नई दिल्ली। पटना में नीतीश कुमार के आह्वान पर हुई विपक्षी एकता की मीटिंग की खूब चर्चा है। इस मीटिंग में आगे भी बात जारी रखने पर सहमति बनी है और अब जुलाई में शिमला में अगले राउंड की मीटिंग होगी। इस बैठक में गठबंधन के संयोजक और सीटों के बंटवारे और उन पर चुनावी रणनीति को लेकर चर्चा हो सकती है। डीएमके, कांग्रेस, शिवसेना, एनसीपी, सपा, नेशनल कॉन्फ्रेंस जैसे दलों की इस एकजुटता की काफी चर्चा हो रही है और भाजपा के लिए चैलेंज बताया जा रहा है। लेकिन इस विपक्षी एकता की गोलबंदी से 4 ऐसे दल दूर हैं, जो अपने राज्यों में अच्छा प्रभाव रखते हैं।
ये दल हैं- नवीन पटनायक की पार्टी बीजेडी, मायावती की बसपा, जगन मोहन रेड्डी की पार्टी वाईएसआर कांग्रेस और तेलंगाना में राज करने वाली केसीआर की भारत राष्ट्र समिति। इन 4 दलों में से तीन पार्टियां तो अपने-अपने राज्यों में बहुमत की सरकार चला रही हैं। ऐसे में इनकी गैर-हाजिरी विपक्ष की एकता के लिए चिंता की बात है। इतना ही नहीं भले ही ये दल तटस्थ दिखते हैं, लेकिन जरूरत पड़ने पर भाजपा के साथ नहीं जाएंगे, इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता। इसकी वजह यह है कि कई अहम विधेयकों को पारित कराने में इन दलों ने सदन में भाजपा का समर्थन किया है।
मायावती का दूर रहना UP में विपक्ष के लिए घातक
अब सवाल यह है कि इन दलों के दूर रहने से विपक्ष को कैसे नुकसान होगा? 80 सीटों वाले राज्य उत्तर प्रदेश में बसपा वोटशेयर के लिहाज से बीते लोकसभा चुनाव में तीसरी सबसे बड़ी पार्टी रही है। दलित वर्ग के बीच उसका एक ठोस जनाधार रहा है। यदि वह विपक्षी एकता से दूर रहती है और गठबंधन नहीं होता है तो फिर सपा और कांग्रेस यदि साथ आ भी जाएं तो भाजपा से मुकाबला कठिन होगा। इसकी वजह यह है कि मायावती यदि मुस्लिम और दलित उम्मीदवार बड़ी संख्या में उतार दें तो कई ऐसी सीटें हैं, जहां त्रिकोणीय मुकाबला बन जाएगा और यह स्थिति भाजपा के लिए मुफीद होगी।
तेलंगाना की बात करें तो वहां केसीआर की पार्टी ने 2019 में 17 में से 9 सीटें जीती थीं। 4 भाजपा के हाथ आई थीं और 3 पर कांग्रेस को जीत मिली थी। इस तरह तेलंगाना की सबसे बड़ी पार्टी बीआरएस ही है और अब यदि कांग्रेस उसके साथ नहीं आती है तो फिर स्वतंत्र रूप से चुनाव के बाद केसीआर किसी भी पाले में जा सकते हैं। यही स्थिति आंध्र प्रदेश में जगन मोहन रेड्डी और ओडिशा में नवीन पटनायक की है। दोनों ही नेता अपने राज्यों में पूर्ण बहुमत की सरकार चलाते हैं और जरूरत पड़ने पर भाजपा के साथ भी जाते रहे हैं। भाजपा और इनके बीच एक अनकहा करार रहा है कि वे अपने राज्यों में खुलकर सरकार चलाएं और केंद्र में भाजपा से बनाकर भी रखें।