उपेन्द्र नाथ राय
छत्तीसगढ़ का जिला उत्तर बस्तर (कांकेर)। बात मार्च 2015 की है। पुलिस को सूचना मिली कि कोटरी नदी के उस पार आलदंड की तरफ माओवादी अड्डा जमाए हैं। उसमें एलओएस और एरिया कमांड के कमांडर भी हैं। पुलिस ने रात को घेराबंदी की योजना बनाई। उस समय जितेन्द्र सिंह मीणा एसपी थे। माओवाद क्षेत्र के बारे में उनकी जानकारी के बारे में इसी से अंदाजा लगा सकते हैं कि वे नक्शे में भी बता देते थे कि यहां गड्ढा है और यहां से हम आसानी से प्रवेश कर सकते हैं। हर चीज जुबान पर थी। पुलिस ने रात को घेराबंदी शुरू की लेकिन पुलिस की सूचना में कुछ हेर-फेर हो गया। पुलिस की जानकारी माओवादियों के कोटरी नदी के उस पार रहने की थी और माओवादियों को भी पुलिस के आने की खबर लगने के कारण वे इस पार छोटे बेटिया साइड में ही आ गये थे। पुलिस इस पार के लिए तैयार नहीं थी और माओवादियों ने ताबड़तोड़ गोलियां चलानी शुरू कर दी। उसमें बैजू राम पोटाई शहीद हो गये। पुलिस बैकफुट पर आ गयी।
एक दूसरी घटना। कांकेर का ही कोरर इलाका माओवादियों के लिए मुफीद जगह माना जाता है। केन्द्रीय फोर्स के उच्चस्तरीय अधिकारी बताने लगे कि वहां के जंगल में चार जनवरी 2016 को माओवादियों के ठहरने की सूचना मिली। रात को फोर्स ने सर्चिंग अभियान चलाने का फैसला लिया। जंगल में ही आग जलाकर कुछ बच्चे बैठे थे। जवान उन्हें बच्चा समझकर आगे बढ़ गये। पूरा सर्चिंग अभियान चला लेकिन कोई माओवादी नहीं मिला। तीन दिनों बाद पता चला कि उन्हीं बच्चों को माओवादियों ने सूचना के लिए लगा रखा था और जवानों के आते ही माओवादियों को जानकारी हो गयी और वे रफ्फूचक्कर हो गये।
इन दो घटनाओं का जिक्र इनकी गतिविधियों के समझने के लिए किया। यदि संक्षेप में खतरे का आकलन किया जाय तो माओवादी आतंकवादियों से ज्यादा खतरनाक हैं, क्योंकि ये आमने-सामने की लड़ाई कभी नहीं लड़ते। इनकी हिम्मत भी नहीं हैं क्योंकि ये कायर होते हैं। ये लोग जहां भी कमजोर देखते हैं, हमला कर देते हैं और भारी पड़ा देख भाग खड़े होते हैं। बीजापुर में हमारे दो दर्जन जवानों की शहादत भी कांकेर के छोटे बेठिया माडल में हुई है। जैसा कि अभीतक जानकारी मिल रही है। उसमें केन्द्रीय फोर्स को ड्रोन कैमरे और अपने सूचना तंत्र से जहां माओवादियों के ठहरने की सूचना थी। वह गलत निकली। माओवादियों ने वहां खुद का पुतला खड़ा कर ड्रोन कैमरे को भी दिग्भ्रमित कर दिया। उससे बहुत पहले ही एम्बुस लगाकर बैठ गये। एम्बुस लगाने का मास्टर हिडमा ने यू आकार की ऐसी घेराबंदी की, जिससे जवान बाहर न निकल सकें। हमारे जवान अभी वहां तक माओवादियों के होने के फिक्र में थे ही नहीं और उनपर ताबड़तोड़ गोलियां बरसने लगी।
सवाल इस बात का है कि हमारे केन्द्रीय फोर्स हो या स्थानीय जवान, उन्हें वहां भेजने से पहले माओवादियों द्वारा की जाने वाली जघन्य घटनाओं और उनकी शातिराना चाल के बारे में विस्तृत रूप से बताया क्यों नहीं जाता। हर अधिकारी व जवान को वहां भेजने से पहले माओवादियों द्वारा किये जा रहे कायराना हमले के बारे में विस्तार से शिक्षित किया जाना चाहिए। इससे जवानों को उनके द्वारा की जा रही कार्रवाई का आकलन हो सकेगा। कहा भी जाता है कि भूत की गलतियों से वर्तमान को सुधारते हुए भविष्य में आगे बढ़ने की कल्पना अच्छी होती है, लेकिन ऐसा होता वहां दिख नहीं रहा है।
इसी का एक नतीजा रहा कि बांदे के एसएचओ को स्थानीय लोगों ने क्रिकेट का उद्घाटन करने के लिए बुलाया। माओवादी वहां खुद सादे वेष में पहुंच गये और खिलाड़ी के रूप में खड़े हो गये। एसएचओ ने ज्यो ही टास फेंका, माओवादियों ने घेरकर वहीं उन्हें शहीद कर दिया और आसानी से निकल गये। इसमें माओवादियों की कायराना हरकत के साथ एसएचओ की लापरवाही भी कह सकते हैं, क्योंकि उस क्षेत्र में यदि उच्चाधिकारी इस तरह की घटनाओं से अपने लोगों को बार-बार अवगत कराते तो नीचे के स्तर के अधिकारी हर वक्त सजग रहते।
दूसरी तरफ आमजन और माओवादियों के संबंधों पर नजर दौड़ायें तो पाते हैं कि आमजन लाचार हैं। सबकुछ जानते हुए भी उनके सिर पर बंदूक तनी होने के कारण वे माओवादियों के मुखबिर हो जाते हैं। कई बार तो सरकार द्वारा गोपनीय जानकारी के लिए रखे गये (डीआरजी) मुखबिर ही उनके लिए भी सूचना पहुंचा देते हैं। बस्तर में पुलिस अधिकांशत जो माओवादी आत्मसमर्पण कर चुके होते हैं, उन्हें ही डीआरजी में रखते हैं। ऐसे में कुछ का संबंध माओवादियों से भी होना लाजिमी ही है। दबाव के कारण वे पुलिस को सूचना के साथ ही माओवादियों को भी सूचित कर देते हैं, जिससे ऐसी घटनाएं हो जाती हैं। लब्बोलुआब यह कि हमारे जवान वहां जंगलों में जान पर खेलकर देश की रक्षा कर रहे हैं।