के. विक्रम राव
वामपंथी, सोनिया—प्रशंसक अंग्रेजी दैनिक ”दि हिन्दू” में आज (12 मई 2021) कार्टूनिस्ट सुरेन्द्र ने एक चित्र रेखांकित किया है। कांग्रेस कार्य समिति की (10 मई) हुयी बैठक की बाबत है। म्यूजिकल चेयर का खेल चल रहा है। भोंपू पर रिकार्ड बज रहा है। गोलाई के भीतर बस एक ही कुर्सी रखी है। उस पर अंकित है पार्टी (कांग्रेस) मुखिया। केवल राहुल गांधी रेस लगाते हांफ रहे हैं। हरीफ कोई भी नहीं है। इसके मायने इतने स्पष्ट हैं कि व्याख्या अनावश्यक है।
खबर भी साया हुयी थी कि कांग्रेस का अध्यक्षीय निर्वाचन तीसरी दफा टाल दिया गया। सफाई में सोनिया गांधी ने बताया कि जून माह के अंतिम सप्ताह में होगा। कारण? कोरोना का प्रकोप है! अर्थात सोनिया पदासीन रहेंगी जब तक कोरोना रहेगा।
दो साल हुये नरेन्द्र मोदी की लोकसभा मतदान में धुआंधार जीत के। परिणाम में राहुल गांधी ने पश्चाताप में अध्यक्षपद तजा था। गमगीन होकर ननिहाल (इटली) चले गये थे। बेटे की उत्तराधिकारी मां बन गयी। उसके पहले भी रहीं थीं। अदला—बदली का ढर्रा नया नहीं है।
इस बार कांग्रेस अधिक ध्वस्त हो गयी। पश्चिम बंगाल में नामलेवा नहीं रहा। मुसलमान वोट बैंक असम में भी दिवालिया हो गया। नतीजन कांग्रेस अध्यक्ष पद का चुनावी एजेण्डा ढाई माह में तीसरी बार टालना पड़ा। अलबत्ता इस बार राहुल गांधी एड़ी के बल तैयार थे दोबारा पद पाने हेतु। बांसुरी ही नहीं बजी, क्योंकि बांस (चुनावी बहुमत) ही नहीं रहा। राहुल—सोनिया के प्रारब्ध का संक्रमण था कि 1952 से सत्ता केन्द्र पर या उसके इर्दगिर्द मंडराते कम्युनिस्ट भी कोलकत्ता में शून्य हो गये। मतदान में पूर्णतया दिगंबर हो गये।
बागी पार्टीजन जो जी—23 के उपनाम से मशहूर थे अपनी ज्योतिषवाणी पर फूले नहीं समाये थे। खासकर वकील कपिल सिब्बल, कश्मीरी सुन्नी, नबी के गुलाम और आनन्द शर्मा। पार्टी की मरम्मत वाली उनकी मांग जायज सिद्ध हो गयी। इन सुधारवादियों ने अगस्त 2020 में ही एक खुली चिट्ठी सोनिया गांधी को भेजी थी। किन्तु वही अगर—मगर वाली स्थिति आई गयी। अगर वंशवाद और पुत्रमोह का तजकर किसी जुझारु और तजेतपाये कांग्रेसी को पार्टी की कमान दे देते तो शायद हालत इतनी बदतर, इतने गलीच तथा इतना मोहताज न होता। मगर तब मसला था कि अरबों रुपयों का पार्टी फण्ड परिवार खो देता। उदाहरणार्थ राजीव फाउण्डेशन में खरबों रुपये पड़े हैं। उसका एक प्रतिशत यदि कोरोनाग्रस्त लोगों के आक्सीजन हेतु दान कर देते तो मोदी की भर्त्सना ज्यादा होती। पर धन का मोह जो ठहरा।
कांग्रेस की कार्य समिति ने शुतुरमुर्गी स्टाइल में पार्टी की चुनावी हार का ठीकरा आंचलिक नेतृत्व की अक्षमता और अंदरुनी कलह पर फोड़ा। सनद रहे कि राहुल गांधी ने जहां—जहां प्रचार किया बहुलांश में कांग्रेसियों की जमानत ही जब्त हो गयी। उभरता सितारा प्रियंका वाड्रा असम गयी थीं। डुबो दिया। ठीक यूपी जैसा, जहां वह प्रभारी नियुक्त हुयीं थीं। पिछली लोकसभा में दो सीटें थी। इस बार बस एक ही बची। मां जीती, भाई हारा। पार्टी के बड़े पुराने बफादार नबी के गुलाम का भी किस्सा है। उनकी राज्यसभा की सदस्यता खत्म हुयी थी तो आशा थी कि केरल में मुस्लिम लीग की मदद से फिर चुन लिये जायेंगे। बागी तेवर सोनिया को नापसंद हैं। आजाद को राह चलते पैदल कर दिया।
दबे जुबान से पार्टीजन कभी कभार उद्गार व्यक्त करते है कि जबतक तिगड्डा (मां—भाई—बहन) ननिहाल (नैहर) नहीं जायेगा, कांग्रेस को मोक्ष नहीं मिलेगा। ये तीनों यूरेशियन नेता 136—साल पुरानी पार्टी का तर्पण ही करके हटेंगे।
उधर मोदी की मनोकामना पूरी होने के आसार स्पष्ट गोचर हैं। उन्हें कोई रोक सकता है तो केवल गैर—कांग्रेसी प्रतिपक्ष ही है। पर वह तो अजन्मा है। भ्रूणावस्था तक में भी नहीं है। कोशिश हुयी थी। कारगार नहीं हुयी। मगर राजनीति में कभी भी शून्यता नहीं रहती। सत्तारुढ़ दल का विकल्प लोकतंत्र में पैदा होता रहता है। अवसर आते ही मौका और माहौल का इशारा स्पष्ट हो जायेगा। मोरारजी देसाई जैसी 1977 की जनता पार्टी ही जवाब है। इंतजार रहे।