तालिबान और भारत: पाकिस्तान-अफगानिस्तान पर अलग पख्तून रियासत की चाल – अब रक्षात्मक नहीं फ्रंटफुट पर खेले इंडिया

उमेश उपाध्याय

अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान शासन के बाद भारत में ही नहीं पूरी दुनिया में भय, आशंका और अनिश्चय का माहौल है। अगर पाकिस्तान को छोड़ दिया जाए तो दुनिया का हर सभ्य देश तालिबान को लेकर फिक्रमंद दिखाई पड़ता है। यही वजह है कि अभी तक किसी देश ने तालिबान शासन को औपचारिक मान्यता नहीं दी है। तालिबान ने बयान ज़रूर दिए हैं कि वे अब पहले जैसे नहीं हैं, पर उनकी बात पर यकीन मुश्किल है।

उनके बयानों के परे अफ़ग़ानिस्तान से आ रही खबरें आश्वस्त नहीं करतीं। काबुल में औरतों का घर से निकलना बंद हो गया है। जीत के उपहार के तौर पर घरों की तलाशी लेकर नाबालिग बच्चियों तथा अन्य औरतों की शादी जबरन तालिबानियों से करवाई जा रही है। कई जगहों से समर्पण करने वाली अफगान सेना के फौजियों की निर्मम हत्या की खबरें आ रहीं हैं।

भारत को जिस तरह से अपने दूतावास को बंद करके काबुल से निकलना पड़ा है, वह कोई खुश होने की बात नहीं है। ये कोई खास शाबासी की बात नहीं है कि हम अपने लोगों को बिना नुकसान वहाँ से ले आए हैं। आखिर एक पड़ोसी देश से हमें अफरातफरी में तकरीबन भाग के आना पड़ा हो, भारत जैसे देश के लिए कोई गर्व का विषय नहीं हो सकता। पिछले कई सालों में अफ़ग़ानिस्तान के पुनर्निर्माण में हमने अच्छा खासा निवेश किया था। ये निवेश सिर्फ आर्थिक संसाधनों का ही नहीं वरन हमारे संबंधों, राजनीतिक और राजनयिक पूँजी का भी था। लोग कह सकते हैं कि आज के हिसाब से तो वहाँ से निकलना ही हमारे सामने सबसे बेहतर विकल्प था।

तालिबान के शासन के बाद भारत के पास अफ़ग़ानिस्तान में दो ही विकल्प थे – एक ख़राब विकल्प और दूसरा बहुत खराब विकल्प। हमने ‘बहुत खराब विकल्प’ की अपेक्षा ‘खराब विकल्प’ को चुना और बिना किसी बड़ी परेशानी के हम अपने लोगों को निकाल लाए। ये आज के लिए संतोष की बात होगी पर हमारे दूरगामी हितों पर इसका कितना उल्टा असर होगा, ये अंदाज़ा लगाने के लिए आपको कोई विशारद होने की आवश्यकता नहीं है।

हम ऐसी स्थिति में पहुँचे कैसे?

पिछले चालीस साल में दरअसल हमारी अफ़ग़ानिस्तान नीति बेहद रक्षात्मक और परावलम्बी रही है। जब सोवियत संघ ने 1979 में अफ़ग़ानिस्तान पर कब्ज़ा किया तो हम उसकी नीति के पिछलग्गू हो लिए थे। सोवियत संघ की गोद में बैठने का ही परिणाम था कि उसके जाने के बाद वहाँ हमें कोई पूछने वाला नहीं था और तालिबान के पिछले शासन में पाकिस्तान ने उसका उपयोग कर हमारे लिए सुरक्षा के गंभीर खतरे खड़े कर दिए। 9/11 के बाद हमने अपने पिछले अनुभवों से कुछ नहीं सीखा और हमने अपने सारे पासे अमेरिका के खाने में डाल दिए। और अब जब अमेरिका वहाँ से भाग रहा है तो हम भी ऐसा करने के लिए मजबूर हो गए हैं।

ये समस्या इस सरकार को विरासत में ही मिली थी इसलिए मौजूदा सरकार की जिम्मेदारी सीमित ही बनती है। इसके लिए पिछले चालीस साल का राजनीतिक नेतृत्व तो उत्तरदायी है ही; अगर कोई सबसे अधिक जिम्मेदार है तो वे हैं, आजकल टीवी चैनलों की बहस में भाग लेने वाले और अफ़ग़ानिस्तान विशेषज्ञ बनकर कागज काले करने वाले विदेश सेवा और सुरक्षा प्रतिष्ठान के अधिकारी। ज्ञान बखारने वाले ये कथित विदेश और सुरक्षा नीति विशेषज्ञ आज बता रहे हैं कि भारत को क्या करना चाहिए था। इनमें से कई तो सीधे तौर पर इन मामलों को देखते रहे हैं। इनमें से एक-एक को बुलाकर पूछना चाहिए कि भाई जब आप कुर्सी पर बैठे थे तब आपने खुद क्या किया था? क्या आपकी देश के प्रति कोई जिम्मेदारी नहीं बनती?

