हाँ, हम मंदिर के लिए लड़े… क्योंकि वहाँ लाउडस्पीकर से ऐलान कर भीड़ नहीं बुलाई जाती, पेट्रोल बम नहीं बाँधे जाते

बीते दिनों इस देश के कुख्यात हिंदू-विरोधी शहरी नक्सलों ने अचानक से एक गाना शुरू किया, ‘तुम अस्पतालों के लिए लड़े ही कब, मंदिरों के लिए लड़े। अस्पताल के लिए लड़ते, तो ये दिन ना आते।’ कोरोना की दूसरी लहर मौत बनकर आई है। ऐसे समय भी बुद्धिपशाच गिद्ध अपनी खून की प्यास दिखाने से बाज नहीं आ रहे हैं। दरअसल, वामपंथ एक ऐसा मवाद है, जो अराजकता रूपी घाव से ही रिसता है। लुटियंस दिल्ली के इनके प्रतिनिधि हों या बिहार के दरभंगा जिले के कलुआही थाने का कोई सेनानी, आम जन की व्यथा-विपदा को किस तरह भुनाकर ये उसे अराजकता में बदलेंगे, यही इनके सोच का एकमात्र ध्येय है, पाथेय है।

जनता को सकारात्मक सोच की तरफ वह मोड़ता है, जिसका खुद का दर्शन वैसा हो। जिनका दर्शन ही बंदूक और खून हो, जिन्होंने करोड़ों की हत्या की हो, उन वामपंथियों के किसी भी प्रारूप (वर्जन) से आप उम्मीद ही क्या करेंगे? पिछले साल भी उन्होंने यही किया था, इस साल भी यही कर रहे हैं। आप दिल्ली में उनके सर्वोच्च अराजक प्रतिनिधि श्री केजरीवाल को झूठी अपील करते हुए बहक भले जाएँ, लेकिन यह भी याद रखिए कि पिछले साल यही केजरीवाल थे, जिन्होंने लाइट कटवाकर और दिल्ली की बस्तियों में झूठी खबर फैलाकर आनंद विहार की सीमा पर मजदूरों-प्रवासियों की भारी भीड़ को इकट्ठा करवाया था।

अस्तु, बात मंदिरों की। सबसे पहले तो इन बुद्धिपिशाचों को यही पता होना चाहिए कि अभी हिंदू मंदिरों के लिए लड़ा कहाँ है। लड़ता तो वह 30 हजार मंदिरों के लिए लड़ता, जिन्हें रेगिस्तानी बर्बरों ने भूमिसात् किया, लूटा और लोगों को बलात् मजहब में लाए। हिंदू तो केवल एक मंदिर के लिए अब तक लड़ा है, जिसके लिए सेकुलर बुद्धिपिशाचों के अंग-विशेष में दर्द हो रहा है।

और, हिंदू लड़ता है, मंदिरों के लिए। मंदिर उसके लिए केवल पूजा स्थल नहीं रहे हैं। वह पूरे सामाजिक ताने-बाने का अनुपम उदाहरण रहे हैं। मंदिरों से ही गुरुकुल चलता रहा है। यानी, शिक्षा की व्यवस्था भी की जाती रही है। मंदिर के सामने के मंच या जगह पर ही सामाजिक सत्कार्य होते रहे हैं। वहीं अखाड़ा भी रहा है। वहीं औषधालय भी रहा है। अब भी कई जगहों पर मंदिर के ठीक नीचे आपको ये चलते मिल जाएँगे। क्या बुद्धिपिशाचों ने गौर किया है कि हमारे अधिकांश मंदिर जलाशयों के समीप क्यों होते थे, क्योंकि मंदिर एक पूरी सभ्यता थे, वह हमारी संस्कृति-हमारे आचार का एक हिस्सा थे।

