लोकतंत्र और सियासत की सबसे बड़ी खासियत यह होती है कि वह हर दौर में चेहरा/चेहरे तलाश लेता है, जिनके इर्द-गिर्द चुनावी राजनीति सिमटी रहती है। इन चेहरों का प्रभाव व्यापक या क्षेत्रीय हो सकता है। पर इसका उलट एक क्रूर सत्य भी है। अमूमन ऐसे चेहरे अपने राजनैतिक प्रभाव को राष्ट्र या आम लोगों के जीवन के उत्थान के लिहाज से इस्तेमाल नहीं कर पाते हैं। वजह राजनीति का वही घिसा-पिटा अंदाज। नई लकीरें नहीं खींचने का साहस… वगैरह, वगैरह।
इसकी वजह से ये चेहरे दौर बीतते ही काल के गर्भ में खो जाते हैं। कुछ विरले ही होते हैं जो अपने प्रभाव को राष्ट्र और आम लोगों की अवधारणा पर लगातार कसते हैं। समय पर अपनी छाप छोड़ जाते हैं और दौर से परे हर हाल कालखंड में प्रासंगिक बने रहते हैं। या यूँ कहें कि अगले नायक की प्रतीक्षा में राजनीति उनके रास्तों पर ही गतिमान रहती है। असल में नेता से राजनेता बनने की यात्रा यही है।
उम्र के चौथे दशक की ओर बढ़ रहे हम जैसे लोग जो राजनीतिक तौर पर जागरूक माने जाने वाले इलाके से आते हैं, ने कई नेताओं की यात्रा देखी है। लेकिन नेता के राजनेता बनने की यात्रा पहली बार 2014 में राष्ट्रीय राजनीतिक फलक पर नरेंद्र मोदी के उदय के बाद से देखनी शुरू की। जवाहरलाल नेहरू, लाल बहादुर शास्त्री और इंदिरा गाँधी जैसे अपने पूर्व प्रधानमंत्रियों की एक विशेष कालखंड में आभा को लेकर सुन/पढ़ भी रखा है।
मोदी की यह यात्रा कितनी सफल रहती है, इसका पूर्ण मूल्यांकन आने वाला समय ही करेगा। वैसे भी इतिहास बेहद क्रूर होता है और सबको अपनी कसौटियों पर परखता है। हमने देखा भी है कि वामपंथी बुद्धिजीवियों द्वारा करीने से सजाई गई नेहरू की मूर्ति को समय के सत्य ने किस कदर तहस-नहस किया है। बावजूद इसके 2014 की 26 मई को ही नरेंद्र मोदी ने पहली बार शपथ ली थी तो उनकी अब तक की यात्रा का मूल्यांकन किया जाना जरूरी है। यह इसलिए भी जरूरी है कि उनसे पहले केवल तीन प्रधानमंत्री ही हुए जिन्होंने इस कुर्सी पर लगातार सातवाँ साल पूरा किया है। वह ऐसा करने वाले पहले गैर कॉन्ग्रेसी प्रधानमंत्री हैं। लिहाजा मूल्यांकन बेहद जरूरी भी दिखता है। खासकर, तब जब पूरी दुनिया एक चीनी वायरस के कारण आई आपदा से जूझ रही और भारत का विपक्ष, तथाकथित बुद्धिजीवी वर्ग तथा मुख्यधारा की मीडिया के विदेशी ताकतों के साथ मिलकर साजिश रचे जाने को लेकर रोज-रोज नए तथ्य सामने आ रहे हैं।
देश के स्वतंत्र होने के बाद प्रधानमंत्री बने पंडित नेहरू 16 साल से ज्यादा वक्त तक इस कुर्सी पर रहे। लेकिन, इसका दूसरा पक्ष यह भी है कि कार्यकाल के 7वें साल तक आते-आते उनके राजनैतिक ग्राफ में गिरावट का दौर शुरू हो गया था। कश्मीर के मोर्चे पर उनकी नाकामी नजर आने लगी थी। चीन की नीयत का खोट नजर आने लगा था। उनकी बेटी इंदिरा ने जनवरी 1966 में कमान सँभाली तो मार्च 77 तक लगातार प्रधानमंत्री बनी रहीं। उनके बतौर प्रधानमंत्री सातवें साल में प्रवेश करते-करते देश की अर्थव्यवस्था की गाड़ी गड्डमड्ड दिखाई देने लगी थी। राजनीतिक अस्थिरता और उनके एकाधिकार का उभार होने लगा था। उनके बेटे संजय गाँधी की समानांतर सरकार चलने लगी थी। आखिर में इन सबके रिएक्शन से पैदा हुए आपातकाल और उस दौर में लोकतंत्र के हुए दमन से हम सब बखूबी परिचित हैं।
