प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने शुक्रवार (19 नवंबर, 2021) को सुबह 9 बजे ऐलान किया कि केंद्र सरकार तीनों कृषि कानूनों को वापस लेगी। उन्होंने कहा कि इन्हें किसानों के फायदे के लिए लाया गया था, लेकिन एक समूह को ये समझाने में हम सफल नहीं रहे। सत्ता के गलियारों में रहे लोगों के लिए ये निर्णय चकित करने वाला रहा, क्योंकि इतनी जल्दी इस तरह के फैसले की किसी को उम्मीद नहीं थी। पिछले एक वर्षों से तीनों कृषि कानूनों के विरोध में ‘किसान आंदोलन’ चल रहा है। ये कई बार हिंसक हुआ। 26 जनवरी, 2021 को लाल किला सहित दिल्ली के कई इलाकों में हुई हिंसा को कौन भूल सकता है।
कई लोगों को ऐसा लगता है कि मोदी सरकार हिंसा और भीड़तंत्र के सहारे सत्ता को अपनी हनक दिखाने वालों के समक्ष झुक गई है। कई महीनों से तीनों कृषि कानूनों के इर्दगिर्द प्रोपेगंडा का झाल बुना जा रहा था।
इसी तरह 26 जनवरी को किसान प्रदर्शनकारियों की भीड़ ट्रैक्टर लेकर दिल्ली में घुस गई। लाल किला पर उन्होंने सिख झंडा गाड़ दिया और सार्वजनिक संपत्तियों को जम कर नुकसान पहुँचाया गया। लगभग 300 पुलिसकर्मी घायल हुए। करोड़ों रुपयों का नुक़सान हुआ। हालाँकि, उस समय सरकारी प्रतिक्रियाहीन रही। हालाँकि, कुछ किसान नेता हिंसा के आरोप में गिरफ्तार ज़रूर हुए लेकिन शायद ही दंगाई भीड़ के खिलाफ बल प्रयोग किया गया। राकेश टिकैत और योगेंद्र यादव जैसे इस पूरे आंदोलन के मास्टरमाइंड्स तो खुला घूमते रहे।
एक वर्ष तक चले ‘किसान आंदोलन और इस दौरान हुई ‘हिंसा में कई आम नागरिकों को भी शिकार बनाया गया। आंदोलन स्थल व उसके आपसास के गाँवों से कई महिलाएँ गायब हैं। लखबीर सिंह की हत्या कर दी गई। एक बंगाली महिला का बलात्कार हुआ। मुकेश नाम के एक व्यक्ति को ज़िंदा जला दिया गया। ऐसी कई घटनाएँ हुईं। तीनों कृषि कानून वापस ले लिए जाने के बावजूद राकेश टिकैत ये कह रहे हैं कि आंदोलन तत्काल वापस नहीं लिया जाएगा।
स्पष्ट है कि मोदी समर्थक भी मान रहे हैं कि केंद्र सरकार सड़क पर उतर कर भीड़ और हिंसा के सहारे अपनी बात मनवाने की कोशिश करने वालों के सामने झुक गई है। एक ऐसी भीड़, जिसका हिस्सा खालिस्तानी अलगाववादी भी थे। कानूनों को संसद में बनाया जाता है और उन्हें वापस लिए जाने का फैसला भी संसद में ही होना चाहिए। जनता को सम्बोधन में कानून को वापस लेना और इसके लिए प्रदर्शन को वजह बताना ज़रूर सड़क पर हिंसा करने वाले इन आंदोलनकारियों को और मजबूत ही करता है।
इसके बाद अब जो भी कानून पास किए जाएँगे, उसके विरुद्ध हंगामा खड़ा किया जाएगा। जो देश में किसी न किसी बहाने अराजकता का माहौल बनाए रखना चाहते हैं, वो उस कानूनके विरुद्ध दुष्प्रचार करेंगे और सरकार पर हिंसक भीड़ के जरिए दबाव बनाएँगे। हिंसक भीड़ को उकसाएँगे और अपनी बात मनवाएँगे। इससे सरकार का मुखिया जनता की नजर में कमजोर दिखेगा। सत्ता के गलियारों में मौजूद लोगों की तरफ से भी अलग-अलग प्रतिक्रियाएँ सामने आई हैं। उनके लिए भी ये शॉकिंग ही है।
