तार. आदित्य ने फिर मुंह खोला, बोले- हम कहां से पूरी पेमेंट दे दें. मेरी खुद की पेमेंट यूपीआरएनएन ने रोक रखी है. बताया कि उसे नोएडा के पार्क के लिए 60 हाथियों का ऑर्डर मिला था. पर जब पार्क को लेकर विवाद हुआ तो मायावती ने 20 हाथियों के साथ ही उसका उद्घाटन कर दिया. इससे उसके 40 हाथी और पैसे फंस गए.
हालांकि आदित्य के इस दावे के इतर उसके लखनऊ स्थित गोदाम में छापा मारने पर करीब 68 लाख का कैश बरामद हुआ था. मामले में पुलिस ने जब यूपीआरएनएन की फाइलें खंगाली तो इसमें बड़ी गड़बड़ी मिली. पाया गया कि एक हाथी की लागत करीब सवा चार लाख रुपये थी. मगर इसकी पॉलिश और धुलाई के नाम पर हर हाथी पर 60 लाख रुपये दिए गए.
उस वक्त पीडब्ल्यूडी मंत्री शिवपाल सिंह ने कहा था –
सीधा सीधा इसमें बड़े पैमाने पर कमीशनखोरी हुई है. उसका हिस्सा पूर्व मुख्यमंत्री मायावती के पास भी गया…पूर्व मंत्रियों के पास गया और इसमें कुछ अधिकारी भी मिले हैं. इसकी पूरी जांच होगी क्योंकि यह पैसा जनता का था और विकास कार्यों के लिए था.
अब मायावती की इज्जत को अपनी इज्जत बताने वाले अखिलेश यादव तब तक मुख्यमंत्री बन चुके थे. और शुरुआती जांच के बाद मई 2012 में सामने आए थे. बोले थे –
अभी तक की जांच से लगता है कि मायावती की सरकार में बने पार्कों के नाम पर 40,000 करोड़ का घोटाला हुआ है.
पत्रकारों ने जब कहा कि सरकारी खर्च तो करीब 7000 करोड़ का है, तो 40,000 करोड़ का घोटाला कैसे. इस पर अखिलेश बोले कि इसमें आपको जो जमीन अधिग्रहित की गई उसकी कीमत भी जोड़नी होगी. जो जेल हटाई गई, स्टेडियम हटाया गया, 153 रेजिडेंशियल अपार्टमेंट हटाए गए, उनकी कीमत भी जोड़नी पड़ेगी.
लोकायुक्त जांच में निकला 1410 करोड़ का घोटाला
अखिलेश ने फिर 2012 में ही लोकायुक्त एनके मेहरोत्रा को मामले की जांच करने को कहा. लोकायुक्त ने जांच भी करवाई. इकोनॉमिक ऑफेंस विंग से. मई 2013 में अपनी 1346 पन्नों की रिपोर्ट सौंप दी. कहा कि इन पार्कों के नाम पर 4267.83 करोड़ आवंटित हुए, जिसमें 4188.54 करोड़ रुपये खर्च भी कर दिए गए. और इसमें 1410.50 करोड़ का घोटाला किया गया. इसकी पुष्टि करते हुए मेहरोत्रा ने मामले में 199 लोगों को संलिप्त पाया. इन आरोपियों में दो मंत्रियों, एक दर्जन विधायकों, दो वकीलों, खनन विभाग के पांच अधिकारियों, राजकीय निर्माण निगम के प्रबंध निदेशक सीपी सिंह समेत 59 अधिकारियों और पांच महाप्रबंधकों, लखनऊ विकास प्राधिकरण के पांच अधिकारियों, 20 कंसॉर्टियम प्रमुखों, 60 व्यावसायिक प्रतिष्ठानों (फर्म्स) के मालिक और राजकीय निर्माण निगम के 35 लेखाधिकारियों के नाम शामिल हैं.
मेहरोत्रा ने 19 लोगों के खिलाफ तत्काल मुकदमा दर्ज कर कानूनी कार्रवाई करने की भी सिफारिश की थी. इन 19 लोगों में पूर्व मंत्री नसीमुद्दीन सिद्दीकी, पूर्व खनन मंत्री बाबू सिंह कुशवाहा, तत्कालीन माइनिंग के जॉइंट डायरेक्टर एसए फारूकी, राजकीय निर्माण निगम के मैनेजिंग डायरेक्टर और 15 इंजीनियर थे. बाकि लोगों के लिए लोकायुक्त ने कहा था कि उनकी संपत्ति की जांच हो. अगर वो उनकी आय से अधिक निकलती है तो उन पर भी केस दर्ज हो. और सभी से हुए नुकसान की वसूली की जाए.
