नई दिल्ली। जम्मू-कश्मीर के पुलवामा में हुआ आत्मघाती हमला घाटी में 30 साल के खूनी इतिहास में सबसे बड़ी घटना है जिसमें इतने बड़े पैमाने पर सुरक्षाबलों के जवान शहीद हुए हैं. इस एक बड़ी आतंकी घटना ने देश की आंतरिक सुरक्षा को लेकर कई बड़े सवाल तो खड़े किए ही हैं, साथ ही आने वाली नई चुनौतियों को लेकर भी हमें आगाह किया है. ये चुनौतियां जितनी पुलवामा के इर्दगिर्द घूमती हैं, उतनी ही सीमा पार हो रहे एक बड़े घटनाक्रम से भी जुड़ी हो सकती हैं.
पुलवामा हमले के बाद तमाम मीडिया और राजनीतिक विमर्श में कहा जा रहा था कि यह हमला भारतीय सुरक्षाबलों की कार्रवाई के बाद आतंकवादी संगठनों की हताशा को दिखाता है लेकिन सामरिक मामलों के विशेषज्ञ अजय साहनी ऐसा नहीं मानते. उनका मानना है कि यह घटना पाकिस्तानी सेना और उसकी खुफिया एजेंसी आईएसआई के हौसले को दिखाते हैं जो अफगानिस्तान शांतिवार्ता से निकलने वाले नतीजों से उत्साहित है. गौर करिए पुलवामा हमले के फौरन बाद पाकिस्तान आधारित आतंकी संगठन जैश-ए-मोहम्मद ने इस हमले की जिम्मेदारी ली थी. जैश-ए-मोहम्मद वही आतंकी गुट है जिसे मौलाना मसूद अजहर ने कंधार विमान हाईजैक के बदले में छूटने के बाद स्थापित किया था. मसूद अजहर की रिहाई के लिए अफगानिस्तान के तालिबानी आतंकियों ने आईएसआई के समर्थन से इस हाईजैक की घटना को अंजाम दिया था.
अब वही पाकिस्तानी सेना-आईएसआई-तालिबान की तिकड़ी अफगानिस्तान में पिछले 17 साल से चल रहे युद्ध में खुद को कामयाब होता देख रहा है क्योंकि भारतीय उपमहाद्वीप की जियोपॉलिटिक्स (भू-राजनीतिक) को प्रभावित करने वाली एक बड़ी कवायद पाकिस्तान में सोमवार को होने जा रही है. जिसमें अफगानिस्तान के तालिबानी गुट के प्रतिनिधि पाकिस्तान में अमेरिकी अधिकारियों से बातचीत करने वाले हैं. इसके साथ ही यह गुट पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान सहित इस्लामाबाद पहुंचे सउदी प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान से भी मिलेगा. यह बातचीत कतर में अमेरिकी अधिकारियों और तालीबान के बीच 25 फरवरी को होने वाली बैठक के पहले हो रही है.
वैसे तो पाकिस्तान-अमेरिका-तालिबान के बीच होने वाली यह वार्ता पिछले कई महीनों से चल रही शांतिवार्ता की कड़ी है, लेकिन इसके निहितार्थ काफी बड़े हैं. दरअसल अमेरिका ने अफगानिस्तान से अपनी सेना हटाने का ऐलान किया है. इस वार्ता के तहत अफगानिस्तान में पाकिस्तान के साथ तालिबान की अहम भूमिका होने वाली है. माना जा रहा है कि अमेरिका के अफगानिस्तान छोड़ने के बाद वहां की सियासत में तालिबान की बड़ी भूमिका होने वाली है. अजय साहनी कहते हैं कि अमेरिका के अफगानिस्तान छोड़ने के फैसले को पाकिस्तान और उसका प्रॉक्सी तालिबान अपनी जीत मान रहे हैं. उनका मानना है कि सोवियत संघ के बाद उन्होंने अपनी ताकत के आगे अमेरिका को भी झुकने को मजबूर कर दिया.
पुलवामा हमले में शामिल फिदायीन आदिल अहमद डार तो बस एक मोहरा था जिसका इस्तेमाल सीमा पार आईएसआई समर्थित जैश ने किया. पिछले दो वर्षों में घाटी के काफी युवा, आतंकी संगठनों में शामिल हुए हैं लेकिन वे तकनीकि और संसाधन की दृष्टि से इतने कामयाब नहीं हो पाए कि कोई बड़ा असर डाल सके. अजय साहनी का मानना है कि अमेरिकी सेना के अफगानिस्तान छोड़ने और तालिबान को अफगानिस्तान में अहम भूमिका मिलने के बाद पाकिस्तानी सेना और आईएसआई अफगानिस्तान से अपने संसाधन और रणनीति का इस्तेमाल जम्मू-कश्मीर की स्थिति को खराब करने और तनाव बढ़ाने के लिए करेंगे.
अजय साहनी का मानना है कि पुलवामा हमले के बाद सुरक्षाबलों और सेना पर दबाव बढ़ेगा कि वे कुछ ऐसा करें जो चुनावी साल में सत्ताधारी दल के लिए माहौल बनाने में मदद करे, लेकिन इसके लिए मौजूद विकल्प बहुत कम हैं. साहनी का मानना है कि बड़ी रणनीतिक प्रतिक्रिया के लिए रक्षा, आतंरिक सुरक्षा और खुफिया क्षेत्र में सतत रणनीतिक तैयारी की आवश्यकता है. लेकिन पिछले कई दशकों से इसे नजरअंदाज किया गया है. वहीं मौजूदा सरकार ने भी इस मोर्चे पर कुछ खास नहीं किया जो पिछली कमियों की भरपाई कर सके.
मार्च 2018 में रक्षा मामलों की संसदीय स्थाई समिति ने एक रिपोर्ट में कहा था कि हमारी सशस्त्र सेना के 65 फीसदी हथियार पुराने हो चुके हैं. इसके साथ ही सेना के पास पाकिस्तान से युद्ध करने के लिए महज दस दिन के गोला बारूद मौजूद हैं. अजय साहनी का कहना है कि इस रिपोर्ट पर सरकार की तरफ से दिखने वाली प्रतिक्रिया यह रही कि कमेटी के अध्यक्ष और बीजेपी सांसद मेजर जनरल (रिटा.) बीसी खंडूरी को इस पद से हटा दिया गया. ऐसी परिस्थिति और बदलते परिदृश्य में अजय साहनी का मानना है कि पुलवामा के अवंतीपोरा में हुआ आत्मघाती हमला जम्मू-कश्मीर में भविष्य में तेजी से बढ़ने वाली हिंसा की शुरुआत भर है. जिसे लेकर भारत और अफगानिस्तान को सजग रहने की आवश्यकता है.