सर्वेश तिवारी श्रीमुख
और बढ़ते बढ़ते बात यहाँ तक बढ़ गयी कि फ्रांस का सबसे बड़ा पुस्तकालय फूँक दिया गया। संसार का कोई भी सभ्य व्यक्ति पुस्तकों को नहीं जलाता। सभ्यता कोई भी हो, पुस्तकों को जलाया जाना सभ्य आचरण नहीं माना जाता। पर यह भी सत्य है कि हजारों वर्षों से पुस्तकालय जलाए जाते रहे हैं…
नालन्दा याद है? कहते हैं, वहाँ छह महीने तक किताबें जलती रही थीं। विश्व के सबसे बड़े विश्विद्यालय की उस भव्य लाइब्रेरी में संसार का समूचा ज्ञान एकत्र था। इतनी किताबें थीं कि एक व्यक्ति को सब पढ़ने के लिए असँख्य जन्म लेने पड़ते। फिर कहीं से एक असभ्य व्यक्ति अपने दो सौ लुटेरे साथियों के साथ आया और संसार में ज्ञान के सबसे बड़े भंडार को फूंक दिया।
बख्तियार खिलजी यहीं नहीं रुका! आगे बढ़ा और पहुँचा विक्रमशिला विश्वविद्यालय के प्रांगण में। वहाँ भी वही बर्बर व्यवहार! सभी शिक्षक और छात्र मार दिए गए, भवन को ध्वस्त कर दिया गया और फूंक दिया गया पुस्तकालय! ऐसा लगता था जैसे बख्तियार संसार के समस्त ज्ञान को फूंक देने ही निकला था।
तक्षशिला! 500 ई पूर्व में जब संसार मे कहीं भी चिकित्सा व्यवस्था नहीं थी, तब भी वहाँ आयुर्वेद की उच्च और व्यवस्थित पढ़ाई होती थी। संसार के उस पहले विश्वविद्यालय में ऐसे ही कुछ लुटेरे घुसे और सबकुछ फूँक दिया।
उदाहरण केवल इतने ही नहीं हैं। अजयमेरु का विश्व प्रसिद्ध महाविद्यालय, शारदा पीठ, वल्लभी विश्वविद्यालय आदि अनेक शिक्षा केन्द्र थे जिन्हें बर्बरों ने समाप्त कर दिया।
सोचिये तो, वे ऐसा क्यों कर रहे थे? किताबें किसी को क्या नुकसान पहुँचा सकती हैं? दरअसल हर अज्ञानी चाहता है कि संसार उसी की भांति हो जाय। वह ज्ञान को पनपने ही नहीं देना चाहता, बल्कि ज्ञान के हर मन्दिर को तोड़ देना चाहता है, फूंक देना चाहता है।
संसार के हर देश में ऐसे उदाहरण हैं जब सभ्य समाज द्वार बनाया गया विद्यालय और पुस्तकालय असभ्यों द्वारा फूँक दिए गए, तोड़ दिए गए। सभ्यता बर्बरों से हार जाती है।
बहुत लोग बार बार कहते हैं कि भारतीय बहुत ही वीर थे, पराक्रमी थे, सक्षम थे तो पराजित क्यों हो जाते थे? उनके मन्दिर क्यों टूट जाते थे, उनके विद्यालय क्यों जला दिए जाते थे? अब यही प्रश्न फ्रांस से पूछिए! वह आज के समय के सबसे शक्तिशाली देशों में से है। सबसे सम्पन्न, सभ्य, ताकतवर… फिर चार दिन पहले गिड़गिड़ा कर शरण मांगते घुसे कुछ लोग पूरे देश को परेशान कैसे कर रहे हैं? स्कूल कैसे तोड़ रहे हैं, पुस्तकालय कैसे फूंक रहे हैं?
उत्तर वही है, बर्बरता कभी कभी सभ्यता को पराजित कर देती है। सभ्य समाज अपने हर निर्णय को नैतिकता की तराजू पर तौल कर देखता है, वह बार बार सोचता है कि हमारे इस कदम का संसार पर, जीव जंतुओं पर, प्रकृति पर क्या असर पड़ेगा। जबकि असभ्यों के सामने नैतिकता का प्रश्न नहीं होता। उन्हें किसी के होने न होने से कोई फर्क नहीं पड़ता। वे कुछ भी कर देते हैं। और इसी के कारण वे जीत जाते हैं।
तो क्या इस बर्बर भीड़ को नहीं रोका जा सकता? क्या सभ्यता यूँ ही समाप्त हो जाएगी? नहीं! इन्हें रोका जा सकता है। बस सभ्य समाज अपनी सहिष्णुता त्यागे और बर्बरों के आतंक को बर्बरता से कुचल कर समाप्त कर दे… अन्यथा समाप्त…
फ्रांस यही करेगा। आज नहीं तो कुछ साल बाद!