शिव मिश्रा
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (JNU) ने इंजीनियरिंग के उन छात्रों के लिए आतंकवाद से लड़ने (Counter Terrorism) पर एक कोर्स शुरू किया है, जो डबल डिग्री प्रोग्राम के तहत पढ़ाई कर रहे हैं। छात्रों की ओर से प्रतिक्रिया आती, उससे पहले विपक्षी दलों के नेताओं की ओर से आ गई। इन नेताओं को इस कोर्स के साथ-साथ कोर्स के स्टडी मटेरियल से भी शिकायत है। CPI के राज्यसभा सांसद विनोय विस्वम ने केंद्रीय शिक्षा मंत्री धर्मेंद्र प्रधान को एक पत्र लिखकर विश्वविद्यालय द्वारा शुरू किए गए इस कोर्स का विरोध किया।
उन्होंने इस कोर्स के स्टडी मटेरियल को बदलने के लिए उचित व्यवस्था करने का अनुरोध भी किया। विस्वम अपने पत्र में लिखते हैं; “यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि उच्च शिक्षा का इस्तेमाल करके अंतर्राष्ट्रीय जियो-पोलिटिकल संबंधी विषयों पर ऐसे कोर्स में अर्ध सत्य और अकादमिक तौर पर झूठी सूचना का इस्तेमाल करके सांप्रदायिकता को बढ़ावा देने की कोशिश की जा रही है।” विस्वम का मानना है कि इतिहास को तोड़-मरोड़ कर उसका इस्तेमाल एक ख़ास विचारधारा को आगे बढ़ाने में किया जा रहा है।
CPI Rajya Sabha MP Binoy Viswam writes to Union Education Minister Dharmendra Pradhan, raising objection to ‘prejudiced & inaccurate nature of material being included in JNU course titled Counter-Terrorism, Asymmetric Conflicts & Strategies for Cooperation among Major Powers’ pic.twitter.com/AfvLNUIC0w
— ANI (@ANI) August 31, 2021
उनके ये भी मानना है कि इस कोर्स के कंटेंट में वैश्विक आतंकवाद और उसे समर्थन देनेवाले राजनीतिक सत्ता को लेकर ऐसे दावे किए जा रहे हैं जो सही नहीं हैं। विस्वम आगे लिखते हैं कि जिहादी आतंकवाद को एकमात्र धार्मिक आतंकवाद बताया जा रहा है जो सही नहीं है। विनोय विस्वम को इस बात से भी शिकायत है कि चीन और सोवियत संघ को जिहादी आतंकवाद के समर्थक देशों के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है। उनके अनुसार, ये तथ्य ऐतिहासिक रूप से न केवल गलत हैं बल्कि पक्षपातपूर्ण और राजनीतिक से प्रेरित हैं।
जब लगभग पूरी दुनिया आतंकवाद से पीड़ित है, तब उससे मुकाबले को लेकर एक विश्वविद्यालय द्वारा शुरू किए गए कोर्स का ऐसा विरोध और देशों में स्वाभाविक नहीं है पर भारत के लिबरल-सेक्युलर राजनीतिक दलों के लिए यह विरोध स्वाभाविक लगता है। लगता है जैसे वर्तमान शिक्षा या शासन व्यवस्था द्वारा कुछ भी किए जाने पर विरोध एक आम प्रतिक्रिया है। CPI के राज्य सभा सांसद के रूप में विस्वम को आज JNU की स्वायत्तता पर इसलिए शंका है क्योंकि वे सत्तापक्ष में नहीं हैं।
उनके पत्र को अपनी राजनीतिक विचारधारा के तहत सामान्य माना जा सकता है पर इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि यह आतंकवाद के खिलाफ वैश्विक दृष्टिकोण को नकारने का प्रयास है। एक विश्वविद्यालय में किसी भी कोर्स को चुने जाने की एक प्रक्रिया होती है जिससे गुजरने के बाद ही विश्वविद्यालय छात्रों के लिए उस कोर्स की घोषणा करता है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर JNU जैसे प्रसिद्ध विश्वविद्यालय के किसी कोर्स में दी जाने वाली अध्ययन सामग्री (Study Material) भी पर्याप्त विमर्श के बाद तय की जाती है।
ऐसे में सीधे तौर पर यह आरोप लगाना कि कोर्स सम्बंधित स्टडी मटेरियल राजनीतिक विचारधारा से प्रेरित है या पक्षपातपूर्ण है, एक ऐसा बचकाने आरोप से अधिक कुछ और नहीं लगता। वैसे भी जिहादी आतंकवाद को वैचारिक दृष्टिकोण के माध्यम से समर्थन देना वामपंथी विचारधारा और बुद्धिजीवियों का पुराना कर्म रहा है। ‘स्कूल ऑफ इंटरनेशनल स्टडीज’ के अध्यक्ष प्रोफेसर अरविन्द कुमार, जिन्होंने इस कोर्स को डिज़ाइन किया है, के अनुसार; आज जेहाद पूरे विश्व के लिए चुनौती है और तब, जब तालिबान ने अफगनिस्तान पर आतंकवाद का इस्तेमाल करके कब्ज़ा कर लिया है, ऐसे में इस कोर्स की घोषणा करने का इससे अच्छा समय और क्या हो सकता था?