सत्ता के गलियारों से: लोगों ने मोदी सरकार के इस फैसले के बारे में क्या बताया
हमने सत्ता के गलियारों में मौजूद लोगों और नीति निर्धारण करने वालों में से कइयों से संपर्क किया और इस निर्णय के पीछे की वजह जानने की कोशिश की। कई नेताओं ने इस मामले पर टिप्पणी करने से ही इनकार कर दिया। उनका कहना था कि प्रधानमंत्री ने ऐलान किया है और साथ ही कारण भी गिनाए हैं, ऐसे में हमें उसी पर ध्यान देना चाहिए। हालाँकि, कुछ लोग ऑफ द रिकॉर्ड बोलने पर तैयार हुए, लेकिन ज्यादा डिटेल में नहीं गए। उनमें से एक नेता ने बताया कि देश की सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ये निर्णय लिया है।
उक्त नेता ने बताया, “जब इस बिल को पास किया था तब और अब की स्थिति में जमीन-आसमान का अंतर है। अगर आपने ध्यान दिया होगा तो पीएम मोदी ने स्पष्ट कहा है कि किसानों के फायदे के लिए इन कृषि कानूनों को लाया गया था, लेकिन देश की सुरक्षा के लिए इसे वापस लिया जा रहा है। ये कदम पीछे खींचना ही कहा जाएगा और कोई इससे इनकार नहीं कर सकता। मैं ये समझ सकता हूँ कि सरकार को लोग किस नजर से देख रहे हैं। ऐसा नजर आ रहा है कि हम हिंसक देशद्रोहियों के समक्ष झुक गए हैं। लेकिन, इन कानूनों को लेकर फैलाया गया प्रोपेगंडा कुछ ज्यादा ही मजबूत था और इससे देश की सुरक्षा को खतरा था। केंद्र सरकार ने इन्हें वापस लेकर देश की आंतरिक सुरक्षा को चुना है। शांति को चुना है। दो खराब स्थितियों के बीच निर्णय लेना था – कानून वापस लेकर खालिस्तानी ताकतों को कमजोर करना, या फिर कानूनों को वापस लेकर कमजोर दिखना। सरकार ने कदम वापस लेना उचित समझा, ताकि अलगाववादी ताकतें इसके सहारे खुद को पुनर्जीवित न कर सकें।”
चर्चा को एक रोचक मोड़ देते हुए उक्त नेता ने बताया, “एक तरफ सीमा पर चीन खड़ा है, जो कई बार स्थितियों को गंभीर बना देता है। तालिबान ने अफगानिस्तान पर शासन शुरू कर दिया है। पाकिस्तान में जिहादी हावी हो रहे हैं। एक अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य है, जिसे हम नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते। ढाई मोर्चों पर युद्ध की स्थिति से निपटने से अच्छा है कमजोर दिखना।” एक अन्य नेता ने बताया कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सुधारवादी नीतियों पर आगे बढ़ते रहेंगे। उन्होंने राष्ट्रहित के लिए पार्टी से ऊपर रखने का फैसला लिया है। उक्त नेता ने कहा कि ये एक अनिवार्य निर्णय था, भले ही वांछित नहीं हो।
पंजाब से आवाज़: वहाँ के स्थानीय भाजपा कार्यकर्ताओं और नेताओं का क्या कहना है
