नई दिल्ली। महाराष्ट्र संकट में सुप्रीम कोर्ट ने फ्लोर टेस्ट को लेकर बड़ा फैसला सुना दिया है. कोर्ट ने साफ कर दिया है कि कल ही सुबह 11 बजे फ्लोर टेस्ट होने वाला है. मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे के लिए ये एक बड़ा झटका माना जा रहा है. सीएम ने कहा था कि कोर्ट के फैसले के बाद ही वे आगे की रणनीति बनाने वाले हैं.
कोर्ट सुनवाई की बात करें तो इस पूरे मामले में शिवसेना की तरफ से अभिषेक मनु सिंघवी पक्ष रखा था तो वहीं शिंदे गुट की तरफ से कोर्ट में नीरज किशन कौल ने अपनी दलील रखी. सुनवाई के दौरान अभिषेक मनु सिंघवी ने कहा कि उन्हें आज ही फ्लोर टेस्ट को लेकर जानकारी मिली है. जब तक विधायकों का सत्यापन नहीं हो जाता, फ्लोर टेस्ट नहीं किया जा सकता है.
सुप्रीम कोर्ट के सवाल, सिंघवी के जवाब
लेकिन कोर्ट इस दलील से ज्यादा संतुष्ट नजर नहीं आए. उन्होंने फिर सिंघवी से सवाल पूछा कि अयोग्यता का मामला कोर्ट में लंबित है. जो हम तय करेंगे कि नोटिस वैध है या नहीं? लेकिन इससे फ्लोर टेस्ट कैसे प्रभावित हो रहा है? इस पर सिंघवी बताया कि अयोग्यता को लेकर अगर स्पीकर फैसला लेते हैं और अयोग्य करार देते हैं तो फैसला 21/22 जून से लागू होगा. जब उन्होंने नियमों को तोड़ा है, उस दिन से उन्हें विधानसभा का सदस्य नहीं माना जाएगा.
वहीं सुनवाई के दौरान विधायकों को अयोग्य घोषित करने वाले नोटिस पर भी पर सवाल-जवाब हुए. कोर्ट ने जोर देकर कहा कि वर्तमान स्थिति को देखते हुए दो सिचुएशन दिखाई पड़ती हैं. पहली ये कि स्पीकर ने विधायकों को अयोग्य घोषित कर दिया है और दूसरी ये कि अयोग्य को लेकर नोटिस जारी किया गया है, लेकिन अभी फैसला लंबित है.
राज्यपाल पर सिंघवी ने क्या आरोप लगाए?
सुप्रीम कोर्ट ने यहां तक कहा कि इस पूरे मामले में क्योंकि सिंघवी एक्सपर्ट हैं, ऐसे में सारे कानूनी सवाल भी उन्हीं से पूछे जा रहे हैं. इस पर सिंघवी ने शिवसेना का पक्ष रखते हुए कहा कि राज्यपाल ने सत्र बुलाने से पहले CM या मंत्रिमंडल से सलाह नही ली. जबकि उन्हें पूछना चाहिए था. राज्यपाल मुख्यमंत्री और मंत्रिपरिषद के बजाय फडणवीस के इशारे और सलाह पर काम कर रहे हैं.
सुनवाई के दौरान सिंघवी ने अपने उस बयान को भी दोबारा दोहराया कि कोई सड़क से उठकर फ्लोर टेस्ट में शामिल नहीं हो सकता है. जो सदन का सदस्य नहीं है उसे कैसे वोट डालने की इजाजत दी जा सकती है.
वैसे इस सुनवाई के बीच सुप्रीम कोर्ट ने उन 34 विधायकों की समर्थन वाली चिट्ठी का भी जिक्र किया जो राज्यपाल को दी गई थी. कोर्ट ने पूछा कि क्या वे इस चिट्ठी पर भी सवाल खड़ा करते हैं. इस पर सिंघवी ने साफ कहा कि उस चिट्ठी की विश्वसनीयता को लेकर किसी को कोई जानकारी नहीं है. राज्यपाल ने भी एक हफ्ते तक उस चिट्ठी पर कोई एक्शन नहीं लिया. जब विपक्ष के नेता ने उनसे मुलाकात की, तब जाकर वे एक्शन में आए.
लेकिन इन दलीलों के बावजूद भी कोर्ट की तरफ से लगातार तीखे सवाल दागे गए. पूछा गया कि अगर नोटिस भेज दिए गए, क्या अब राज्यपाल को सिर्फ उन नोटिस पर आने वाली आउटकम का इंतजार करना चाहिए या फिर वे कुछ फैसला ले सकते हैं?
