हो ही गया ललन सिंह का इस्तीफा, ‘तीर’ की कमान अब सीधे नीतीश के पास…
कहा जाता है कि धुआं उठने का मतलब होता है कहीं न कहीं आग सुलग रही है. एक खुसफुसाहट का आज अंत हो गया. जेडीयू के अध्यक्ष ललन सिंह को आज उनके पद से हटा दिया गया. नए अध्यक्ष बिहार के सीएम नीतीश कुमार खुद बन गए हैं. ललन सिंह को हटाए जाने की खबरें पिछले एक हफ्ते से चल रही थीं. इस खबर के साथ साथ ही यह खबर भी चल रही है कि नीतीश कुमार महागठबंधन से अलग होकर एनडीए के साथ जाएंगे. धुआं उठा है तो निश्चित ही आग भी लगी होगी. क्योंकि यह आग दोनों तरफ से लगी है.
ललन पर आरोप रहा है कि वो जेडीयू की बजाय आरजेडी के लिए काम कर रहे थे. कहा जा रहा है कि जेडीयू को तोड़ने की भी प्लानिंग हो रही थी. निश्चित है कि महागठबंधन अब ज्यादा दिन का मेहमान नहीं है. चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर ने कहा था कि नीतीश कुमार जब भी कोई दरवाजा बंद करते हैं तो खिड़की खुला रखते हैं. मतलब साफ है कि नीतीश को भी कोई सहारा चाहिए. दूसरी ओर केंद्र में फिर से सत्ता में आने के लिए बेचैन बीजेपी को बिहार में क्लीन स्वीप चाहिए जिसमें नीतीश कुमार उनके मददगार बन सकते हैं. आइये देखते हैं कि नीतीश कुमार को एनडीए अपने साथ लेने के लिए क्यों मजबूर है.
बीजेपी की लाख कोशिशों के बाद भी बिहार में कद्दावर नेतृत्व नहीं तैयार हो सका है. बिहार बीजेपी के सुशील मोदी , नित्यानंद राय आदि भी मानते रहे हैं कि बिहार में नीतीश का साथ जरूरी है. बिहार बीजेपी के अध्यक्ष सम्राट चौधरी अभी भी अपनी जाति के ही नेता हैं. हालांकि आज की बीजेपी किसी भी प्रदेश में कोई चेहरा नहीं बना रही है.अभी हाल ही में हमने देखा कि मध्यप्रदेश- राजस्थान और छत्तीसगढ़ में बीजेपी ने नरेंद्र मोदी के चेहरे पर चुनाव लड़ा और सफल भी हुए. पर इन तीनों राज्यों में बीजेपी का आधार बहुत पुराना है. बिहार में ऐसा नहीं है. बिहार की राजनीति भी अलग तरह की है.
बीजेपी इस बार लोकसभा चुनावों को लेकर बहुत सेफ गेम खेल रही है. वह कोई भी ऐसी गलती नहीं करना चाहती है जैसा 2004 में हुआ था. इंडिया शाइनिंग की धूम में पार्टी ने ओवरकॉन्फिडेंस के चलते तब सत्ता गंवा दी थी. यही कारण है कि जहां भी पार्टी को थोड़ी भी आशंका है वहां पर हर तरह की तैयारी की जा रही है. पार्टी को पता है कि उत्तर भारत से अगर अधिकतम सीटें नहीं मिलीं तो खेला हो सकता है. 2019 में बिहार की सफलता में नीतीश कुमार के अहम रोल से इनकार नहीं किया जा सकता. कहा जा रहा है कि बीजेपी के अंदरूनी सर्वे में भी लोकसभा चुनावों में स्थिति ठीक नहीं बताई जा रही है.
2-बिहार की कॉस्ट पॉलिटिक्स के कैलुकेलशन में बीजेपी के लिए नीतीश जरूरी
वैसे तो पूरे देश की राजनीति में जाति सबसे महत्वपूर्ण भूमिका में होता है. पर बिहार की राजनीति में इसका असर कुछ ज्यादा ही है. उत्तर भारत में मंडल आयोग का सबसे अधिक भी प्रभाव बिहार में रहा. पिछड़ों में राजनीतिक जागरूकता की लिहाज से भी बिहार सबसे आगे रहा है.दूसरे यहां लालू प्रसाद यादव की पार्टी आरजेडी, नीतीश कुमार की पार्टी जेडीयू का अपना अपना जातिगत वोट बैंक है. इसके साथ ही कांग्रेस भी यहां उत्तर प्रदेश के मुकाबले ठीक ठाक पोजिशन में है. यही कारण है कि बीजेपी को यहां पूर्ण बहुमत वाली राजनीति के एक बड़े भाई की जरूरत हमेशा से रहती है. बता दें कि बिहार में 81.99 प्रतिशत हिन्दू हैं. जबकि 17.70% मुस्लिम, 0.05% ईसाई, 0.01% सिख और 0.08 बौद्ध समुदाय से जुड़े लोग रहते हैं. जातियों में सबसे ज्यादा यादव 14.26 प्रतिशत लोग हैं.