जहाँ सत्ता के गलियारों में इसे शांति बनाए रखने और राष्ट्रीय सुरक्षा के हित में लिया गया फैसला बताया, वहीं पंजाब से भी कई तरह की प्रतिक्रियाएँ आईं। 27 मार्च को अबोहर के भाजपा विधायक अरुण नारंग पर हमला कर के उनके साथ मारपीट की गई थी। उनके कपड़े फाड़ डाले गए थे। मुक्तसर के मलौत में हुई इस घटना का वीडियोज सोशल मीडिया पर भी वायरल हुए थे। वहाँ मौजूद पुलिसकर्मियों और भाजपा कार्यकर्ताओं ने उन्हें किसी तरह बचाया।
नारंग ने इस निर्णय का स्वागत किया। उन्होंने कहा कि इस कानून से सिख और हिन्दू समाज के बीच एक विभाजन हो गया था, जो अब ख़त्म हो जाएगा। उनका कहना है कि इससे राष्ट्र की सुरक्षा पर भी अच्छा असर पड़ेगा। उन्होंने कहा कि एक कमिटी बना कर आगे का निर्णय लिया जाएगा और हमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर विश्वास करना चाहिए। क्या इस निर्णय से हिंसक और अलगाववादी ताकतों को बल मिलेगा? इस सवाल के जवाब में अरुण नारंग ने कहा कि भाजपा सरकार इतनी दंभी नहीं है कि लोगों की आवाज़ न सुने। उन्होंने कहा कि लोकतंत्र में जनता ही सब कुछ है और लोगों की माँग पर सरकार को विचार-विमर्श करते रहना चाहिए। उन्होंने कहा कि मोदी सरकार ने साबित कर दिया है कि ये जनता की आवाज़ पर चलने वाली सरकार है और आम लोगों की आवाज़ सुनती है। उन्होंने अराजकता फैलाने में कॉन्ग्रेस का हाथ बताते हुए उसके लिए इस निर्णय को झटका बताया।
हालाँकि, भाजपा के राज्य सेक्रेटरी सुखबीर सिंह शरण ने इन कानूनों को वापस लिए जाने पर दुःख जताया। उन्होंने कहा कि अगर वापस ही लेना था तो इन कानूनों को पास ही नहीं किया जाना चाहिए था। उन्होंने कहा कि जल्दबाजी में इसे लाया गया और जल्दबाजी में ही वापस भी लिया जा रहा है। उन्होंने कहा कि मजबूत प्रधानमंत्री के नेतृत्व वाले एक मजबूत लोकतंत्र में इस तरह की चीजें नहीं होनी चाहिए। उन्होंने कहा कि ये उन भाजपा कार्यकर्ताओं का अपमान है, जिन्होंने इन हिंसक तत्वों का दंश झेला।
इस सवाल पर कि क्या मोदी सरकार इन कृषि कानूनों को वापस लाएगी, सुखबीर शरण ने कहा कि इसे लेकर वो आशान्वित नहीं हैं। उन्होंने कहा कि उन्हें उम्मीद नहीं है कि किसानों के हित में आगे कोई कदम उठाए जाएँगे। उन्होंने पूछा कि अगर नरेंद्र मोदी नहीं करेंगे तो कौन करेगा, क्योंकि किसी और के पाद इच्छाशक्ति ही नहीं है। उन्होंने कहा कि हमें नरेंद्र मोदी से ज्यादा ईमानदार प्रधानमंत्री नहीं मिलेगा, क्योंकि अगर वो नहीं कर सकते हैं तो कोई नहीं कर सकता।
उन्होंने अपने पूरे बयान को प्रकाशित करने की सलाह देते हुए कहा कि वो पार्टी नहीं, बल्कि देश के लिए चिंतित हैं। उन्होंने इसे कैप्टेन अमरिंदर सिंह की जीत और भाजपा के पंजाब यूनिट की हार बताया। उन्होंने कहा, “मैं पार्टी से ज्यादा इस पार्टी के कार्यकर्ताओं को लेकर चिंतित हूँ। आज पंजाब में स्थिति ये है कि भाजपा नेताओं की बेटियों तक को बहिष्कृत किया जा रहा है। कोई भाजपा नेताइन/कार्यकर्ताओं बेटियों के साथ शादी नहीं करना चाहता। कानून को लाने या हटाने से पहले पीएम मोदी को पहले कार्यकर्ताओं से विचार-विमर्श करना चाहिए था। अगर पार्टी के कार्यकर्ता उसके साथ हैं तो कोई चिंता की बात नहीं होती है। लेकिन, आज पार्टी के नेता अपने कार्यकर्ताओं के साथ नहीं हैं।”
