यदि स्लेट सफा चट्ट रहे तो फिर उस पर इच्छानुसार कुछ भी लिखा जा सकता है। छात्र वर्णमाला से लेकर व्याकरण और गिनती से लेकर पहाड़ा तक, कुछ भी टीप सकता है। और छात्र यदि पढ़ने की ऐक्टिंग करने वाला हो तो फिर पढ़ाई करने का आभास देते हुए वह उस पर फूलपत्ती भी आँक सकता है। उत्तर प्रदेश चुनावों के परिप्रेक्ष्य में कॉन्ग्रेस पार्टी अपनी सफा चट्ट स्लेट पर वही फूलपत्ती आँकने में जुट गई है। ऐसे में किसी को इस बात पर आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि अभी कुछ महीने पहले तक माथे पर चन्दन लगा और माता की चुनरी ओढ़ कर पूजा करते हुए फोटो खिंचवाने वाली कान्ग्रेस महासचिव प्रियंका वाड्रा जी ने अब उत्तर प्रदेश में उलेमाओं के साथ वर्चुअल मीटिंग शुरू कर दी है। यह सफा चट्ट स्लेट पर पहाड़ा है या फूलपत्ती, यह तो समय ही बता पाएगा।
पार्टी का मानना है कि उसे अपने पुराने मुस्लिम वोट बैंक को पाने की कोशिश फिर से करनी चाहिए। कोई भी राजनीतिक दल करेगा क्योंकि राजनीति में कोशिश करना ही सफलता का आधार होता है पर जो वोट बैंक तीस वर्ष पहले छिटक कर चला गया था, उसे वापस पाने के लिए क्या उलेमाओं के साथ वर्चुअल मीटिंग काफी होगी?
जानकार बता रहे हैं कि सप्ताह में दो बार मीटिंग करने से वोट बैंक के पार्टी के पास वापस आने की संभावना बढ़ जाएगी। ये जानकार यह भी बताते हैं कि पार्टी पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मुसलमानों को अपने साथ लेना चाहती है क्योंकि वहाँ इस्लामिक शिक्षा के केंद्र हैं। मतलब यह कि पार्टी हर वो काम करने के लिए तैयार है, जिससे मुसलमानों का वोट उसे मिल सके। बिना इस बात की चिंता किए कि जिस ध्रुवीकरण का आरोप पार्टी भाजपा पर लगाती है, उसकी शुरुआत खुद कर रही है।
राजनीति हो या कॉर्पोरेट, सारे संभावित सिद्धांत और दर्शन उपलब्ध होने के बावजूद नेता और राजनीतिक दल सबसे पहले व्यावहारिकता और पूर्व सफलता के रेप्लिकेशन की ही शरण में जाते हैं। राजनीतिक सलाहकारों और रणनीतिकारों द्वारा दलों के नेताओं को याद कराया जाता है कि; एक बार जब बीस साल पहले या तीस साल पहले ये समस्या आई थी, या वो वाला संकट आया था तब आपकी दादी, नानी, नाना, पापा ने ये राजनीतिक चाल चली थी और स्थिति नियंत्रण में आ गई थी।
प्रियंका वाड्रा भी इस समय शायद ऐसी ही किसी राजनीतिक सलाह को मानकर पुराने दिनों की कॉन्ग्रेसी रणनीति दोहराना चाहती हैं। साथ ही कॉन्ग्रेस पार्टी शायद पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी को मिली सफलता से भी प्रेरित है और सफलता के उसी मॉडल को उत्तर प्रदेश में दोहराना चाहती है। पर मुस्लिम वोटिंग के पश्चिम बंगाल मॉडल को उत्तर प्रदेश में दोहराना कॉन्ग्रेस के लिए आसान होगा? यदि आसान न होगा तो भी, क्या संभव होगा? यह ऐसा प्रश्न है, जिसे पीछे नहीं फेंका जा सकता और उसके कई कारण हैं।
कोई भी इमारत हवा में नहीं बल्कि नींव पर खड़ी होती है। ऐसे में कॉन्ग्रेस की इस कवायद पर पहला प्रश्न यह उठेगा कि ममता बनर्जी की जिस सफलता को कॉन्ग्रेस पार्टी उत्तर प्रदेश में दोहराना चाहती है, उसके लिए पार्टी के पास राज्य में संगठन है? और यदि है तो क्या पर्याप्त है?
पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव के समय ममता बनर्जी की अपनी पार्टी के पास एक मज़बूत संगठन था, जिसकी सफलता की संभावना पर विश्वास करके मुसलमान तृणमूल कॉन्ग्रेस को वोट करने के लिए मन बना पाए। उसमें भी ऐसा वोट बैंक शामिल था, जिसे कॉन्ग्रेस पार्टी और वामपंथियों ने कई जगह खुद ममता के पास जाने का रास्ता दिखाया। दोनों दलों ने अपने मुस्लिम वोट बैंक को बताया कि; हम नहीं जीत सकते इसलिए ‘सेक्युलर’ राजनीति को ऑक्सीजन देने के लिए यह आवश्यक है कि आप अपना वोट बैंक ममता बनर्जी के पास ले जाएँ। जिस कॉन्ग्रेस पार्टी के पास उत्तर प्रदेश जैसे विशाल राज्य में संगठन तक नहीं है, उसकी सफलता की संभावना पर उलेमा, मौलाना या मुस्लिम समुदाय विश्वास कर सकेगा?