वैसे भी यह एक ऑप्शनल कोर्स है और उन छात्रों के लिए है जो बी टेक के साथ इंटरनेशनल रिलेशन्स की पढ़ाई कर रहे हैं। ऐसे में एक ऑप्शनल कोर्स का इस स्तर पर विरोध समझ से परे है। या फिर ऐसे विरोध के बारे में यही कहा जा सकता है कि दशकों के वर्चस्व के कारण से वामपंथियों को यह विश्वास है कि JNU में जो कुछ भी होना है उस पर उनकी मुहर लगनी आवश्यक है। दशकों तक JNU को अपने शिकंजे में रखने वाले वामपंथी शायद यह सोच कर असहज हो जाते हैं कि उनका शिकंजा ढीला पड़ रहा है।
कोर्स का विरोध करने वालों को यह समझने की आवश्यकता है कि वर्तमान में आतंकवाद का जो वैश्विक चेहरा है वह इतना पुराना नहीं है जिसे लेकर विश्व समुदाय को किसी तरह का संशय हो। आतंकवाद का वर्तमान स्वरूप आज जहाँ है उस दूरी को तय करने में उसे दो ढाई सौ वर्ष नहीं बल्कि लगभग सात दशक लगे हैं। इन सात दशकों में जो भी घटा है लगभग सब कुछ के प्रमाण कई माध्यमों और शक्ल में दुनिया भर ने देखा है।
यह किसी मुग़ल बादशाह के पक्ष में निर्मित ऐतिहासिक कहानी नहीं जिन्हें बार-बार लिख और बोलकर इतिहासकार तथ्य साबित कर दे और फिर जगह-जगह यह कहता फिर कि; चूँकि हम ऐसा लिख या कह रहे हैं इसलिए यही सत्य है। यह NCERT के कोर्स में पढ़ाया जानेवाला इतिहास भी नहीं है जिसके बारे में लिखित तथ्य न रहने की वजह से बार-बार कुछ भी लिख कर उसे एक दिन तथ्य घोषित कर दिया जाय। आधुनकि आतंकवाद के विरुद्ध लगभग सारे तथ्य किसी न किसी माध्यम में दुनिया भर की सरकारों और विशेषज्ञों ने सुरक्षित कर रखे हैं और आवश्यकता पड़ने पर उन्हें सारे साक्ष्य प्रस्तुत किए जा सकते हैं।
इसलिए भारत के वर्तमान विपक्षी नेताओं को यह स्वीकार करने की आवश्यकता है कि जिहादी आतंकवाद जैसे कुछ राष्ट्रीय महत्व के विषय में की जाने वाली पुरानी राजनीति को तज देने का समय आ गया है। आतंकवाद के समर्थन का परिणाम भारत पहले भुगत चुका है। आज का वैश्विक परिवेश ऐसा है जिसमें लाखों शरणार्थियों को अपनी बाँहें खोलकर स्वीकार करने वाला यूरोप भी परेशान है और तालिबानियों को एक समय वंडरफुल पीपुल बताने वाला अमेरिका भी। ऐसे में भारत अपने एक भी नागरिक से जिहादी आतंकवाद को समर्थन का खतरा नहीं उठा सकता।
सभार………