ख़ुफ़िया एजेंसियाँ: खालिस्तान का पुनर्जीवित होना और सिख युवकों को कट्टरवादी बनाने की साजिश
जहाँ पंजाब के नेताओं ने इस फैसले पर अलग-अलग बयान दिए, ख़ुफ़िया एजेंसियों से जुड़े लोगों का मानना है कि ये सर्वश्रेष्ठ तो नहीं लेनी ज़रूरी निर्णय हो गया था। इनपुट्स थे कि खालिस्तानी तत्व फिर से सक्रिय हो गए हैं, इसीलिए इससे बचने के लिए ऐसा किया गया।
ख़ुफ़िया एजेंसी से जुड़े रहे एक अधिकारी ने बताया कि खालिस्तानी और ISI मिल कर इस मुद्दे को हवा दे रहे थे, ताकि भारत में आतंरिक अराजकता फैलाई जा सके। स्थिति हाथ से बाहर निकलती जा रही थी, क्योंकि पंजाब में युवकों को कट्टरवादी बनाया जा रहा था और उनके मन में इन कानूनों को लेकर दुष्प्रचार कर के गलत सूचनाएँ भरी जा रही थीं।
उक्त अधिकारी ने बताया, “खालिस्तानी भिंडरवाला का पिता भी एक किसान थे। उनका नाम जोगिन्दर सिंह बरार था, जो एक स्थानीय सिख नेता थे। खालिस्तानी आंदोलन और खुद भिंडरवाला भी तब किसान आंदोलन के सहारे ही आगे बढ़ा था। इसी तरह की चीजों का इस्तेमाल कर के सिख युवकों को बहकाया जा रहा था। SFJ का पन्नू और ISI खालिस्तानी आंदोलन को पुनर्जीवित करने में लगा हुआ था। ये एक कठिन निर्णय था, लेकिन इसका लिया जाना ज़रूरी था। हम पहले से ही स्थानीय जिहादी तत्वों और स्लीपर सेल्स से जूझ रहे हैं। अब हमें भटके हुए सिख युवक और खालिस्तानी ताकतें नहीं चाहिए।
क्या कहना है सिख कार्यकर्ताओं का
एक प्रमुख सिख कार्यकर्ता रमणिक सिंह मान ने कहा कि किसान नेताओं को भले ही ये अपनी जीत लग रही हो लेकिन ये देश के किसानों का नुकसान हैं। ये बदलाव किसानों के लिए दशकों बाद आए थे। उन्होंने कहा, “हमने 1991 के बाद देश में औद्योगिक क्रांति देखी। सारा आभार पीवी नरसिम्हा राव को। हम कृषि सुधारों में 30 साल की देरी कर रहे हैं। हमारे पास उसे सुधारने का अच्छा मौका था। मेरा कहना है कि आखिर हमें, किसानों के तौर पर इससे क्या मिला? पूरा आंदोलन, दिल्ली की सीमाओं पर चलता ड्रामा, किसानों को इससे क्या मिला?
मान ने कहा कि कृषि कानून वापिस होने पर उनकी मिश्रित भावनाएँ हैं। एक ओर जहाँ उन्हें लग रहा है कि किसान हार गए हैं। उनका मानना है कि कई राष्ट्र विरोधी ताकतों ने उस प्रदर्शन में घुसपैठ की थी जो कि किसान आंदोलन था। इन्हें कम करने की जरूरत थी। कैप्टन अमरिंदर सिंह ने इस मुद्दे को उठाया था और प्रधानमंत्री, गृहमंत्री और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार से मुलाकात की थी। इसके बाद NSA खुद वापस जाकर गृहमंत्री से मिले थे। बाद में बीएसएफ के अधिकार क्षेत्र को बढ़ाया गया। ये सारी चींजे उस दिशा की ओर इशारा कर रही थीं जहाँ इन किसान आंदलोनों में घुसपैठ करने वाले लोगों का मुख्य एजेंडा देश को अस्थिर करने का था। पन्नू और धालीवाल जैसे लोगों ने खालिस्तान और भारत को खंडित करने पर (BALkanisation) बात करना शुरू कर दिया था। ये सब लोगों को न केवल पीएम के विरुद्ध भड़का रहे थे बल्कि भारत को लेकर भी यही कर रहे थे। राकेश टिकैत ने कहा- ‘बिल वापिसी नहीं तो घर वापिसी नहीं।’ अब जब कानून वापिस हो गए हैं तो उन्हें घर जाना चाहिए।
