सुरेन्द्र किशोर
वो दिसंबर 2001 में भारत के संसद भवन पर भी हमला करवाने का दुःसाहस (हिमाकत) कर चुका है. पता नहीं, वो अभी आगे और कितनों की जान लेगा! वैसे उन कुछ भारतीय लोगों से भी उसे ताकत मिलती है जो यहां के विश्वविद्यालयों में ‘भारत तेरे टुकड़े होंगे’ का नारा लगाते हैं. और, कुछ सत्ताधारी नेता भी ऐसे लोगों के खिलाफ देशद्रोह का मुकदमा चलाने की अनुमति तक नहीं देते.
इजरायल सहित कुछ अन्य देश कभी आतंकियों या अपहरणकर्ताओं से समझौता नहीं करते. फिरौती देकर बंधकों को नहीं छुड़वाते. क्योंकि वो जानते हैं कि ऐसा सौदा अंततः (आखिर में) देश के लिए ही महंगा पड़ता है. पर, भारत सरकार को तो अन्य कई तरह के दबावों में काम करना पड़ता है. यहां तो ऐसे अवसरों पर कई बार पहले प्रतिपक्ष सरकार को समर्थन देकर जो खास काम करवा लेता है, उसी काम के लिए बाद में उस सरकार की वह आलोचना करने लगता है.
ऐसे दुखद अवसरों पर भी देश में सर्वसम्मति के अभाव में सरकारों के सामने कठिनाइयां पैदा होती रहती हैं. 1999 में हुए विमान अपहरण की घटना को लेकर भी ऐसी बात हो चुकी है.
जैश के फिदायीन कश्मीरी आतंकी ने विस्फोटकों से भरी गाड़ी को सीआरपीएफ जवानों को ले जा रहे बस से टकरा दिया था. इस हमले में 40 जवान शहीद हो गए थे
पुलवामा में घटित आतंकी हमले को लेकर अंततः प्रतिपक्ष कैसा रवैया अपनाता है, यह बाद में पता चलेगा. अभी तो वो मोटे तौर पर सरकार का समर्थन कर रहा है. 1999 में क्रिसमस की पूर्व संध्या पर आतंकवादियों ने नेपाल की राजधानी काठमांडू से दिल्ली आ रहे इंडियन एयरलाइंस (IA) के विमान का अपहरण कर लिया था. उनकी मुख्य मांग अजहर की रिहाई थी. विमान को पहले अमृतसर और बाद में तालिबान के कब्जे वाले अफगानिस्तान के कंधार में उतारा गया.
जब अपहरणकर्ताओं ने अपनी मांगें नहीं माने जाने पर विमान को उड़ा देने की धमकी दी तो केंद्र सरकार ने उनकी महत्वपूर्ण मांगें मान ली जिनमें मसूद अजहर और उसके दो साथियों की रिहाई शामिल थी. यह दो अन्य आतंकवादी थे- उमर सईद शेख और मुश्ताक अहमद जरगर. उनकी मूल मांग तो बहुत अधिक थी. वो कह रहे थे कि उनके कुल 35 साथियों को भारतीय जेलों से रिहा कर दिया जाए. साथ ही, उन्हें 20 करोड़ अमेरिकी डॉलर (USD) की राशि दी जाए.
उससे पहले जब तक विमान यात्री बंधक बने रहे, तब तक तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के आवास के सामने यात्रियों के परिजनों की ओर से लगातार सरकार विरोधी नारे लगते रहे. पांच यात्रियों के रिश्तेदार डॉ. राजीव छिब्बर ने विदेश मंत्री जसवंत सिंह से तब गुस्से में कहा कि ‘तब अपहृत (Abducted) रुबैया के बदले आतंंकवादी छोड़े गए थे तो अब क्यों नहीं?’ एक दूसरे यात्री का रिश्तेदार चिल्लाया, ‘कश्मीर दे दो, कुछ भी दे दो, हमारे लोगों को घर वापस लाओ.’
उस हाइजैक (Hijack) विमान को अमृतसर में जबरन रोका जा सकता था. पर उसमें सवार एक बड़े अफसर के खास रिश्तेदार को किसी आशंकित खतरे से बचाने के लिए विमान को नहीं रोका गया. अमृतसर हवाईअड्डे पर वो विमान 40 मिनट तक खड़ा रहा. विमान जब लखनऊ के ऊपर से उड़ रहा था, उसी समय उसके अपहरण की सूचना देश के संबंधित अधिकारियों को मिल गई थी. पर कोई निर्णय लेने को तैयार नहीं था. किसी को इस पर कोई जल्दी नहीं थी.
प्रधानमंत्री एक ऐसे विमान में उस समय दिल्ली पहुंचने के रास्ते में थे जिसमें सेटेलाइट फोन (Satellite Phone) की सुविधा तक नहीं थी. प्रधानमंत्री के विमान के पायलट को वायरलेस से सूचना दी जा सकती थी, पर वो काम भी नहीं हो सका. इस तरह प्रधानमंत्री को करीब पौने दो घंटे बाद ही विमान हाइजैक की सूचना दी जा सकी जब वो दिल्ली पहुंचे. मगर तब तक देर हो चुकी थी.
पता नहीं बाद की सरकारों ने उन गलतियों और कमियों को कितना सुधारा है? विमान अपहरण के बाद केंद्र सरकार ने 27 दिसंबर, 1999 को सर्वदलीय बैठक बुलाई थी. उसमें सोनिया गांधी सहित सभी प्रतिपक्षी नेता शामिल थे. उस बैठक में प्रतिपक्ष ने सरकार से एक स्वर में कहा था कि सरकार यात्रियों और चालक दल के सदस्यों की सकुशल रिहाई के लिए आवश्यक कदम उठाए. प्रतिपक्ष ने यह भी कहा कि ‘हम आपके साथ हैं. पर पल-पल बदलते घटनाक्रम के मद्देनजर जरूरी कदम उठाने का निर्णय तो सरकार ही कर सकती है.’
पर जब तत्कालीन वाजपेयी सरकार ने कदम उठाया तो बाद में कांग्रेस नेताओं ने उसका विरोध करना शुरू कर दिया. 1999 की घटना से पहले आतंकवादी वर्ष 1991 में कश्मीरी नेता सैफुद्दीन सोज की बेटी नाहिदा इम्तियाज का अपहरण कर के उसके बदले अलगाववादी मुश्ताक अहमद को रिहा करवा चुके थे.
उसी साल इंडियन ऑयल के कार्यकारी निदेशक के.दुरैस्वामी का अपहरण हुआ था. उनके बदले भी आतंकवादी छोड़े जा चुके थे. इस तरह ‘नरम सरकारों और बिखरे राजनीतिक दल’ वाले इस देश के साथ कुछ भी करने को आतंकवादी तत्पर रहते हैं.
उम्मीद है कि अब भी सरकारें और राजनीतिक दल ऐसी घटनाओं से सबक लेंगे.
(वरिष्ठ पत्रकार सुरेन्द्र किशोर के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)