के. विक्रम राव Twitter ID: @Kvikramrao
भारतीय उपमहाद्वीप के गत सदी के राजनैतिक इतिहास में चौधरी चरण सिंह एक विलक्षण शख्सियत रहे। वे मुख्यमंत्री तथा प्रधानमंत्री बने, मगर दल बदल कर। मोरारजी देसाई पहले थे जो राज्य और केन्द्र में शीर्ष पद पर रहे। उन्हें गिराकर चरण सिंह उठे थे। किसान नेता के नाते चौधरी चरण सिंह एकमात्र कांग्रेसी थे जिन्होंने जवाहरलाल नेहरु की खुलेआम भर्त्सना की थी। उस वक्त जब प्रधानमंत्री प्रभुता, व्यक्तित्व और जनसमर्थन में सर्वोच्च थे। एक ही वक्त पार्टी अध्यक्ष और प्रधानमंत्री रहे। नेहरु ने नागपुर में हुये कांग्रेस के 64वें अधिवेशन में सोवियत रुस की मार्क्सवादी प्रयोग वाले सामूहिक कृषि पद्धति का प्रस्ताव रखा। उसे पार्टी पर थोप रहे थे। चरण सिंह के जबरदस्त विरोध से नेहरु सहम गये। नेहरु तब मिल मालिकों के पक्षधर थे। भारी उद्योग के पक्ष में कृषि को दोयम दर्ज में रखा।
चरण सिंह के विरोध से प्रधानमंत्री ने अपना प्रस्ताव लौटा लिया गया। चम्पारण के बाद किसानों की यह पहली विजय थी। वह ब्रिटिश राज के प्रतिरोध में थी। नागपुर में यह तानाशाही की मुखालफत में थी। अमूमन पार्टीजन अध्यक्ष के प्रस्ताव के विरोध में मौन रहते हैं, गूंगे बन जाते हैं। मगर चरण सिंह ही थे जिन्होंने उत्तर प्रदेश में आजादी के तुरंत बाद जमीन्दारों को जोरशोर से समाप्त कर दिया था। इन अंग्रेजी साम्राज्यवादी के समर्थक भूस्वामियों की रफी अहमद किदवई ने भाड़े पर चलने वाले इक्का—तांगावालों से समता की थी। जो साम्राज्य के लिये गरीब कृषकों से वसूली करते थे।
नेहरु के इस घोर किसान आलोचक ने उनकी पुत्री के बारे में कहा था : ”मैं राजनीति छोड़ दूंगा, यदि इन्दिरा गांधी जौ और बाजरे में अंतर बता सकें।” इन्हीं प्रधानमंत्री के द्वितीय उत्तराधिकारी (संजय गांधी) ने किसानों से अपील की थी कि अधिक से अधिक शक्कर अपने खेतों में उगाइये (लखनऊ के कार्लटन होटल की सभा में 1980 में ।)। तब कांग्रेस सदस्यों को उन्होंने ”पार्टी के कर्मचारीगण” कह कर संबोधित किया था।
चरण सिंह का यादगार सियासी वाकया था कि वे दल बदल कर 1967 में यूपी के मुख्यमंत्री बने थे। हालांकि उनकी सरकार शीघ्र ही काल कवलित हो गयी। अपदस्थ कांग्रेसी मुख्यमंत्री चन्द्रभानु गुप्त ने अपने संस्मरण ”सफर कही रुका नहीं, झुका नहीं” (सारांश प्रकाशन, दिल्ली) पृष्ठ—211, में लिखा : ”चरण सिंह ने यद्यपि दलबदल करके मेरी सरकार को गिरा दिया था, तथापि उससे एक फायदा हुआ। राज्य की जनता को पहली बार अनुभव हो गया कि खिचड़ी पार्टियों का शासन कैसा होता है। ये पार्टियां हमेशा कांग्रेस की आलोचना किया करती थीं और लंबे—चौड़े वायदे किया करती थीं कि यदि उन्हें सत्ता मिल गयी तो वे जनता के लिये यह करेंगी, वह करेंगी। संविद (संयुक्त विधायक दल) बनने पर उन्होंने 21—सूत्री कार्यक्रम तैयार किया। संविद नेताओं की लंबी चौड़ी बातों से जनता को ऐसा प्रतीत होने लगा कि जैसे अब रामराज्य आने ही वाला है। परन्तु संविद सरकार बनने के कुछ महीने बाद ही संविद में सम्मिलित विविध पार्टियों के अंदरुनी मतभेद प्रकट होने लगे। मंत्रियों को घेरे रहने वाले चमचों ने उनका काम करना दुश्वार कर दिया।”