मान ने आगे कहा कि हालाँकि उन्हें लगता है कि प्रदर्शनकारियों को अब लौटना चाहिए, लेकिन उन्हें ये भी लगता है कि टिकैत जरूर आंदोलन जारी रखने के लिए आगे कोई न कोई रास्ता खोजेगा। वह कहते हैं 7 दिसंबर वह तारीख है जब सुप्रीम कोर्ट इन किसानों द्वारा सीमाओं पर किए गए कब्जे मामले की सुनवाई करेगा। यह लगभग उसी समय होगी जब पंजाब में आदर्श आचार संहिता भी लागू होनी है। यह देखना बिलकुल दिलचस्प नहीं होगा कि सुप्रीम कोर्ट इस पर क्या प्रतिक्रिया देता है। यही सुप्रीम कोर्ट है जिन्होंने किसान संगठनों की तरफदारी करते हुए उन्हें बॉर्डर पर बैठने की और दिल्ली को कब्जा लेने की इजाजत दी थी। अब देखते हैं कि सुप्रीम कोर्ट क्या बोलेगा। मगर अब भी यदि किसानों ने अपना आंदोलन जारी रखा, वह लोग अपनी विश्वसनीयता खो देंगे।
जब उनसे पूछा गया कि उन्हें लगता है कि यह कदम सड़कों पर एकत्रित हुए लोगों (स्ट्रीट पॉवर) के सामने आत्मसमर्पण है तो मान ने कहा कि उनके मन में इस बात को लेकर संदेह नहीं था कि यह कदम वापस लिया ही जाएगा। वह बोले, “पीएम मोदी ने अपने संबोधन में उन कार्यों पर बात की जिसे उन्होंने कृषि सेक्टर के लिए अपने कार्यकाल में किया। उन्होंने कानूनों का एक नया सेट तैयार करने के लिए वैज्ञानिकों, किसानों आदि के साथ एक समिति के गठन के बारे में भी स्पष्ट रूप से बात की। उन्होंने देश से माफी माँगी है कि वह इन कानूनों के फायदों के बारे में किसानों के एक निश्चित वर्ग को समझाने में सक्षम नहीं हो पाए। उन्होंने यह नहीं कहा कि कृषि कानूनों में कुछ भी गलत है। लेकिन मुझे लगता है कि सुधार जारी रहेगा जिसकी बहुत आवश्यकता है।”
कुल मिलाकर, कानूनों को निरस्त किए जाने पर एक निराशा जैसी है। लेकिन बोर्ड भर में प्रतिक्रिया मिश्रित है। जहाँ लोग ये जान रहे हैं कि आखिर कानून वापस क्यों लिए गए। वहीं ये भी पता चल रहा है कि ये सर्वश्रेष्ठ निर्णय नहीं था जो लिया गया। हालाँकि ये आवश्यक था। इस तथ्य की भी स्वीकृति है कि इसे हिंसक ताकतों के लिए एक कदम के रूप में देखा जा सकता है जो सरकार को घेरना चाहते थे। यह खालिस्तान और आईएसआई के सामने देश की आंतरिक स्थिरता सुनिश्चित करने के लिए एक कदम था जो इस किसान आंदोलन और कृषि कानून पर फैलाए प्रोपगेंडा का प्रयोग करके खालिस्तानी मूवमेंट को पुनर्जीवित करना चाहते थे।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जिन तीन कृषि कानूनों के रद्द करने की घोषणा की, ये कृषि कानून क्या थे?