लोकायुक्त की रिपोर्ट पर एक जनवरी 2014 को लखनऊ के गोमतीनगर थाने में धारा 409, 120-बी, 13 (1) डी और 13(2) भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम के तहत मामला दर्ज कराया. लेकिन चार्जशीट आज तक दाखिल नहीं हो सकी. हालांकि इकोनॉमिक ऑफेंस विंग की जांच पूरी होने पर मामला पहुंच गया ईडी के पास. हालांकि ये ठंडे बस्ते में पड़ा रहा. 21 सितंबर को इलाहाबाद हाईकोर्ट ने मामले में जांच की स्टेटस रिपोर्ट मांग ली. और अब ईडी ने तेजी दिखाते हए मामले में छापेमारी की है.
जांच में कैसी-कैसी गड़बड़ियां
1. पार्कों में लगे गुलाबी पत्थरों की सप्लाई मिर्जापुर की खदानों से की गई. इनको तराशने और नक्काशी कराने के लिए राजस्थान भेजा जाता. और यहीं पर हुआ घोटाला. आर्थिक अपराध अनुसंधान शाखा की जांच रिपोर्ट कहती है कि वर्ष 2007 से लेकर 2011 के बीच कुल 15 हजार 749 ट्रक मिर्जापुर से राजस्थान भेजे गए. पर इनमें से मात्र 7,141 ट्रक पत्थर लखनऊ आए और 322 ट्रक नोएडा पहुंचे. बाकी के 7,286 ट्रक और उनपर लदे पत्थर कहां लापता हो गए? इसका जवाब नहीं है. जबकि भुगतान सबका हुआ.
2. स्मारकों और पार्कों के निर्माण में लगे योजनाकारों ने पहले यह तय किया था कि पत्थर की कटिंग और कार्विंग मिर्जापुर में ही हो और इसके लिए मिर्जापुर में ही मशीनें लगाई जाएं. फिर पत्थरों को तराशने के लिए लखनऊ में मशीनें मंगाई गईं. इसके बावजूद पत्थरों के तराशने के खर्च में कमी नहीं आई. बल्कि भुगतान तय रकम से दस गुने दाम पर ही किया जाता रहा.
3. पार्क में लगे थे खजूर के पेड़. इनके लिए 7000 से लेकर 15000 रुपये का भुगतान हुआ था. जांच में पाया गया कि इनमें कुछ पेड़ सीधा दुबई से मंगाए गए थे और भी महंगे दामों में. जबकि इनकी बाजारी कीमत काफी कम थी.
4. पहले खदान के पट्टाधारकों से सीधे पत्थर खरीदा जाना तय हुआ था, लेकिन बाद में यह फैसला बदल गया. अधिकारियों ने नियमों को ताक पर रख कर खनन पट्टाधारकों का एक ‘गिरोह’ बना दिया और उसे कंसॉर्टियम नाम दे दिया. अब आप पूछेंगे कंसॉर्टियम किस लिए. दरअसल इन्हीं के जरिए पट्टाधारकों को भुगतान किया जाता था. जांच में पाया गया कि कंसॉर्टियम के जरिए पट्टाधारकों को 75 रुपए प्रति घन फुट की दर से पेमेंट होता था, जबकि निर्माण निगम 150 रुपए प्रति घन फुट की दर से सरकार से पेमेंट लेता था. माने आधा पैसा गायब.
5. दावा किया गया था कि हर भुगतान के लिए कई बैठकें होती थीं. इनमें निर्णय लिए जाते थे, जांच होती थी फिर भुगतान होता था. लेकिन ईओडब्लू ने जब जांच पड़ताल की, तो बैठकों का कहीं कोई आधिकारिक ब्यौरा ही नहीं मिला.
कैग की रिपोर्ट में भी मिली थी गड़बड़ी
2014 में कैग ने भी इस स्मारक घोटाले पर अपनी नजरें इनायत की थीं. एक रिपोर्ट में बताया था कि पांच साल में इन पार्कों की लागत को 1000 फीसदी तक बढ़ाने का खेल हुआ. अंबेडकर स्मारक की लागत करीब 271 फीसदी, काशीराम 192 फीसदी, बुधविहार की लागत 469 फीसदी, कांशीराम के गार्डन की लागत 583 फीसदी, प्रेरणा स्थल की लागत 966 फीसदी बढ़ा दी गई. यही वजह थी कि जो स्मारक 944 करोड़ में बनने थे, वो 4 हजार 558 करोड़ में बने.
मगर इस 1400 करोड़ के घोटाले में हुआ क्या. वही जांच पे जांच. तारीख पे तारीख. अब ईडी ने जो छापेमारी की है, उसमें क्या निकला. वो अभी तक तो नहीं पता है. पर इतना तय है कि इस पर जमके राजनीति होने वाली है. सपा-बसपा वाले इसे बदले की राजनीति बताएंगे. कहेंगे बीजेपी गठबंधन से डरकर ये कार्रवाई कर रही है. वहीं बीजेपी इसे स्वतंत्र जांच कहेगी. खैर जो भी होगा. उसके बारे में भी हम आपको बताते रहेंगे.