नई दिल्ली। नया संसद भवन तैयार है. इसके उद्घाटन को लेकर तो विवाद हुआ है. लेकिन अब एक नया बवाल शुरू हो गया है. और वो बवाल है- लोकसभा सीटों को लेकर. दरअसल, इस वक्त लोकसभा सीटों की संख्या 545 है. सीटों की ये संख्या 1971 की जनगणना के आधार पर तय है. सीटों की ये संख्या 2026 तक इतनी ही रहेगी, लेकिन इसके बाद बढ़ने की संभावना है. यही वजह है कि नई संसद में लोकसभा चैम्बर में 888 सांसदों के बैठने की व्यवस्था की गई है.
लेकिन अब इस पर बवाल हो रहा है. क्योंकि 2026 के बाद लोकसभा सीटों की संख्या आबादी के हिसाब से बढ़ेगी. इसे लेकर दक्षिण बनाम उत्तर भारत की नई जंग शुरू हो गई है. दक्षिणी राज्यों ने आबादी के आधार पर लोकसभा सीटों की संख्या बढ़ाने पर आपत्ति जताई है.
तेलंगाना के मंत्री और भारत राष्ट्र समिति के नेता केटी रामाराव का कहना है कि अगर आबादी के हिसाब से लोकसभा सीटों का परिसीमन किया जाता है तो ये दक्षिणी राज्यों के साथ ‘घोर नाइंसाफी’ होगी.
रामाराव का कहना है कि आबादी कंट्रोल करने वाले केरल, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक और तेलंगाना को उनकी प्रगतिशील नीतियों के लिए कड़ी सजा दी जा रही है. उन्होंने दावा किया कि परिसीमन का लाभ उन उत्तरी राज्यों को मिलेगा, जो केंद्र सरकार की अपील के बावजूद आबादी को नियंत्रित नहीं करते हैं.
हैदराबाद से सांसद असदुद्दीन ओवैसी ने भी इस पर चिंता जताई. ओवैसी ने कहा, आप उन राज्यों को सजा नहीं दे सकते हैं जिन्होंने आबादी नियंत्रित की और जहां फर्टिलिटी रेट कम हुआ है. उन्होंने कहा कि जिस तरह से आबादी बढ़ रही है, उस हिसाब से 50 फीसदी आबादी तीन-चार राज्यों में होगी.
कर्नाटक के विधायक और कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे के बेटे प्रियांक खड़गे ने भी कहा कि आबादी के आधार पर परिसीमन करना दक्षिण के राज्यों के साथ नाइंसाफी होगी.
दक्षिण और उत्तर भारत में कौन-कौन से राज्य?
दक्षिण भारत में पांच राज्य- आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, तमिलनाडु, केरल और कर्नाटक आते हैं. इनके अलावा तीन केंद्र शासित प्रदेश- लक्षद्वीप, पुडुचेरी और अंडमान-निकोबार द्वीप समूह को भी दक्षिण भारत में गिना जाता है.
वहीं, वैसे तो उत्तर भारत में जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, पंजाब, चंडीगढ़, उत्तराखंड, हरियाणा, दिल्ली और उत्तर प्रदेश आते हैं. लेकिन आम धारणा में हिंदी भाषी राज्यों को उत्तर भारत में गिना जाता है. लिहाजा, दक्षिण भारतीय बिहार, झारखंड, राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ जैसे हिंदी भाषी राज्यों को भी उत्तर भारत का हिस्सा मानते हैं.
जबकि, भौगोलिक स्थिति के आधार पर बिहार, झारखंड और छत्तीसगढ़ पूर्व भारत में पड़ता है. राजस्थान और मध्य प्रदेश पश्चिमी हिस्से में आते हैं.
सीटों के परिसीमन का क्या है नियम?
संविधान का अनुच्छेद 81 कहता है कि देश में लोकसभा सांसदों की संख्या 550 से ज्यादा नहीं होगी. हालांकि, संविधान ये भी कहता है कि हर 10 लाख आबादी पर एक सांसद होना चाहिए.
किसी राज्य में लोकसभा और विधानसभा सीटों की संख्या कितनी होगी? इसका काम परिसीमन आयोग करता है. 1952 में परिसीमन आयोग का गठन किया गया था. अनुच्छेद 82 में आयोग का काम भी तय किया गया है.
पहले आम चुनाव के समय लोकसभा सीटों की संख्या 489 थी. आखिरी बार 1971 की जनगणना के आधार पर परिसीमन हुआ था, जिसके बाद सीटों की संख्या बढ़कर 543 हो गई.
1971 के बाद क्यों नहीं हुआ परिसीमन?
आजादी के बाद 1951 में जब पहली जनगणना हुई तो उस समय देश की आबादी 36 करोड़ के आसपास थी. 1971 तक आबादी बढ़कर करीब 55 करोड़ हो गई.
लिहाजा, 70 के दशक में सरकार ने फैमिली प्लानिंग पर जोर दिया. इसका नतीजा ये हुआ कि दक्षिण के राज्यों ने तो इसे अपनाया और आबादी काबू में की. लेकिन उत्तर भारतीय राज्यों में ऐसा नहीं हुआ और यहां आबादी तेजी से बढ़ती रही.
