नई दिल्ली। लोकसभा चुनाव से पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अगुवाई वाली केंद्र सरकार ने सवर्णों को सरकारी नौकरी और उच्च शिक्षा में 10 फीसदी आरक्षण देने का फैसला लिया है. इस फैसले के अनुसार, हर धर्म की सवर्ण जातियों को आर्थिक आधार पर 10 फीसदी आरक्षण दिया जाएगा. हालांकि, सवर्ण जातियों के आरक्षण पर सरकार की डगर काफी मुश्किल से भरी नजर आ रही है, क्योंकि सुप्रीम कोर्ट इससे पहले भी कई बार आर्थिक आधार पर आरक्षण देने के फैसलों पर रोक लगा चुका है. वहीं, इस स्थिति से बचने के लिए केंद्र सरकार मंगलवार (8 जनवरी) को संसद में संविधान संसोधन का प्रस्ताव लाएगी.
सरकार के लिए फैसले को वैध ठहराना मुश्किल
वहीं, इस मामले पर पूर्व असिस्टेंट सॉलिसिटर जनरल (ASG) अमरेन्द्र शरण से ज़ी मीडिया संवाददाता ने बात की. उन्होंने कहा कि आर्थिक तौर पर आरक्षण दिए जाने की संविधान में व्यवस्था नहीं है. सिर्फ शैक्षणिक/सामाजिक आधार पर पिछड़ेपन को आधार बनाकर ही आरक्षण की व्यवस्था की गई थी. उन्होंने कहा कि सरकार के इस कदम से करीब 60 फीसदी आरक्षण हो जाएगा. ये सुप्रीम द्वारा तय (अधिकतम 50 फीसदी) आरक्षण की सीमा से ज्यादा है. लिहाजा, उसकी न्यायिक समीक्षा हो सकती है, सुप्रीम कोर्ट में इस फैसले को सरकार के लिए वैध ठहराना मुश्किल होगा.
फैसले को दी जा सकती है सुप्रीम कोर्ट में चुनौती- पूर्व ASG
वहीं, अमरेन्द्र शरण ने बताया कि अगर सरकार इसके लिए संविधान में संसोधन कर कानून बना कर उसे संविधान की नौंवी अनुसूची में भी डालती है, तो भी 2007 में दिये गए सुप्रीमकोर्ट के नौ जजों के फैसले के मुताबिक यह फैसला न्यायिक समीक्षा के दायरे में आ सकता है. सुप्रीम कोर्ट द्वारा पूर्व में दिए गए इस फैसले के मुताबिक, इस अनुसूची में शामिल वो कानून भी न्यायिक समीक्षा के दायरे में आ सकता है, अगर वो संविधान के बुनियादी ढांचे के खिलाफ हो. पूर्व ASG अमरेंद्र शरण के मुताबिक, समानता भी संविधान के बुनियादी ढांचे का हिस्सा है, लिहाजा इसके हनन के आधार पर इसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी जा सकती है.
संविधान में सामाजिक असमानता है आरक्षण का आधार
दरअसल, संविधान में आरक्षण का प्रावधान सामाजिक असमानता के आधार पर है. वहीं, मोदी सरकार का हालिया फैसला आर्थिक आधार पर सवर्णों को आरक्षण देने का है. संविधान के अनुसार, आय और संपत्ति के आधार पर आरक्षण नहीं दिया जा सकता है. संविधान के अनुच्छेद 16(4) के अनुरूप आरक्षण का आधार केवल समाजिक असमानता ही हो सकती है. वर्तमान में पिछड़े वर्गों का कुल आरक्षण 49.5 फीसदी है. इसमें अनुसूचित जाति (एससी) को 15, अनुसूचित जनजाति (एसटी) 7.5 और अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) को 27 फीसदी आरक्षण मिलता है. वर्ष 1963 में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि आरक्षण की सीमा को आमतौर पर 50 फीसदी से ज्यादा नहीं बढ़ाया जा सकता है.
वहीं, सुप्रीम कोर्ट ने अपने पूर्व के सभी फैसलों में कहा है कि आर्थिक आधार पर आरक्षण दिया जाना समानता के मूल अधिकार का उल्लंघन है. आइए नजर डालते हैं न्यायपालिका द्वारा पूर्व में दिए गए उन फैसलों पर जब उसने आर्थिक आधार पर आरक्षण देने के फैसलों पर रोक लगाई….
- गुजरात हाईकोर्ट ने साल 2016 में गुजरात सरकार द्वारा आर्थिक रूप से पिछड़े लोगों को आरक्षण देने की घोषणा को असंवैधानिक घोषित किया था. गुजरात सरकार ने 6 लाख रुपये से कम वार्षिक आय वाले परिवारों को 10 फीसदी आरक्षण देने की बात की थी.
- राजस्थान हाईकोर्ट ने साल 2015 में राजस्थान सरकार द्वारा आर्थिक रूप से पिछड़े लोगों को शैक्षणिक संस्थानों और सरकारी नौकरियों में 14 फीसदी आरक्षण देने की घोषणा को गैरकानूनी घोषित किया था.
- साल 1978 में बिहार सरकार ने भी आर्थिक आधार पर सवर्णों को तीन फीसदी आरक्षण देने का फैसला लिया था. इस फैसले को कोर्ट ने रद्द कर दिया था.
- साल 1991 में मंडल कमीशन रिपोर्ट लागू होने के ठीक बाद पूर्व प्रधानमंत्री नरसिंह राव ने भी आर्थिक आधार पर 10 फीसदी आरक्षण देने का फैसला लिया था. इस फैसले को 1992 में कोर्ट ने रद्द दिया था.