राजेश श्रीवास्तव
मैं अपना कॉलम पिछले 2०14 यानि लगभग सात सालों से लगातार लिख रहा हूं लेकिन आज पहली बार जिस मुद्दे पर दो टूक लिख रहा हूं वह बेबस कर रहा है। देश और प्रदेश में कोरोना को लेकर के जो हालात हैं उन पर सिर्फ यह कहकर कि महामारी है तो यह सब झेलना ही होगा, बचा नहीं जा सकता। जब एक साल पहले कोरोना महामारी आयी थी तब अगर यह हालात होते तो समझा जा सकता था। लेकिन पिछली बार हमारी सरकार ने पूरी दुनिया में ऐसा उदाहरण पेश किया कि भारत की तारीफ पूरी दुनिया में हुई। लेकिन कोरोना पूरी तरह से गया नहीं और हम दूसरी प्राथमिकताओं मंे जुट गये जबकि सभी एक्सपर्ट्स ने यही सलाह दी थी कि कोरोना वापस लौटेगा और जिस खतरनाक म्युटेंट की बात कही गयी थी कमोबेश हालात उससे भी खतरनाक हैं।
लेकिन हमारी सरकारों ने न अस्पतालों की तैयारी की। न इंजेक्शन की। न दवाओं की। सिर्फ वाहवाही लूटी गयी। आज उत्तर प्रदेश की बात करें तो हालात इतने बदतर है कि सिर्फ महामारी के दस जिलों में पैर पसारने पर सरकार नियंत्रण में पूरी तरह से फेल हो गयी है तो अगर सभी जनपदों में इसका विस्तार हुआ तो सरकार क्या तैयारी करेगी, इसकी कल्पना करना ही बेमानी है। पिछले एक साल में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री सिर्फ टीम -11 के साथ बैठकें करते रहे। लेकिन उसके परिणाम नहीं दिख्ो। आज उनकी सरकार के मंत्री ही लाचार और बेबस दिख रहे हैं। वह व्यथित हैं। सरकार ने जिन निजी अस्पतालों को कोविड अस्पताल बनाया वह एक भी मरीज को भर्ती करने की स्थिति में नहीं हैं। सरकारी अस्पतालों में लोग वेटिंग में रह रहे हैं और इहलोक से कूच कर जा रहे हैं। लोगों को आक्सीजन नहीं मिल पा रहा है। सबसे दुखद यह है कि सरकार और प्रशासन की ओर से जो भी सूची जा हो रही है। मसलन सीएमओ या प्रशासन के नंबर हों, कोविड प्रभारी अधिकारियों के नंबर हों, अस्पतालों की सूची हो, आक्सीजन वेंडर की सूची हो या फिर टीकाकरण अस्पतालों के केंद्र। सब सिर्फ कागजों तक ही सीमित है। वैसे तो आपका नंबर कहीं नहीं लगेगा, पर अगर लग भी जायेगा तो वह इतनी बेरुखी से बात करेगा कि आप भर्ती होने के बजाय प्राण त्यागना ज्यादा मुफीद समझेंगे। जिन हालातों में उत्तर प्रदेश है उससे अगर किसी बड़ी घटना का प्रतिफल दिख्ो तो अतिशयोक्ति नहीं होगी।
मुख्यमंत्री ने हमेशा अपने मंत्रियों के बजाय अपने अधिकारियों को तरजीह दी और उन्होंने आज इस सरकार को इस दशा में पहुंचा दिया है कि पूरा सिस्टम बैठ गया है। पिछले दिनों में उत्तर प्रदेश में 97०3 लोगों ने दम तोड़ दिया है। हर दिन उत्तर प्रदेश में कोरोना का कहर अपना पहले से वीभत्स रूप दिखा रहा है। इन्हीं अधिकारियों ने ऐसी नीति बना दी कि आप बिना सीएमओ की रिफरल स्लिप के अपने परिजनों को निजी अस्पताल में भर्ती नहीं करा सकते चाहे अस्पताल में बेड खाली हो तो भी। यह कौन सा नियम है कि मरीज सीध्ो कोविड मरीज का इलाज नहीं शुरू कर सकता।
सरकार ने पिछले एक साल में न किसी नये अस्पताल की तैयारी की। न आक्सीजन, न वेंटीलेटर न किसी नये कोविड अस्पताल की। सरकार सिर्फ बारिश आने पर झोपड़ी बनाने जैसी कवायद पर अमल करती दिखती है। बाकी पूरे साल मुख्यमंत्री और उनके मंत्री हर मंच पर यही कहते रहे कि हमने प्रवासी मजदूरों को उनके घरों तक भ्ोजा, उनके खाते में पैसा दिया और गरीबों को राशन मुहैया कराना । परंतु मुख्यमंत्री यह क्यों नहीं समझ रहें कि उन्हें ख्ौरातखाना नहीं खोलना है, उन्हें संसाधन पैदा करने हैं कि उत्तर प्रदेश के लोगों को बेहतर इलाज मिल सके। उत्तर प्रदेश के लोगों को मुफ्त राशन नहीं चाहिए , जरूरत पर इलाज चाहिए। सांस उखड़ने से पहले आक्सीजन चाहिए। आज सरकार का सिस्टम इतना फेल्योर है कि सरकारी सिस्टम पंगु साबित हो गया है। सरकार ट्रीटमेंट के बजाय कास्मेटिक पर जोर दे रही है। श्मशान घाट पर पर्दादारी की जा रही है ताकि असलियत सामने न आ सके। कोरोना का इलाज करने वाले चिकित्सक बेचारे लाचार हैं वह अपने साथियों की मौत से विचलित हैं। अधिकारियों की फौज खुद कोरोना संक्रमित है। प्रमुख सचिव स्वास्थ्य अमित मोहन प्रसाद पिछले दो सालों से कोई उपलब्धि नहीं हासिल कर सके। वह बिना टेंडर दवाओं व इंजेक्शन की व्यवस्था तक बनाने का काम भी अंजाम नहीं दे सके। अब इस पर पहल शुरू की है। तीन दर्जन से ज्यादा उत्तर प्रदेश के पत्रकारों और उनके परिजनों ने कोरोना के चलते दम तोड़ दिया है। 1०० से ज्यादा पत्रकार संक्रमित हैं। सरकारी अस्पतालों में न आक्सीजन है, न बेड है, श्मशान घाट पर लकड़ियां नहीं हैं। विद्युत शवदाह केंद्र में जगह नहीं है। कब्रिस्तान में शव दफन करने वालों की डबल-डबल ड्यूटी चल रही है। क्या हमने इसी सबका साथ सबका विकास वाली सरकार का सपना देखा था कि हम अपने परिजनों की उखड़ती सांसों तक को थामने को लाचार हो जायें। ऐसा साथ और ऐसा विकास किस काम का, जहां हमारे अपने ही हमारे साथ न हों…। मुख्यमंत्री जी हमें लाचारी और बेबसी नहीं, अपनों का साथ चाहिए।