ऐसे में उस समय भी दक्षिणी राज्यों की ओर से सवाल उठाया गया कि उन्होंने तो फैमिली प्लानिंग लागू करके आबादी कंट्रोल की और उनके यहां ही सीटें कम हो जाएंगी. सीटें कम होने का मतलब संसद में प्रतिनिधित्व कम होना.
इसलिए विवाद हुआ. इसके बाद 1976 में संविधान में संशोधन कर तय कर दिया कि 2001 तक 1971 की जनगणना के आधार पर ही लोकसभा सीटें होंगी. लेकिन 2002 में अटल सरकार ने दोबारा संशोधन कर इसकी सीमा 2026 तक बढ़ा दी.
आबादी और लोकसभा सीटों में कनेक्शन क्या?
जिन राज्यों में आबादी कम होगी, वहां सीटों की संख्या कम होगी. और जिन राज्यों में आबादी बढ़ी होगी, वहां सीटों की संख्या भी बढ़ेगी.
इस बात को ऐसे समझिए, अभी तमिलनाडु की अनुमानित आबादी 7.68 करोड़ है और वहां लोकसभा की 39 सीटें हैं. जबकि, मध्य प्रदेश की आबादी 8.65 करोड़ है और यहां 29 लोकसभा सीटें हैं. परिसीमन होता है तो अभी की आबादी के हिसाब से मध्य प्रदेश में 86 लोकसभा सीटें हो जाएंगी और तमिलनाडु में 76 सीटें होंगी. सीटों की ये संख्या हर 10 लाख आबादी पर एक सांसद वाले फॉर्मूले के हिसाब से है.
एक और उदाहरण देखिए. केरल की अनुमानित आबादी 3.57 करोड़ है. अभी यहां 20 लोकसभा सीटें हैं. उत्तर प्रदेश की आबादी 23.56 करोड़ है और यहां 80 सांसद हैं. अगर वही 10 लाख वाला फॉर्मूला लागू किया जाए तो केरल में लोकसभा सीटों की संख्या बढ़कर 35 या 36 होगी. जबकि, उत्तर प्रदेश में लोकसभा सीटों की संख्या 235 या उससे ज्यादा भी हो सकती है.
इसी वजह से दक्षिणी राज्यों को आपत्ति है. उनका यही कहना है कि हमने आबादी नियंत्रित की, केंद्र की योजनाओं को लागू किया और उनके ही यहां लोकसभा सीटें कम हो जाएंगी.
इसलिए दक्षिणी राज्य आबादी के हिसाब से सीटों के बंटवारे के विरोध में हैं. क्योंकि अगर ऐसा हुआ तो उत्तर भारतीय राज्यों में सीटों की संख्या दोगुनी-तिगुनी या चौगुनी तक बढ़ जाएगी. जबकि, दक्षिण भारतीय राज्यों में सीटें बढ़ेंगी तो, लेकिन बहुत ज्यादा नहीं.
25 लाख भारतीय पर एक सांसद
वैसे तो हर 10 लाख की आबादी पर एक सांसद होना चाहिए. लेकिन भारत में ऐसा है नहीं. लोकसभा और राज्यसभा दोनों सदनों को मिलाकर कुल 793 सांसद हैं. इस समय अनुमानित आबादी 138 करोड़ से ज्यादा है. लिहाजा, हर साढ़े 25 लाख आबादी पर एक सांसद है.
जबकि, देखा जाए तो आबादी के मामले में चीन और भारत में बहुत ज्यादा अंतर नहीं है. लेकिन वहां साढ़े चार लाख आबादी पर एक सांसद है. चीन में लगभग तीन हजार सांसद हैं.
अमेरिका में भी दोनों सदनों को मिलाकर कुल 535 सांसद हैं और वहां हर 7.33 लाख आबादी पर एक सांसद है. यूके में एक सांसद के हिस्से में एक लाख से भी कम आबादी है.
क्या 2026 में ही बढ़ जाएगी सांसदों की संख्या?
नहीं. आखिरी बार संविधान में संशोधन कर जब परिसीमन की सीमा को बढ़ाया गया था, तब प्रावधान किया गया था कि 2026 के बाद जो पहली जनगणना होगी और उसके आंकड़े प्रकाशित हो जाएंगे, तब भी लोकसभा सीटों का परिसीमन किया जाएगा.
अभी तो 2021 की जनगणना ही नहीं हुई है और 2026 के बाद 2031 में जनगणना होगी. उसके बाद ही लोकसभा सीटों की संख्या बढ़ने की उम्मीद है.
इसका मतलब ये हुआ कि 2024, 2029 और शायद 2034 के लोकसभा चुनाव के वक्त भी सीटों की संख्या 543 ही हो.
इसी तरह राज्यों की विधानसभा सीटों की संख्या के लिए जुलाई 2002 में परिसीमन आयोग का गठन किया गया था. दिसंबर 2007 में आयोग ने अपनी सिफारिशें केंद्र सरकार को भेज दी थीं. इसके बाद कई राज्यों में परिसीमन हुआ और सीटों की संख्या बढ़ी थी.