गुप्ताजी की काबीना को अपने 17 दलबदलू विधायकों के साथ चरण सिंह ने उखाड़ा था। मगर दूसरी बार (लोकसभा में, 1979) उनका दलबदल अत्यंत अपमानजनक तथा निन्दनीय रहा। जनता पार्टी सरकार को अल्पमत में लाकर चौधरी चरण सिंह को इन्दिरा—कांग्रेस ने प्रधानमंत्री पद का झुनझुना दिखाया। केवल 23 दिनों के लिये सर्वोच्च पद पर बिठाया। इन्दिरा गांधी का समर्थन वाला प्रहसन बड़ा फूहड़ तथा कुत्सित रहा। उन्होंने सर्वप्रथम राष्ट्रपति को चरण सिंह के समर्थनवाला पत्र दिया। फिर दूसरे दिन ही निरस्त कर दिया। कारण लोग बताते है कि नवनामित प्रधानमंत्री चरण सिंह शपथ ग्रहण के बाद राष्ट्रपति भवन से लौटते समय विंडसर प्लेस पर इन्दिरा गांधी के हाथों माला पहनेंगे। मगर चरण सिंह बिना रुके सीधे चले गये। उनके काफिले को इंदिरा गांधी बस निहारती रहीं। और माला उनके हाथों में ही पड़ी रही। फूल कुम्हला गये। बिना समय खोये इन्दिरा गांधी ने राष्ट्रपति नीलम संजीव रेड्डि को लिखकर चरण सिंह को भूतपूर्व बना डाला। चरण सिंह प्रधानमंत्री की कुर्सी पर एक क्षण के लिये भी आसीन नहीं हो पाये। तब डा. धर्मवीर भारती के साप्ताहिक ”धर्मयुग” में गोलार्ध्दवाला संसद भवन और चरण सिंह का चित्र साथ छपा। शीर्षक था : ”बिन फेरे, हम तेरे।”
प्रधानमंत्री पद की शपथ लेते ही चरण सिंह ने पत्रकारों को बताया कि ”मेरे जीवन की परम आकांक्षा पूरी हो गयी।” वे मीडिया से नाराज हो जाते थे जब छपता था ”कार्यवाहक”। वे टोकते थे कि संविधान में कार्यवाहक उपसर्ग नहीं है। अत: वे पूर्ण कालिक प्रधानमंत्री हैं। जबकि संसद का विश्वास नहीं हासिल कर पाये थे।
मिलता—जुलता माजरा था जो राजीव गांधी ने ठाकुर चन्द्रशेखर सिंह के साथ किया था। हरियाणा के दरोगा द्वारा दस जनपथ की जासूसी के आरोप में मां की भांति पुत्र ने भी समर्थन वापस ले लिया। चन्द्रशेखर और उपप्रधानमंत्री देवीलाल अपने घर चले आये। चौधरी देवीलाल चौधरी चरण सिंह के अनुयायी रहे। दल बदल द्वारा केन्द्र सरकार के हास्यास्पद हालत के कारण चरण सिंह और ठाकुर चन्द्रशेखर ने प्रधानमंत्री के गरिमामय पद का अवमूल्यन करा दिया।
यूं तो राजघाट पर प्रधानमंत्री का ही शवदहन होता रहा। चौधरी चरण सिंह की भी वहीं किसान घाट पर अत्योष्टि की गयी। हालांकि चरण सिंह महीना भर भी पद पर नहीं रहें। बदतर तो था संजय गांधी का था, जो मात्र सांसद थे। वह व्यक्ति जो प्रधानमंत्री पद पर पांच वर्ष लगातार रहा, पीवी नरसिम्हा राव, उनके शव को कांग्रेस कार्यालय के बाहर फुटपाथ पर रखा गया था, फिर हैदराबाद ले जाया गया और मिट्टी के तेल से दहन किया गया। सोनिया गांधी का द्वेषपूर्ण आदेश था।
चरण सिंह के परिवार से मेरे आत्मीय संबंध थे। उनकी पुत्री सरोज सिंह मेरी सहपाठिनी थी। अंग्रेजी साहित्य का अध्ययन लखनऊ में बीए (प्रथमवर्ष) में हम दोनों साथ थे। प्रो. (सुश्री) देवकी पाण्डे के टुटोरियल क्लास में थे। दुखद बात थी कि अपने राज भवन कालोनी के आवास में सरोज ने आत्महत्या कर ली थी। कारण अनजाना था।