अब इन्हीं में से अधिकतर ‘विशेषज्ञ’ देश में डर, अनिश्चितता और आशंका का माहौल पैदा कर रहे हैं। मानो, तालिबान के आने से न जाने क्या हो जाएगा? ये बात सही है कि चार दशक की गलत नीतियों के कारण भारत आज अफगानिस्तान को लेकर तकरीबन शून्य की स्थिति में खड़ा हो गया है। ये भी सही है कि पड़ोस में जब मध्ययुगीन बर्बर मानसिकता से संचालित धर्मांध इस्लामी जिहादियों को अफ़ग़ानिस्तान के रूप में एक पूरा देश मिल गया है तो हमारी सुरक्षा चुनौतियाँ विकट हो गई हैं। पर ये भी याद रखने की बात है ये भारत सन 1999-2000 का भारत नहीं है।

आज भारत को दो चीज़ों की ज़रूरत है।

पहला है धैर्य और दूसरा है संकल्प। हमारी विदेश नीति के कर्ताधर्ताओं को अब धैर्यपूर्वक नई अफ़ग़ानिस्तान नीति पर काम करना चाहिए। अफगानिस्तान नीति को आरामकुर्सी पर बैठकर व्याख्यान देने वाले इन विशेषज्ञों से लेकर जमीन पर काम करके भीतरी पैठ बनाने वाले लोगों को सुपुर्द करना चाहिए। ज़रूरी नहीं कि वे भारतीय विदेश सेवा से ही हों।

अब तो संयम के साथ ईंट पर ईंट जमाते हुए धीरज, मनोयोग और मेहनत से अफगानी समाज में उन लोगों के साथ ताल्लुक कायम करने की ज़रूरत है, जिनका भारत से भावनात्मक रिश्ता है। ऐसे ही लोग भारत के लिए जमीन तैयार कर सकते हैं। यह काम एक दो बरस नहीं बल्कि दशकों तक करना पड़ेगा। जिस तरह अफ़ग़ानिस्तान में भारत का खेल बिगड़ने में कोई चार दशक लगे हैं, उन्हें सुधारने के लिए भी दशकों का धैर्य चाहिए।

साथ ही भारत को पाकिस्तान-अफगानिस्तान सीमा विवाद की लकीर को भी गहरा करने का काम करना चाहिए। डूरण्ड रेखा के दोनों पार बसे पख्तूनों को मिलाकर एक पख्तून रियासत की योजना 1947 से कई लोगों के मन में रही है। यों तालिबान भी डूरण्ड रेखा को मंज़ूर नहीं करते। पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान की पार्टी के एक वरिष्ठ नेता ने कहा है कि कश्मीर मसले पर तालिबान उनका साथ देंगे। हालाँकि तालिबान के बयान इससे भिन्न हैं। पर हम किसी ग़लतफ़हमी में नहीं रह सकते। इसलिए पाकिस्तान सेना और जिहाद समर्थक पाकिस्तानी आतंकी गुटों को पता रहना चाहिए कि भारत में दखल देने का नतीजा उल्टा भी हो सकता है। भारत हमेशा रक्षात्मक क्यों रहे? वह एक अलग पख्तून रियासत का पासा क्यों नहीं फेंक सकता?

साथ ही अब भारत को संकल्प भी करना है। वो है सतत चौकन्ना रहकर किसी भी संभावित कुटिलता का उत्तर बुद्धिमत्तापूर्ण वीरता से देने की तैयारी करने का। पाकिस्तान की परमाणु धमकियों की हवा बालाकोट के आक्रामक तरीके से देश का मौजूदा मज़बूत नेतृत्व निकाल चुका है। उसी तरह पाशविक बर्बरता की हद तक जाने वाले आसन्न कट्टरपंथी इस्लामिक खतरे से निपटने का माद्दा, हिम्मत और क़ाबलियत प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मौजूदा नेतृत्व में है। इसका सबको भरोसा रहना चाहिए।

सभार………………