G20 शिखर सम्मेलन की सफल अध्यक्षता के बाद वैश्विक स्तर पर पर भारत की एक अलग ही छवि बनकर सामने आई है। दुनियाभर के दिग्गज नेता भारत और पीएम मोदी की तारीफ कर चुके हैं। यही नहीं, भारत को G7 में शामिल करने की चर्चा हो रही है। लेकिन, एक वक्त स्थिति ऐसी भी थी कि भारत इस्लामी देशों के संगठन में शामिल होना चाहता था।
दरअसल, साल 1969 में इस्लामिक देशों ने ‘ऑर्गनाइजेशन ऑफ इस्लामिक को-ऑपरेशन (OIC)’ नामक अपना एक संगठन बनाने का फैसला किया था। इसमें शामिल होने के लिए कई देशों में होड़ मची हुई थी। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि इस होड़ में भारत भी शामिल था। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी ने औपचारिक तौर पर इस संगठन में शामिल होने के लिए आवेदन किया था। लेकिन, पाकिस्तान के विरोध के बाद भारत इस्लामिक देशों के संगठन का हिस्सा नहीं बन पाया था।
एक दौर वह था जब भारत इस्लामिक देशों के संगठन में शामिल होना चाहता था। वहीं प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में भारत का एक दौर ऐसा भी आया जब OIC ने खुद भारत को ‘विशिष्ट अतिथि’ के रूप में आमंत्रित किया था। इसके बाद तत्कालीन विदेश मंत्री सुषमा स्वराज भारत के प्रतिनिधि के रूप में संयुक्त अरब अमीरात (UAE) गई थीं।
यही नहीं, अब OIC में सबसे अधिक दबदबा रखने वाले सऊदी अरब के साथ प्रधानमंत्री वन-टू-वन मीटिंग कर रहे हैं। G20 के बाद सऊदी अरब के प्रिंस मोहम्मद बिल सलमान बिन अब्दुलअजीज अल साउद और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बीच द्विपक्षीय वार्ता हुई। इसमें दोनों देशों के बीच ग्रिड कनेक्टिविटी के लिए एमओयू पर हस्ताक्षर हुआ है। इसके तहत समुद्र के नीचे बिजली ट्रांसमिशन लाइन डालकर भारत और सऊदी अरब के बीच पावर ग्रिड बनाया जाएगा।
साल 1969 में मुस्लिम देशों ने अपना स्वयं का अंतर्राष्ट्रीय संगठन बनाने का फैसला लिया था। इस संगठन को लेकर कहा गया था कि यह मुस्लिम देशों की आवाज उठाएगा। इसे ऑर्गनाइजेशन ऑफ इस्लामिक कॉन्फ्रेंस नाम दिया गया था। हालाँकि, बाद में साल 2011 में इसका नाम बदलकर ऑर्गनाइजेशन ऑफ इस्लामिक को-ऑपरेशन यानी इस्लामिक सहयोग संगठन रख दिया गया है। यह संगठन 57 इस्लामिक देशों का संगठन है। इस्लाम के खिलाफ होने वाली किसी भी छोटी सी छोटी गतिविधि के खिलाफ आवाज उठाता है।
क्या हुआ था भारत के साथ
वापस साल 1969 में लौटें तो इस्लामिक देशों के संगठन बनने की पहली बैठक मोरक्को में हुई थी। इसलिए तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी ने मोरक्को में भारत के राजदूत गुरबचन सिंह को बातचीत करने का नेतृत्व सौंपा था। पूर्व विदेश सचिव जेएन दीक्षित लिखते हैं कि जैसे ही इंदिरा गाँधी को एहसास हुआ कि इस्लामी देशों की बैठक में बातचीत करने में सिख को भेजना एक गलती है, उन्होंने अपनी गलती सुधारते हुए फकरूद्दीन अली अहमद के नेतृत्व में एक प्रतिनिधिमंडल मोरक्को भेज दिया। लेकिन, यह प्रतिनिधिमंडल मोरक्को नहीं पहुँच पाया।
वास्तव में इंदिरा गाँधी खुद इस्लामिक देशों के संगठन में शामिल होने के लिए खुद को धर्मनिरपेक्ष दिखाना चाहती थीं। इसलिए उन्होंने एक सिख को हटाकर मुस्लिम को भेजने का फैसला किया था। यदि OIC चार्टर की शुरुआती पंक्तियों को देखें तो पता चलता है कि इंदिरा गाँधी के नेतृत्व वाला भारत इस्लामिक देशों के साथ ‘उठने-बैठने’ को कितना अधिक बेताब था। दरअसल, चार्टर की शुरुआत में ही लिखा था, “अल्लाह के नाम पर, सबसे दयालु हम इस्लामी सहयोग संगठन के सदस्य देश हैं। एकता और भाईचारे के इस्लामी मूल्यों के हिसाब से चलने और दुनिया में इस्लाम की भूमिका को पुनर्जीवित करने हेतु प्रयास करने के लिए दृढ़ निश्चय करते हैं।”
अब सवाल यह है कि जब भारत OIC का सदस्य बन इस्लाम का काम करने को बेताब था फिर सदस्य कैसे नहीं बन पाया। दरअसल, तत्कालीन पाकिस्तानी राष्ट्रपति याह्या खान को जब पता चला कि भारत OIC में शामिल होने जा रहा है, तो वह भड़क गए और बीमारी का बहाना बनाकर मोरक्को से जाने की धमकी दे दी। पाकिस्तान की धमकी के बाद इस्लामिक देशों के पास एक ही विकल्प था – या तो भारत या फिर पाकिस्तान।