2004 में इंदिरा की बहू सोनिया गाँधी की कृपा से मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुँचे। मोदी के उदय से पहले तक वे इस पर कुर्सी पर रहे। लेकिन कार्यकाल के 7वें बरस तक आते-आते उनकी और सरकार, दोनों की साख खत्म हो चुकी थी। एक के बाद एक घपले-घोटाले सामने आने शुरू हो चुके थे। अन्ना आंदोलन की नींव पड़ गई थी। मनमोहन सिंह की छवि एक ‘एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर’ की बन चुकी थी। पॉलिसी पैरालिसिस जैसे शब्द उनकी सरकार के पर्याय बन चुके थे। कई पैरों वाली देवेगौड़ा, गुजराल और खरीद-फरोख्त से चली नरसिम्हा राव सरकार देख चुके हम जैसे लोगों ने वैसी निराशा कभी नहीं देखी थी, जो मनमोहन सरकार की मौजूदगी से पैदा हो रही थी। उनके बतौर प्रधानमंत्री 7वें वर्ष में प्रवेश के साथ यह और घनी होती गई थी।
इसके उलट मोदी इस समय जिस संकट से जूझ रहे हैं उस तरह की विपदा दशकों/शताब्दियों में एक बार आती है। बावजूद न तो उनकी आभा मलिक होती दिख रही है। न लोककल्याणकारी राज्य, मजबूत तथा आत्मनिर्भर भारत की उनकी दृष्टि से मोहभंग होता दिख रहा। बीजेपी और संघ से जुड़े कई लोगों का तो यह भी मानना है कि मोदी का उत्कर्ष अभी आया ही नहीं है। जब वे इस तरह के दावे करते हैं तो समान नागरिक संहिता और जनसंख्या नियंत्रण कानून जैसे बहुप्रतीक्षित फैसले निकट भविष्य में होने की दलील देते हैं। जम्मू-कश्मीर से आर्टिकल 370 हटाने, नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए) का हवाला दे बताया जाता है कि यह सब मुमकिन है, बस कोरोना संक्रमण के कारण उपजे हालात की वजह से इनके हकीकत बनने में विलंब हो रहा है।
अपने फैसलों से मोदी ने बार-बार साबित भी किया है वे लीक से बँधकर चलने वालों में से नहीं हैं। सो, जब इस तरह के दावे किए जाते हैं तो वे हवा-हवाई भी नहीं लगते हैं। आखिर पाकिस्तान पर सर्जिकल/एयर स्ट्राइक हो या कश्मीर से 370 हटाए जाने का फैसला, कल्पना हममें से कितनों ने कर रखी थी?
असल में यही मोदी की ताकत है। इसे समझाते हुए वरिष्ठ पत्रकार संतोष कुमार ने अपनी पुस्तक भारत कैसे हुआ मोदीमय में लिखा है, “प्रजेंटेशन में सवाल हुआ- अगर आप (दो बड़े उद्योपतियों का नाम लिया गया, जिसमें एक भगोड़ा है तो दूसरा लंबे समय तक जेल में रहा) इनका नाम लेते हैं तो आपके जेहन में क्या छवि आती है? जवाब था- फ्रॉड की। लेकिन जब नरेंद्र मोदी का नाम लेते हैं तो क्या जवाब होता है? एक ऐसा नेता जो कोई भी बड़ा निर्णय ले सकता है, चाहे विकास के एजेंडे पर हो या फिर राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़ा।”
यह छवि सिर्फ बीजेपी को चुनावी सफलता हीं नहीं दिलाती है। वह कैराना की एक बुजुर्ग महिला के भीतर वह भरोसा जगाती है, जिसके कारण वह कहती है, “मोदी क्या नहीं दिए। गैस चूल्हा दिए। घर दिए। पैखाना दिए। इतना कोई नहीं किया हम गरीब लोगों के लिए। उनको ऊपर वाला भेजा है हमलोगों के लिए!”
अच्छी बात यह है कि सात साल पूरे करने वाले अपने अन्य पूर्ववर्तियों की तरह मोदी की साख और प्रभाव पर तब भी कोई सवाल नहीं है, जब हम वैश्विक महामारी से जूझ रहे हैं। यह मोदी भी जानते हैं और वे तो बकायदा एक साल पहले इसका ऐलान कर चुके हैं। अपनी मौजूदा सरकार के एक साल पूरे होने पर उन्होंने 30 मई 2020 को एक खुला पत्र देश की आम जनता को लिखा था। इसमें उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा था कि भारत का भविष्य कोई आपदा नहीं तय कर सकती। उन्होंने कहा था, “हम अपना वर्तमान भी खुद तय करेंगे और अपना भविष्य भी। हम आगे बढ़ेंगे, हम प्रगति पथ पर दौड़ेंगे, हम विजयी होंगे।”
आज के भारत का सच यही है कि मोदी सपने देखने छोड़ देने वाली आँखों में उम्मीदें जगाने का नाम है। विकास के सपनों को पूरा करने का नाम है। मजबूत एवं आत्मनिर्भर भारत की दिशा में बढ़ने का नाम है। उसके अलावा जो कुछ दिखता है, वह सब सियासी तमाशा है, उनका जो न जमीन से जुड़े हैं, न जिनमें लकीर छोड़ चलने का साहस है।
अजीत झा (सभार……..)