अब कोर्ट के इन सवालों पर सिंघवी के पास सिर्फ कुछ दूसरे सवाल थे. उन्होंने राज्यपाल पर ही सवाल उठाते हुए कहा कि स्पीकर के खिलाफ भी एक नोटिस था. लेकिन उस नोटिस को उन्होंने खारिज कर दिया. तर्क दिया गया कि किसी असत्यापित मेल आइडी से वो नोटिस आया है. अब जरा ये देखिए राज्यपाल सिर्फ दो दिन पहले ही अस्पताल से आए हैं. उनकी तरफ से कुछ भी वेरिफाई नहीं किया गया है. लेकिन उनके अस्पताल से आते ही नेता विपक्ष ने उनसे मुलाकात कर ली.
लेकिन कोर्ट ने सवाल उठाया कि मान लीजिए, एक काल्पनिक स्थिति में, एक सरकार को पता है कि उसने बहुमत खो दिया है, और उसने स्पीकर का इस्तेमाल अयोग्यता नोटिस जारी करने के लिए किया है, राज्यपाल को क्या करना चाहिए? क्या वह अपने विवेक का प्रयोग कर सकता है?
इस पर अभिषेक मनु सिंघवी तर्क रखा कि ये लोग एक असत्यापित ईमेल भेजकर सूरत और फिर गुवाहाटी जाते हैं कि उन्हें स्पीकर पर कोई भरोसा नहीं है. यह नाबिया के फैसले का दुरुपयोग है. 10वीं अनुसूची की शक्ति का प्रयोग करने से अध्यक्ष को रोकने के लिए ये किया गया है. क्या राज्यपाल को सुप्रीम कोर्ट के फैसले का इंतजार नहीं करना चाहिए था. अगर कल फ्लोर टेस्ट नहीं होता तो क्या आसमान गिर जाता?
सिंघवी की दलील पर सुप्रीम कोर्ट ने जोर देकर कहा कि विवाद कोई भी क्यों ना रहे, लेकिन लोकतंत्र में उसका फैसला सिर्फ और सिर्फ सदन में ही होना चाहिए. जो भी फैसले लोकतंत्र से जुड़े हुए हैं, उनका समाधान भी सदन के पटल पर ही निकलना चाहिए.
हरीश रावत सरकार का केस, शिवराज मामला भी उठा
सुनवाई के दौरान अभिषेक मनु सिंघवी की तरफ से कुछ पुरानी राजनीतिक घटनाओं का भी जिक्र किया गया. उन्होंने मध्य प्रदेश की बात की, हरीश रावत मामले पर भी जोर दिया. उन्होंने कहा कि अभी अलग अलग सुप्रीम कोर्ट के फैसले का हवाला दे रहे हैं. शिवराज सिंह केस का हवाला दिया. इस केस में जो विधायक इस्तीफा दिए थे वो नइ सरकार में मंत्री बन गए. मैं जिन फैसलों का हवाला दे रहा हूं, वे फ्लोर टेस्ट के साधारण मामले हैं, न कि ऐसे मामले जहां कोर्ट को पूल वोटिंग पर विचार करना था, या कोई अयोग्य था.
उत्तराखंड का हवाला देते हुए सिंघवी ने कहा कि फ्लोर टेस्ट का निर्देश दिया गया था लेकिन फ्लोर टेस्ट से पहले स्पीकर द्वारा अयोग्यता का निर्णय लिया गया था. फ्लोर टेस्ट से एक दिन पहले राष्ट्रपति शासन लगाया गया था. वहीं शिवराज मामले में इस्तीफे के द्वारा कृत्रिम बहुमत बनाने का काम हुआ.
सिंघवी ने ये भी कहा है कि आप इस्तीफा दें और सरकार गिर जाए. फिर नई सरकार बनती है और आप नई सरकार में मंत्री बनते हैं. फिर आपको 6 महीने के अंदर निर्वाचित होना है.
शिंदे गुट की दलीलों में कितना दम?
अभिषेक मनु सिंघवी के बाद अब शिंगे गुट की दलीलें भी कोर्ट में रखी गईं. जोर देकर कहा गया कि फ्लोर टेस्ट करवाने में अब देरी नहीं होनी चाहिए. ये भी स्पष्ट कहा गया कि अयोग्यता वाले नोटिस की वजह से फ्लोर टेस्ट को नहीं रोका जा सकता है. दलील तो ये भी रखी गई कि पिछले कई मामलों में फ्लोर टेस्ट को प्रीपोंड किया गया है, कभी भी उसे रोकने की बात नहीं हुई है. ऐसे में इस बार भी फ्लोर टेस्ट को नहीं रोका जा सकता है.
नीरज किशन कौल ने अपनी बात रखते हुए ये भी कहा कि अभी एक ऐसी स्थिति बन चुकी है जहां पर सरकार बहुमत खो चुकी है, लेकिन सत्ता में बने रहने की कोशिश की जा रही है. वे मानते हैं कि अब सिर्फ फ्लोर टेस्ट होना चाहिए, अगर नंबर है तो जीत जाएंगे, नहीं हैं तो हार जाएंगे. सुनवाई में कौल की तरफ से हॉर्स ट्रेडिंग का मुद्दा भी उठाया गया है. वे मानकर चल रहे हैं कि अब अगर फ्लोर टेस्ट में देरी होती है तो ये हॉर्स ट्रेडिंग को बढ़ावा देगी.
