बिकेश तिवारी
शिवसेना की पहचान से जुड़े हैं दहाड़ता शेर और प्रखर हिंदुत्व. आज शिवसेना का दहाड़ता शेर खामोश है. जो हिंदुत्व पार्टी की पहचान रहा, उसी हिंदुत्व के मसले पर पार्टी आंतरिक कलह के ऐसे भंवर में फंसी है कि महाराष्ट्र की सत्ता से बेदखल होने की नौबत आ गई है. शिवसेना अध्यक्ष उद्धव ठाकरे के सामने अब मुश्किल केवल सत्ता जाने की नहीं, शिवसेना से कंट्रोल फिसलने की भी आ खड़ी हुई है.
ताजा हालात में उद्धव ठाकरे के सामने केवल हार ही हार नजर आ रही है. विधायकों का समर्थन उनके साथ रहा नहीं. अगर वे बागियों के आगे घुटने टेक दें और महा विकास अघाड़ी से अलग होकर भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) से गठबंधन कर लें तो भी उनकी हार है. बागियों के खिलाफ एक्शन लें तो वे संख्याबल के आधार पर भारी हैं. इससे पार्टी पर कंट्रोल की एक नई जंग शुरू हो सकती है. अगर-मगर के फेर में फंसे उद्धव के सलाहकारों की बुद्धि फेल साबित हो रही है तो वहीं रणनीतिकारों की रणनीति भी फेल.
उद्धव कैंप की ओर से दांव पर दांव चले जा रहे हैं लेकिन गुवाहाटी में डेरा जमाए बागी हैं कि कुछ भी मानने को तैयार नहीं. आक्रामक तेवरों के लिए जानी जाने वाली शिवसेना प्रमुख आज अपनी ही पार्टी के बागियों के सामने बेबस नजर आ रहे हैं. सत्ता के साथ पार्टी पर कंट्रोल भी उद्धव के हाथ से फिसलता दिख रहा है.
ऐसे हालात में शिवसैनिकों और ठाकरे परिवार के वफादारों को राज ठाकरे की कमी खल रही है. दबी जुबान शिवसेना के लोग भी ये कह रहे हैं कि अगर आज राज ठाकरे, अपने भाई उद्धव ठाकरे के साथ होते तो शायद ऐसी नौबत नहीं आती. राजनीति के जानकार भी शिवसेना और ठाकरे परिवार के वफादारों की बात के पक्ष में नजर आ रहे हैं.
शिवसेना में अधिक थी राज ठाकरे की स्वीकार्यता
शिवसेना की छवि फायरब्रांड हिंदुत्व और मराठी मानुष की राजनीति करने वाली पार्टी के रूप में रही है. राज ठाकरे की राजनीतिक शैली, पार्टी की सियासत के अनुकूल थी. राज ठाकरे में शिवसैनिक बाला साहब की सियासी शैली की झलक देखते थे और उन्हें ही सियासी विरासत का वारिस मानने लगे थे लेकिन ऐसा हुआ नहीं. बाला साहब ने पार्टी की कमान उद्धव ठाकरे को सौंप दी.
उद्धव ठाकरे को शिवसेना की कमान मिली तो कुछ नेताओं को राज ठाकरे उनकी सियासी राह का कांटा नजर आने लगे. उद्धव काल की शिवसेना में राज ठाकरे को दरकिनार किया जाने लगा. राजनीति के जानकार इसके पीछे पार्टी में राज ठाकरे की लोकप्रियता को वजह बताते हैं. मुंबई में ही रहने वाले राजनीतिक विश्लेषक अमिताभ तिवारी कहते हैं कि इसके पीछे बड़ी वजह राज ठाकरे के तेवर और पार्टी में उनकी लोकप्रियता थी. बाला साहब ने उद्धव को पार्टी की कमान तो सौंप दी लेकिन पार्टी में एक धड़ा ये मान रहा था कि राज ठाकरे उद्धव के लिए खतरा बन सकते हैं.
वे बताते हैं कि राज ठाकरे का कद कम करने के लिए पार्टी में उन्हें किनारे किया जाने लगा. नतीजा ये हुआ कि राज ठाकरे को 2006 में पार्टी से ही किनारा करना पड़ा और अपना सियासी अस्तित्व, फायरब्रांड छवि बचाए रखने के लिए महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना का गठन करना पड़ा. अमिताभ तिवारी ने कहा कि राजनीतिक दलों को जनाधार वाले नेताओं की उपेक्षा हमेशा ही भारी पड़ी है. राज ठाकरे के पास जनाधार था. उन्हें जमीनी हकीकत पता थी. अगर वे आज उद्धव के साथ होते तो शायद पार्टी से ‘ठाकरे कंट्रोल’ खत्म होने की नौबत नहीं आती.
शिवसेना में पहले भी तीन बार हो चुकी है बगावत
शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे के पार्टी अध्यक्ष बनने और बाला साहब ठाकरे के निधन के बाद ये पहला मौका है जब इस तरह के हालात बने हैं. हालांकि, ये पहला मौका नहीं है जब शिवसेना में बगावत हुई है. इससे पहले भी शिवसेना में तीन मौके ऐसे आए हैं, जब बगावत हुई है. हालांकि, तब बाला साहब ठाकरे थे. उद्धव ठाकरे को शिवसेना अध्यक्ष के रूप में प्रोजेक्ट किए जाने के बाद से ये तीसरी बगावत है.
शिवसेना में बगावतों के अतीत की चर्चा करें तो सबसे पहली बगावत साल 1991 में हुई थी. तब मनोहर जोशी को विधानसभा में विपक्ष का नेता बनाए जाने से नाराज शिवसेना के प्रमुख ओबीसी चेहरा रहे छगन भुजबल ने बगावत की थी. छगन भुजबल ने पार्टी के 18 विधायकों के साथ शिवसेना छोड़ दी थी और तत्कालीन सत्ताधारी कांग्रेस का समर्थन किया था.
छगन भुजबल और बागी विधायकों के गुट को तत्कालीन स्पीकर ने शिवसेना बी नाम से अलग गुट के रूप में मान्यता भी दे दी थी. उद्धव के सियासी सीन में आने के पहले शिवसेना में हुई ये एकमात्र बगावत है. उद्धव ठाकरे के सियासत में एक्टिव होने के बाद शुरुआती दशक में ही दो दफे बगावत हुई थी. साल 2005 में नारायण राणे ने भी बगावत कर दी थी. पार्टी छोड़ने के बाद से लगातार शिवसेना के खिलाफ आक्रामक रहे नारायण बीजेपी से राज्यसभा सांसद और केंद्र की सरकार में मंत्री हैं.