हिंदू मंदिरों के लिए लड़ा क्योंकि उसे पता है कि आजतक किसी मंदिर की लाउडस्पीकर से बुलाकर भीड़ द्वारा किसी की हत्या नहीं करवाई गई और न ही करवायी जाएगी। वह मंदिरों के लिए लड़ता है, क्योंकि उसे पता है कि मंदिरों में हथियार नहीं छुपाए जाते, वहाँ जान बचाई जाती है। जान लेने के षडयंत्र नहीं किए जाते। पेट्रोल-बम नहीं बाँधे जाते। हिंदू मंदिरों के लिए लड़ा, क्योंकि उसे पता है कि सरकार कोई भी हो, वह हमारे समृद्ध मंदिरों की कमाई लेकर अपना काम चलाती है, क्योंकि उसे पता है कि तिरुपति देवस्थानम् हो या पटना का महावीर मंदिर, सैकड़ों बेड और अस्पताल का जिम्मा ये मंदिर ही उठा लेते हैं।

पटना का महावीर कैंसर संस्थान हो या तिरुपति के ट्रस्ट से चलनेवाले अस्पताल और शिक्षालय, हिंदुओं के कहीं किसी को सफाई देने की आवश्यकता नहीं है। दिक्कत बस एक है कि हिंदू मंदिरों के लिए लड़ा ही नहीं। अगर वह लड़ा होता, तो न तो भारत की सभ्यता इतनी रुग्ण हुई होती, न ही कीड़े-मकोड़ों की तरह बजबजाती भीड़ होती, बल्कि सुसंस्कृत, आचारनिष्ठ य़ुवाओं-युवतियों की आकर्षक छवियाँ होती।

वैसे, नराधम नरपिशाचों को शायद यह भी पता नहीं हो कि कुछ तीन-चार सौ साल पहले तक बाबा तुलसीदास भी अपने ‘रामचरितमानस’ में जब ‘मंदिर’ शब्द का प्रयोग करते हैं, तो उसका अर्थ ‘घर’ होता है- ‘मंदिर-मंदिर प्रति कर सोधा..’, आज के मंदिर के अर्थ में तो देवालय, देवस्थान आदि का प्रयोग होता था।

आज भी गुजरात के स्वामीनारायण मंदिर से लेकर दर्जनों मंदिरों ने दिखाया है कि किस तरह मंदिर बीमारों की देखभाल कर रहे हैं, कर सकते हैं और करेंगे। इन मंदिरों ने अपने दरवाजे खोल दिए हैं, वहाँ टेंपररी हॉस्पिटल बना दिए हैं और संन्यासी ही मरीजों की सेवा कर रहे हैं।

हिंदुओं को तीन बातें याद रखनी चाहिए, फिलहाल और जो भी ये मंदिर-अस्पताल की घटिया बाइनरी दे, उसके मुँह पर मार फेंकनी चाहिए। पहली, हिंदुओं को किसी के सर्टिफिकेट की जरूरत नहीं है, लोग जाकर देखें कि हज हाउस, मदरसे, चर्च और इस तरह की इमारतों ने, जिनमें से बहुतेरी अवैध कब्जे से बनी हैं, वे क्या कर रहे हैं? दूसरे, हिंदुओं के मंदिर हमेशा से ही आपदा-विपदा में काम करते रहे हैं और हमें किसी से कुछ भी न जानने की जरूरत है, न समझने की। तीसरी और अंतिम बात, जो मूर्ख और झूठा इस तरह की बात कहता है, उसे जानना चाहिए कि भारत का पहला एम्स भी राजकुमारी अमृत कौर ने बनवाया था, किसी दुर्घटनावश हिंदू प्रधानमंत्री ने नहीं। दूसरा एम्स भी अटल बिहारी वाजपेयी के राजकाज में शुरू हुआ था। अभी जो सरकार है, उसके समय में भी कई एम्स की स्वीकृति हो चुकी है और वे विभिन्न चरणों में चल रहे हैं।

हिंदुओं को गर्वित माथे से बताने की जरूरत है कि हाँ, हम मंदिर के लिए लड़े और गलती ये है कि हम सभी मंदिरों के लिए नहीं लड़ रहे हैं।

(सभार)