नई दिल्ली। दिल्ली के उप मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया ने यह दावा सोमवार (22 अगस्त 2022) को ट्वीट कर किया। वे दिल्ली के दारू घोटाले को लेकर इन दिनों चर्चा में है। सीबीआई की प्राथमिकी में मुख्य आरोपित हैं।
आंदोलन से निकलकर नवंबर 2012 में आम आदमी पार्टी अस्तित्व में आई। 2014 के आम चुनावों तक लोकतांत्रिक सवालों को उठाती रही। पहली बार दिल्ली की सत्ता में भी इसके ही दम पर आई। लेकिन इसके बाद से वह वादे, दावे और फ्री फोकट की राजनीति में सिमटी हुई है। सीबीआई छापों और लगातार अनियमितताओं के सामने आने के बाद पार्टी के ओर से दावों की भरमार लग गई है। इनमें से एक दावा 2024 का चुनाव बीजेपी बनाम आप (BJPvsAAP) होने का भी है।
आप के दावों से इतर ‘द न्यू बीजेपी’ के लेखक प्रोफेसर नलिन मेहता का एक लेख टाइम्स ऑफ इंडिया में छपा है। इसमें उन्होंने 2047 तक भारतीय राजनीति में बीजेपी का दबदबा बने रहने का अनुमान लगाया है। बीजेपी को चुनौती देने की स्थिति में कॉन्ग्रेस के आने की उन्हें उम्मीद नहीं दिखती। उनका मानना है कि राष्ट्रीय स्तर पर यह जगह AAP ले सकती है।
बीजेपी और आप के बीच डील?
ऐसे में यह सवाल उठ रहे हैं कि क्या 2024 के आम चुनावों को लेकर बीजेपी और आप के बीच पर्दे के पीछे कोई डील हुई है? बिहार में नीतीश कुमार ने पाला बदला है। ममता बनर्जी विपक्षी एकजुटता के प्रयास कर रही हैं। दक्षिण से इस बार तेलंगाना के मुख्यमंत्री केसीआर अचानक से विपक्षी गोलबंदी को लेकर मुखर हुए हैं। एनडीए को कई सहयोगी छोड़ चुके हैं। क्या इन कारणों ने बीजेपी को मजबूर किया है कि AAP को दृश्य में रखा जाए? इसके पीछे दो कारण बताए जाते हैं। पहला, चुनावों से पहले विपक्षी एकता को फुस्स कर देना। दूसरा, विपक्षी राजनीति के नाम पर फुटेज उस आम आदमी पार्टी के हिस्से में धकेलना जो दिल्ली और पंजाब के बाहर अब तक असर नहीं छोड़ पाई है।
राहुल गाँधी से भी पीछे अरविंद केजरीवाल
इस सर्वे से दो बातें स्पष्ट हैं। पहला, विपक्ष का कोई चेहरा दूर-दूर तक मोदी के पास भी नहीं दिखता। दूसरा, राष्ट्रीय स्तर पर केजरीवाल की साख राहुल गाँधी से भी कम है। जब मुकाबले में कोई चेहरा दूर-दूर तक दिखे ही नहीं तो फिर किसी चेहरे (वोटकटुवा) को प्लांट करने की बीजेपी की मजबूरी समझ नहीं आती। जाहिर है यह डील की जगह आम आदमी पार्टी के प्रोपेगेंडा का प्रलाप है।
AAP की औकात कितनी है?
हिमाचल प्रदेश और गुजरात में विधानसभा चुनाव होने हैं। मीडिया का एक वर्ग दोनों जगहों पर ‘आप’ का उभार बता रहा है। इस उभार की असलियत इन राज्यों में चुनाव होने और उनके नतीजे आने के बाद सामने आ जाएँगे। लेकिन दिल्ली और पंजाब को छोड़कर अब तक जिन राज्यों में चुनाव हुए हैं, कहीं ‘आप’ असर छोड़ने में सफल नहीं रही है। उत्तराखंड, गोवा जैसे कई राज्यों में चुनाव से पहले ‘आप’ के असर को उसी तरह प्रचारित किया गया था, जैसा अभी हिमाचल और गुजरात के मामले में देखने को मिल रहा है।
जब 2014 के आम चुनाव हुए थे तब AAP दूसरे राजनीतिक दलों से अलग दिखती थी। आरोपों से दामन दागदार नहीं था। पार्टी के भीतर की लड़ाई सामने नहीं आई थी। माहौल ऐसा बनाया जाता था कि भारतीय राजनीति के सारे हरिश्चंद्र आम आदमी पार्टी की छतरी तले ही खड़े हैं। उस साल आम चुनावों में खुद केजरीवाल मोदी को चुनौती देने बनारस चले गए थे। देश की कुछ सीटों पर ऐसे लोगों को चुनाव लड़ाया गया था, जिनकी अपने-अपने क्षेत्र में प्रतिष्ठा थी। जब नतीजे आए तो AAP को केवल पंजाब से चार सीटें मिली। केजरीवाल खुद हारे। उस दिल्ली में भी पार्टी का खाता नहीं खुला, जहाँ लोकसभा चुनावों से पहले हुए विधानसभा चुनाव में उसने शानदार प्रदर्शन किया था और 2014 के आम चुनावों के बाद हुए विधानसभा चुनाव में प्रचंड जीत हासिल की।
