नई दिल्ली। इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने अपने नई किताब में दावा किया है कि महात्मा गांधी अप्रैल 1919 से पहले तक अंग्रेज सल्तनत के वफादार के तौर पर जाने जाते थे। लेकिन जलियांवाला बाग नरसंहार ने उन्हें झकझोर दिया। उनके कहने के बाद भी जब आरोपी अफसरों पर कोई कार्रवाई नहीं की गई तो वे अंग्रेजों के कट्टर विरोधी बन गए।
1919 से पहले गांधी पंजाब नहीं गए थे
गुहा की किताब ‘शहादत से स्वतंत्रता’ में दावा है कि बापू ने 1919 से पहले कभी पंजाब का दौरा नहीं किया। हालांकि, वह जाना चाहते थे। उनको पता था कि पंजाब राजनीतिक दृष्टिकोण से बेहद संवेदनशील सूबा है। गदर आंदोलन के साथ 1905-07 में हुए स्वदेशी आंदोलन का केंद्र पंजाब ही था। वहां के लोगों ने जिस तरह से ब्रिटिश शासन का विरोध किया, उससे गांधी उनके कायल हो गए थे।
अंग्रेजों ने रोका तो गांधीजी अहमदाबाद लौटे
गांधी ने पंजाब जाने का फैसला किया और 8 अप्रैल 1919 को वह मुंबई से दिल्ली के लिए निकल पड़े। हालांकि, ब्रिटिश सरकार ने उन्हें दिल्ली से पंजाब नहीं जाने दिया। वह अहमदाबाद लौट गए। गांधी को रोकने की खबर पंजाब पहुंची तो वहां हिंसा भड़क उठी। 10 अप्रैल को अमृतसर में भीड़ ने सड़कों पर धावा बोल दिया। ब्रिटिश बैंकों में आगजनी की गई और तीन मैनेजरों की हत्या कर दी गई। हिंसा 11 अप्रैल तक जारी रही। शहर में मार्शल लॉ घोषित कर दिया गया। इसकी कमान जनरल डायर को सौंपी गई।
13 अप्रैल 1919 को हुआ जलियांवाला नरसंहार
13 अप्रैल को डायर ने बैसाखी के मौके पर जलियांवाला बाग में इकट्ठे हुए निहत्थे लोगों पर गोली चलवा दी। इसमें सैंकड़ों लोग मारे गए। गुहा के मुताबिक- नरसंहार की खबर मिलते ही गांधी ने पंजाब जाने का फैसला किया, लेकिन सरकार ने उन्हें रोक दिया। आखिरकार अक्टूबर में उन्हें वहां जाने की अनुमति दी गई। बापू 22 अक्टूबर को लाहौर के लिए निकले और एक सप्ताह बाद अमृतसर जा पहुंचे।
अफसर को बर्खास्त करने की बजाय सराहा गया
किताब में लिखा है कि नरसंहार से बापू बेहद आहत थे। उन्होंने ब्रिटिश वायसरॉय से कहा कि जनरल डायर और तत्कालीन लेफ्टिनेंट गवर्नर सर माइकल ओ डोर को नरसंहार के लिए दोषी मानकर तुरंत बर्खास्त किया जाए, लेकिन वायसरॉय ने जनरल डायर के एक्शन पर खेद जताते हुए ओ डोर को सर्टिफिकेट ऑफ कैरेक्टर दे दिया। इसमें उनकी मुक्तकंठ से सराहना की गई।
तब गांधीजी ने अहिंसक आंदोलन चलाने का फैसला किया
गुहा के मुताबिक- ब्रिटिश सरकार के इस फैसले से गांधी बुरी तरह से आहत हो गए। उन्होंने फैसला लिया कि अहिंसक आंदोलन चलाकर ब्रिटिश शासन को जड़ से उखाड़कर फेंका जाए। ‘शहादत से स्वतंत्रता’ किताब का विमोचन नरसंहार के 100 साल पूरे होने पर किया गया है। इसमें कई पूर्व राजनयिकों, इतिहासकारों और स्कालर्स ने अपने अनुभव साझा किए हैं।