यादव और मुस्लिम मिलकर करीब 32 प्रतिशत होते हैं. इस 32 प्रतिशत वोट पर आरजेडी का एकतरफा होल्ड है. जिसे आज तक न नीतीश कुमार भेद सके हैं न बीजेपी. यही कारण है कि जब भी बीजेपी या आरजेडी अकेले चुनाव लड़ती है उसे हार का सामना करना पड़ता है. इसलिए ही यो दोनों पार्टियां नीतीश कुमार को अपने साथ रखना चाहती हैं.
बिहार के सियासी समीकरण अलग-अलग क्षेत्र के हिसाब अलग-अलग हैं. कई क्षेत्रों में आज भी एनडीए के लिए लड़ाई मुश्किल है.बीते कुछ चुनावों के परिणाम और वोट बैंक के पैटर्न को देखें तो यह बात स्पष्ट हो जाती है. उत्तर बिहार में महागठबंधन की तुलना में एनडीए का पलड़ा भारी है. यहां लोकसभा की कुल 12 सीटें हैं, मतलब यहां पर जेडीयू के बिना चुनाव लड़ने के बावजूद एनडीए को ज्यादा नुकसान नहीं होना है. इसी तरह मिथिलांचल में महागठबंधन के मुकाबले एनडीए अच्छी पोजिशन में है. यहां कुल 9 लोकसभा सीटों पर दांव है.
4-आठ बार के सीएम-6 बार के सांसद, साफ-सुथरी सुशासन बाबू की छवि
बिहार के नेताओं नीतीश कुमार की छवि अपने समकालीन नेताओं लालू प्रसाद यादव और रामविलास पासवान आदि के मुकाबले बहुत साफ सुथरी रही है. उन पर व्यक्तिगत रूप से कोई भ्रष्टाचार का केस नहीं है.उन पर परिवार के लिए भी राजनीति करने का आरोप नहीं लगाया जा सकता . जिस तरह बीजेपी में पीएम मोदी अपने परिवार को सत्ता में भागीदार कभी नहीं बनाए ठीक वही हाल नीतीश कुमार का रहा है. नीतीश कुमार के नजदीक छोड़ दीजिए दूर के रिश्तेदार भी राजनीतिक भागीदीरी से दूर हैं. नीतीश कुमार ने कभी अपनी पत्नी जब तक जीवित रहीं या पुत्र को भी पोलिटिकल बेनिफिट से दूर रखा.लालू यादव के शासन काल में जिस तरह बिहार की स्थिति खराब हो चुकी थी उसे सही करने में नीतीश कुमार का बड़ा योगदान रहा है. अपने पहले कार्यकाल में किए गए कार्यों के चलते ही वे बिहार में सुशासन बाबू के नाम से लोकप्रिय हुए.यही कारण है कि नीतीश कुमार को बीजेपी ही नहीं आरजेडी भी कम विधायकों के बावजूद मुख्यमंत्री बनाने को मजबूर होती है.
आरजेडी के साथ होने के बावजूद नीतीश कुमार बहुत से मुद्दे पर एनडीए के काफी नजदीक रहे हैं. इजराइल और हमास की लड़ाई का मुद्दा हो या फिर हिंदू ग्रंथों पर आरजेडी के कुछ नेताओं द्वारा की जाने वाली तीखी दिप्पणियां, ऐसे मसलों पर जेडीयू ने हमेशा से आरजेडू से अपनी अलग राय रखी है.जी-20 की मीटिंग में पीएम का सीएम नीतीश के प्रति विशेष प्रेम का इजहार, अटल बिहारी वाजपेयी और अरुण जेटली से संबंधित समारोहों में पहुंचना इस बात का संदेश रहा है कि वे वैचारिक तौर पर कभी बीजेपी से बहुत दूर नहीं रहे हैं.