सर्वेश कुमार तिवारी
कल परसो हमारे यहाँ की लड़कियों ने पीड़िया बहाई थी। पन्द्रह बीस दिन पहले मिथिलांचल की बेटियों ने शामा-चकेवा खेला था, इसी बीच में अवधियों की बेटियां करमा-धर्मा मनाई थीं।
ये सब चिड़ियों के घर आने के पर्व हैं। अब आप चिड़िया का अर्थ पक्षियों से लगाएं या बेटियों से, बात नहीं बदलेगी। पीड़िया, शामा-चकेवा या करमा-धरमा वे पर्व हैं जिनके बहाने बेटियां अपने नइहर लौटती थीं, और उन्ही दिनों गाँवों में उतरते थे दस हजार किलोमीटर दूर से आये साइबेरियन पक्षी। आंगन की चिरइयाँ पोखरे के घाट पर खड़ी हो आकाश की चिरइयों को ताली पीट पीट कर बुलातीं, गीत गा गा कर… उतरो साइबेरियन क्रौंच, धोबिन, खिड़लीच… आओ आओ, यह भारत भूमि तुम्हारी भी नइहर है।
गाँवों की रीति के अनुसार पहले गर्भवती स्त्रियाँ अपने बच्चों के जन्म के समय नइहर चली जाती थीं। प्रसव की पीड़ा और मां होने के उल्लास को बांटने के लिए माँ से अच्छी साथी कौन होगी भला! सो बेटियां माँ के पास भाग आती थीं… साइबेरियन पक्षी भी हमारे यहाँ अपने बच्चों को जन्म देने ही आती हैं। मां के गाँव! नइहर… जम्बूद्वीपे, भरतखण्डे, आर्यावर्ते… जगतजननी है न यह धरा!
जिस क्रौंच जोड़े को वाण लगने के कारण दुखी हो कर आदिकवि महर्षि वाल्मीकि ने सृष्टि का प्रथम श्लोक रचा, वे साइबेरियन क्रेन हैं। मतलब आदिकवि के युग से भी पहले से वे भारत आते हैं। हिमालय के ऊँचे क्षेत्रों में तपस्या करते प्राचीन ऋषियों ने अनुभव किया कि शरद ऋतु आते ही हिमालय के उसपार से झुंड के झुंड पक्षी भारत भूमि पर उतरने लगते हैं। उन्होंने नियम बनाया कि कोई इन सम्मानित अतिथियों को हानि नहीं पहुँचायेगा। तभी जब एक बहेलिए के तीर से क्रौंच की मृत्यु हुई तो उस अतिसाहिष्णु ऋषि के मुख से भी अनायास ही शाप निकल गया- मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः ! इस निरीह प्राणी की हत्या करने वाले निषाद! तुम्हे कभी प्रतिष्ठा नहीं मिले…
आप सोच कर देखिये, इस देश की माटी पर कितना भरोसा होगा उन मासूम प्राणियों को। यूँ ही कोई प्रसव के लिए हजारों कोस दूर उड़ कर जाता है क्या? और इन पक्षियों के हृदय में यह भरोसा भरने के लिए कितनी साधना की होगी इस मिट्टी के लोगों ने… अपने बच्चों की तरह लोरी गा गा कर खेलाया होगा। पीड़िया, शामा-चकेवा के गीत वही अम्मा की लोरी है।
आजकल अखबारों में पढ़ता हूँ, साइबेरियन पक्षियों की आमद कम होने लगी है। मतलब साफ है, युगों युगों का भरोसा टूट रहा है। ऋषियों का देश अब धीरे धीरे बहेलियों का देश हो गया है, भरोसा तो टूटेगा न! चिड़िया ही नहीं, बेटियां भी अब बहेलियों से डरने लगी हैं।
मैं हमेशा मानता हूँ, धर्म व्यक्ति का नहीं मिट्टी का होता है, देश का होता है। मनुष्य यदि अपनी मिट्टी के धर्म को छोड़ कर दूसरा धर्म अपना ले, तो समूची प्रकृत उसका तिरस्कार करने लगती है। कौन समझता है? किसे समझाऊं… छोड़िये! समय स्वयं समझायेगा, मैं कौन…