लेकिन 2020 में दिल्ली में फिर से हुए विधानसभा चुनाव में AAP को जबर्दस्त जीत मिली। अब पंजाब में भी उसकी सरकार है। पार्टी गठन के बाद से यही दो राज्य हैं जहाँ आम आदमी पार्टी की राजनीतिक हैसियत है। इन दो राज्यों को मिलाकर लोकसभा की सीटें होती हैं- 20। जिस पार्टी की औकात ही लोकसभा चुनावों में 20 सीटों पर टक्कर देने की हो, उस पर भला बीजेपी जैसी पार्टी क्यों दॉंव लगाएगी जिसके लिए 2024 अभी से एक जीती हुई बाजी जैसी लग रही है? यह भी ध्यान रखने योग्य बात है कि सीटों के लिहाज से ममता बनर्जी, नीतीश कुमार, स्टालिन, केसीआर, नवीन पटनायक, अखिलेश यादव जैसे कई क्षेत्रीय क्षत्रप हैं जिनकी औकात 20 से कहीं ज्यादा सीटों पर बीजेपी को चुनौती देने की है।
बीजेपी के मुकाबले कौन होगा?
अब सवाल है कि यदि AAP का दावा प्रोपेगेंडा भर है तो बीजेपी के मुकाबले 2024 में कौन होगा। जाहिर है राष्ट्रीय स्तर पर आज भी मामला बीजेपी बनाम कॉन्ग्रेस ही है। लेकिन कॉन्ग्रेस में अब अकेले बीजेपी को चुनौती देने की ताकत नहीं बची है। लिहाजा कुछ ‘वरिष्ठ पत्रकार’ जिनकी दुकानदारी कॉन्ग्रेस के करीब होने के ही नाम पर चलती है, वे निजी बातचीतों में दावा करते हैं कि सोनिया गाँधी प्रधानमंत्री के चेहरे के तौर पर किसी क्षेत्रीय नेता को आगे कर सकती हैं। नीतीश कुमार की पलटी को भी इससे जोड़कर देखा जा रहा। यह भी कहा जाता है कि ममता बनर्जी के चेहरा बनने के प्रयासों को कॉन्ग्रेस के शीर्ष नेतृत्व का समर्थन नहीं है। यानी, 2024 से पहले विपक्ष एक मंच पर आ भी पाएगा या नहीं, यह फिलहाल तय नहीं है।
हालाँकि यह स्पष्ट है कि विपक्षी गोलबंदी की पूरी योजना में केजरीवाल को चेहरा बनाने का कोई सीन नहीं है। इसके उलट AAP और उसके नेता को विपक्षी गोलबंदी की राह में एक रोड़े की तरह देखा जा रहा है। मनीष सिसोदिया के घर पर छापे के बाद कॉन्ग्रेस का प्रदर्शन इसका ही हिस्सा है। कॉन्ग्रेस के सहयोगी राजद के सांसद मनोज झा ने तो यहाँ तक कह दिया था कि AAP के खिलाफ केंद्रीय एजेंसियों के इस्तेमाल की विपक्षी नेताओं ने निंदा की है। लेकिन एजेंसियों का यही दुरुपयोग जब विपक्ष के अन्य नेताओं के खिलाफ होता है तो आम आदमी पार्टी चुप रहती है।
दावों के पीछे AAP की क्या चाल?
AAP की राजनीतिक हैसियत, संगठन का विस्तार और मजबूती ऐसी नहीं है कि वह राष्ट्रीय स्तर पर 2024 के लिए बीजेपी की किसी ‘छिपी योजना’ का हिस्सा बनने के योग्य हो। फौरी तौर पर आम आदमी पार्टी का यह दावा अपनी सरकार की कारगुजारियों को दबाने और खुद को पीड़ित दिखाने का प्रयास लगता है। साथ ही यह पार्टी के तौर पर विस्तार की AAP की लंबी रणनीति का भी हिस्सा हो सकता है। राष्ट्रीय स्तर पर विपक्ष की सबसे महत्वपूर्ण पार्टी कॉन्ग्रेस की जगह लेकर ही बनी जा सकती है। इसके लिए कॉन्ग्रेस को कमतर, उसके नेता को नकारा बताते रहना जरूरी है। आम आदमी पार्टी दावों के जरिए उसी रास्ते पर चलती दिख रही। यदि वह ऐसा करने में कामयाब रही तो कुछ दशकों के बाद उस स्थिति में हो सकती है, जहाँ उसके होने का अनुमान नलिन मेहता ने लगाया है।