दूसरा प्रश्न यह है कि उत्तर प्रदेश की राजनीतिक परिस्थितियाँ वैसी ही हैं, जैसी पश्चिम बंगाल की थीं? पश्चिम बंगाल में ‘सेक्युलर’ राजनीतिक दलों/गुटों की संख्या तीन थी, जिसमें राजनीतिक शक्ति के अनुसार तृणमूल कॉन्ग्रेस हर लिहाज से सबसे बड़ा दल है। कॉन्ग्रेस और वामपंथी दल के पास संगठन कुछ ही इलाकों में बचा है। उनके पास बाकी के संसाधन भी मजबूत नहीं थे। प्रश्न यह है कि क्या ऐसी ही स्थिति उत्तर प्रदेश में है?
उत्तर प्रदेश में ‘सेक्युलर’ वोट लेने के लिए भी तीन दल हैं, जिनमें कॉन्ग्रेस सबसे कमज़ोर है। भाजपा से मुकाबले की दौड़ में समाजवादी पार्टी सबसे आगे है क्योंकि उसके पास मुस्लिम वोट के अलावा भी अपना एक वोट बैंक है। यही बात बसपा पर भी लागू होती है। पर यहाँ प्रश्न उठता है कि कॉन्ग्रेस के पास क्या है? कॉन्ग्रेस की तो यह हालत है कि उसे राज्य की सभी विधानसभा सीटों के लिए उम्मीदवार खोजना भी असंभव सा जान पड़ेगा। क्या मुसलमान वोट बैंक उस राजनीतिक दल पर विश्वास कर सकता है, जिसका नेता उत्तर प्रदेश छोड़कर केरल चला गया?
पश्चिम बंगाल में मुस्लिम वोट बैंक का ट्रांसफर इसलिए सरल रहा क्योंकि वहाँ वोट एक पार्टी के पक्ष में जाने थे। क्या उत्तर प्रदेश में ऐसा हो सकता है? शायद नहीं। और यदि मुस्लिम वोट बैंक के लिए समाजवादी पार्टी, कॉन्ग्रेस और बसपा पश्चिम बंगाल मॉडल को रेप्लिकेट करना चाहेंगे तो तीनों दलों को समान वोट मिले, इसके लिए कोई कारगर मॉडल बनाया जाना आसान होगा? यदि ऐसी कोई संभावना हो भी तो उसका आधार क्या होगा? और बाकी के दो दल किसी एक दल के पक्ष में मुस्लिम वोट बैंक ट्रांसफर करना भी चाहेंगे तो क्या वह दल कॉन्ग्रेस हो सकता है? ये ऐसे प्रश्न हैं, जिनका उत्तर कॉन्ग्रेस पार्टी को खोजना होगा।
उसके अलावा प्रश्न यह उठेगा कि राहुल गाँधी और प्रियंका वाड्रा की लगभग चार वर्षों की उस मेहनत का क्या हासिल होगा, जिसकी वजह उन्होंने बार-बार साबित करने की कोशिश की है कि हिन्दू हितों के सबसे बड़े वाहक वही हैं? मंदिर-मंदिर घूमकर पूजा, संगम में स्नान और खुद को गंगा पुत्री बताना ऐसे ही मेहनत वाले काम हैं, जिन्हें आगे रखकर हिन्दुओं का विश्वास जीतने की कोशिश की गई थी। जिस सफा चट्ट स्लेट पर एक समय हिन्दू आस्था वाला अध्याय लिखा गया था, उसे फिर से साफ़ करके उसी पर मुस्लिम आस्था वाला अध्याय लिखना कितना सरल होगा?
मुसलमानों के बीच जाने पर काला लिबास पहनना और हिन्दुओं के बीच जाने पर चंदन लगाना प्रियंका के लिए आसान होगा पर उस पर विश्वास करके वोट कर देना वोटर के लिए आसान नहीं होता। साथ ही पार्टी के अंदर और बाहर प्रश्न यह भी उठेगा कि जो प्रियंका कर रही हैं, उस रणनीति को क्या राहुल का भी समर्थन प्राप्त है? यह प्रश्न इसलिए भी उठेगा क्योंकि यह धारणा अब तक आम हो चुकी है कि कॉन्ग्रेस में दोनों के अपने-अपने गुट हैं।
उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में बस आठ महीने बचे हैं। ऐसे में कॉन्ग्रेस के लिए मुस्लिम वोट बैंक का विश्वास जीतने लायक संगठन इतनी जल्दी तैयार कर लेना आसान न होगा। उलेमाओं के साथ मीटिंग वगैरह करके कॉन्ग्रेस पार्टी अधिक से अधिक किसी संभावित गठबंधन के लिए बार्गेनिंग पॉवर इकट्ठा करने की कोशिश भले कर सकती है पर मीटिंग की बुनियाद पर मुस्लिम वोट बैंक हासिल कर लेना पार्टी के लिए फिलहाल दूर की कौड़ी है।
शिव मिश्रा (सभार ……..)