पिछले कई दशकों से कृषि क्षेत्र में किसानों के लिए अपने कृषि उत्पादों के लिए अच्छा बाजार और उचित मूल्य पाना सबसे बड़ी चुनौती रही है। इस समस्या के समाधान के लिए विभिन्न राज्य सरकारों ने समस्य-समय पर अपने राज्य में एग्रीकल्चरल प्रोडूस मार्केट रेगुलेशन एक्ट पास किया जिसने इन राज्य सरकारों को अपने राज्य में कृषि उत्पादों की थोक बिक्री के लिए नियम और कानून बनाने का अधिकार मिला। इन थोक मंडियों की स्थापना के पीछे यह सोच थी कि किसानों को उनके उत्पादों का समुचित मूल्य मिले परन्तु गुजरते समय के साथ ये थोक मंडियां भ्रष्टाचार और अयोग्यता की शिकार हो गईं। ऊपर से इन मंडियों का स्वरुप ऐसा था कि समय के साथ इनमें समूहों और दलालों का प्रभाव लगातार बढ़ता गया और ये मंडियां जिन उद्देश्य के लिए बनी थीं उससे भटकती रहीं जिसका परिणाम मंडियों में घोर अक्षमता और भ्रष्टाचार के रूप में सामने आया।
इस समय से निपटने के लिए मोदी सरकार ने कृषि उत्पादों के विपणन को सरल बनाने के लिए और किसानों को उनके उत्पादों का समुचित मूल्य दिलाने के उद्देश्य से संसद में तीन कानून प्रस्तुत किये। सरकार का उद्देश्य था कि ए पी एम सी एक्ट के तहत पहले से स्थापित थोक मंडियों के अलावा कृषि उत्पादों के विपणन के लिए एक ऐसा मूल ढांचा बनाया जाए जो किसानों के लिए न केवल उनके उत्पादों की बिक्री का उचित मूल्य दिलाये बल्कि इस उद्देश्य के लिए कृषि उत्पादों के व्यापार में एक तरह की नई प्रतिस्पर्धा विकसित कर सके। ये तीन कानून थे; द फार्मिंग प्रोडूस ट्रेड एंड कॉमर्स (प्रमोशन एंड फैसिलिटेशन) बिल, 2020: कृषक उपज व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सरलीकरण) अधिनियम -2020
इस कानून का उद्देश्य राज्य द्वारा स्थापित और परिचालित एपीएमसी की थोक मंडियों के अलावा एक ऐसा बाजार बनाने का था जिसमें किसानों को उनके उत्पादों का न केवल उचित मूल्य मिले बल्कि उत्पादों के व्यापार में एक प्रतिस्पर्धा हो और साथ ही किसानों को अपने उत्पादों की बिक्री के लिए एक अतिरिक्त विकल्प भी मिले।
द फार्मर (एम्पावरमेंट एंड प्रोटेक्शन) एग्रीमेंट ऑन प्राइस अश्योरेंस एंड फार्म सर्विस बिल, 2020: कृषक (सशक्तिकरण व संरक्षण) कीमत आश्वासन और कृषि सेवा पर करार अधिनियम 2020
इस कानून के पीछे सरकार का उद्देश्य एक ऐसा ढांचा खड़ा करने का था जिसके तहत किसानों और उनके उत्पादों के खरीदार के बीच कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग सम्बंधित समझौते की शर्तें और उनका समुचित क्रियान्वन होता। द एसेंशियल कमोडिटीज (अमेंडमेंट) बिल, 2020 : आवश्यक वस्तु संशोधन अधिनियम 2020. इस कानून के पीछे का उद्देश्य कुछ निश्चित कृषि उत्पादों की आपूर्ति और विशेष समय और परिस्थितियों में उनके व्यापार संबंधी नियंत्रण को तय करना था। ज्ञात को कि सरकार द्वारा लाये और संसद में पास किये गए ये तीन कृषि कानून थे जिनका उद्देश्य किसानों के कृषि उत्पादों के लिए पहले से चल रहे एपीएमसी मंडियों के अलावा एक बाजार स्थापित कर किसानों को विकल्प देने का था और साथ ही अपने उत्पादों के संभावित खरीदारों के साथ सीधे तौर पर कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग सम्बंधित समझौते करना था। इन कृषि कानूनों का उद्देश्य किसी भी तरह से पहले से चल रही थोक मंडियों को हटाना नहीं था। सरकार किसानों को केवल यह विकल्प देना चाहती थी कि यदि किसान किन्हीं कारणों से चाहें तो अपने उत्पाद पहले से स्थापित और चलाई जा रही थोक मंडियों के बाहर भी बेंच सकें।