लेकिन कोर्ट ने उल्टा सवाल दाग दिया कि आप मानते हैं कि राज्यपाल पर कोई पाबंदी नहीं लगाई जा सकती है, वे जब चाहे फ्लोर टेस्ट के लिए कह सकते हैं. लेकिन सवाल तो ये भी उठता है कि उस फ्लोर टेस्ट में कौन-कौन हिस्सा ले सकता है?
इन सवालों के जवाब में कौल की तरफ से कुछ दूसरे सवाल पूछे गए. उन्होंने सत्ता पक्ष से पूछा कि वे आखिर क्यों फ्लोर टेस्ट से भाग रहे हैं? जोर देकर कहा गया कि स्पीकर को हटाने का जो मुद्दा है, वो अलग है. हमे याद रखना चाहिए कि सुप्रीम कोर्ट भी ये मानता है कि जितनी देरी की जाएगी, लोकतंत्र को उतना ही नुकसान पहुंचेगा, ऐसे में फ्लोर टेस्ट से भागने की क्या जरूरत है.
कौल ने राज्यपाल का किया बचाव
कौल ने सिंघवी की उन दलीलों को भी खारिज कर दिया जहां गया कि राज्यपाल अभी अस्पताल से आए और तुरंत देवेंद्र फडणवीस से मिल लिए. इस पर शिंदे गुट का पक्ष रखते हुए कौल ने साफ कहा कि ये कैसा तर्क है कि किसी को कोरोना हुआ था और अब वो वापस आया तो अपना काम नहीं कर सकता. आप क्या चाहते हैं कि एक बीमारी की वजह से राज्यपाल अपनी संवैधानिक जिम्मेदारी भी ना निभाएं?
ये भी तर्क दिया गया कि सरकार को जब लगा वो अल्पमत में आ गई तो डिप्टी स्पीकर का इस्तेमाल करके अयोग्यता का नोटिस भेजना शुरू कर दिया, इस आधार पर फ्लोर टेस्ट कैसे रोका जाए. राज्यपाल को सहायता और सलाह के अनुसार कार्य करना होता है और निर्णय न्यायिक समीक्षा के अधीन होता है. लेकिन राज्यपाल का भी एक संवैधानिक अधिकार है. कोर्ट को उस स्थिति को देखना होगा जिसमें उसने कार्रवाई की है.
उद्धव खेमे में सिर्फ 14 विधायक?
सुनवाई के दौरान कौल ने एक और बड़ा बयान देते हुए ये भी कहा कि इस समय शिंदे गुट के पास इतने विधायकों का समर्थन है कि उन्हें शिवसेना छोड़ने की कोई जरूरत नहीं है, वे खुद ही शिवसेना हैं. दूसरे खेमें में सिर्फ 14 विधायक बचे हैं जो सिर्फ सत्ता में रहने की कोशिश कर रहे हैं.
कौल की दलीलों के बाद कोर्ट में एसजी तुषार मेहता ने भी अपनी बात रखी. उन्होंने सबसे पहले तो यहीं कहा कि कई पिछले आदेशों में सुप्रीम कोर्ट ने 24 घंटे के अंदर फ्लोर टेस्ट करवाने की बात कही है. डिप्टी स्पीकर ने तो फिर भी दो दिन का नोटिस दिया है. बहस इस बात पर हो रही है कि 24 घंटे क्यों?
तुषार मेहता ने राज्यपाल के फ्लोर टेस्ट वाले फैसले का भी बचाव किया है. उनका कहना है कि कई बातों को ध्यान में रखते हुए तुरंत फ्लोर टेस्ट की बात कही गई. राज्यपाल को 38 विधायकों की चिट्ठी मिली थी, उन्हें सुरक्षा चाहिए थी. मीडिया रिपोर्ट्स में भी कई तरह की बातें आ रही थीं. वैसे भी सुप्रीम कोर्ट ने पहले भी कई मामलों में 24 से 48 घंटे के अंदर फ्लोर टेस्ट करवाए हैं. हमे ये समझना चाहिए कि लोकतंत्र की ताकत वहां के सदन में होती है.
तुषार मेहता ने रखा राज्यपाल का पक्ष
सुनवाई के दौरान एसजी ने संजय राउत की चेतावनी वाले बयान का भी जिक्र किया. उन्होंने बताया कि एक वीडियो सामने आया था जहां पर एक नेता कह रहे थे कि विधायकों के शव आएंगे. एक नेता तो ये भी कह चुके हैं कि हिंसा की सिर्फ शुरुआत है. ऐसे में इन बयानों को कोई भी राज्यपाल नजरअंदाज नहीं कर सकते हैं. शिवराज मामले से भी साफ हो चुका है कि जरूरत पड़ने पर राज्यपाल फैसले ले सकते हैं.