उपेन्द्र नाथ राय
हिडमा लाल आतंक का एक ऐसा नाम है, जो बस्तर संभाग में पुलिस और केन्द्रीय फोर्स के लिए सबसे बड़ी चुनौती। माओवादियों की दंडकारंय समिति की सबसे उच्च पदाधिकारी कमेटी में कुल 24 लोगों में मात्र दो छत्तीसगढ़ के निवासी हैं। एक सुकमा जिले का हिडमा और दूसरा बीजापुर जिले के बेद्रे थाने के अंतर्गत एक गांव निवासी रामदेर। हिडमा को उच्च समिति में सिर्फ इस कारण रखा गया कि वह सर्वाधिक सटीक निशानेबाज होने के साथ ही एम्बुस का लगाने का सबसे बढ़िया तरीका जानता है। वह कई बार फोर्स को क्षति पहुंचा चुका है। हिडमा माओवादियों के बटालियन नम्बर एक का सचिव भी है। इस बटालियन में हाई क्वालिटी के हथियार धारक 150 हार्डकोर नक्सली है। यही कारण है कि लगभग चार बार पुलिस व केन्द्रीय फोर्स द्वारा लगाये गये एम्बुस से भी वह बचने के साथ ही जवानों को ही क्षति पहुंचा चुका है।
माओवाद को समाप्त करने में तंत्र की विफलता के कारणों को पहले समझना जरूरी है। यदि माओवादी संगठन को देखा जाए तो छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र के गढचिरौली जिला, और तेलगांना के बार्डर को मिलाकर इनकी एक उच्चस्तरीय समिति है दंडकारण्य उच्च समिति। इस समिति में कुल 24 लोग हैं। जो भी उच्च स्तरीय फैसला लेना होता है। यही समिति लेती है। इस दंडकारण्य समिति के क्षेत्र में सर्वाधिक क्षेत्र छत्तीसगढ़ का आता है लेकिन इस समिति पर कब्जा है तेलगांना के लोगों का। इस 24 लोगों की समिति में मात्र दो लोग सुकमा जिले के हिडमा और बीजापुर के रामदेर को रखा गया है। छत्तीसगढ़ की संख्या कम होने का कारण है कि माओवादी संगठन के लोग छत्तीसगढ़ वालों को बुद्धिहीन मानते हैं। रामदेर और हिडमा को भी दो-तीन बड़ी घटनाओं को अंजाम देने में प्रमुख भूमिका निभाने के कारण रख दिया गया।
बीजापुर जिले के रामदेर माओवादियों के मिलिट्री कंपनी नम्बर पांच का कंमाडर है और उच्च समिति का सदस्य है। दंडकारंय क्षेत्र को एक प्रदेश मानकर माओवादियों की यह 24 सदस्यीय मंत्रीमंडल हर काम की देखरेख करता है।
जिस तरह से प्रदेश में मंडल बटे होते हैं। वैसे ही इस दंडकारंय समिति के तीन मंडल हैं। उत्तरी मंडल, दक्षिणी मंडल और पश्चिमी मंडल। उत्तर मंडल में उत्तर बस्तर, राजनादगांव, मांड एरिया, उत्तर और दक्षिण गढचिरौली। इस मंडल अर्थात कमांड एरिया का कमांड रामदेर देखता है। वहीं दक्षिण रिजनल कमांड में सुकमा, दंतेवाड़ा का कुछ इलाका, और बस्तर जिला आता है। इसका अभी तक कोई कमांडर न होने के कारण इसका कमांड हिडमा ही करता है। वहीं पश्चिम कमांड एरिया में बीजापुर जिला आता है। इसमें भी अभी स्थायी नियुक्ति न होने के कारण वैंकटेश (तेलंगाना का) ही देख रहा है। इससे पहले रमन्ना और गणपति प्रमुख रूप में दंडकारंय समिति में थे लेकिन पिछले साल रमन्ना मारा गया और गणपति छोड़ दिया। इन्हीं की जगह पर नमल्ला केशवराव को ले आया गया। वह भी तेलंगाना का ही रहने वाला है।
अब इस तीन मंडल या जोन में जिला डिवाइड है। इसका सचिव एसपी रैंक का माओवादी होता है। जैसे कमलेश उत्तर बस्तर का सचिव है। इस सचिव के अंडर में एरिया कमांडर (यह भी सचिव ही कहलाता है।) होता है। यदि पुलिस से इसकी तुलना करें तो एसडीओपी अर्थात सीओ रैंक का होता है। इसके अंडर में एलओएस, जिसकी तुलना पुलिस के थाने से कर सकते हैं। एक एलओएस में आठ से 12 तक माओवादी होते हैं। इन्हें भरमार बंदूक या छोटे हथियार दिये जाते हैं। एलओएस कमांडर को हैवी हथियार दिया जाता है। उत्तर प्रदेश की पुलिस की व्यवस्था से समझे तो हैवी घटनाओं को अंजाम देने के लिए माओवादियों ने कंपनी बना रखी है। कंपनी के माओवादी एसएलआर, एके-47 जैसे हथियार से लैस होते हैं। यह कंपनी जिस एलओएस के क्षेत्र में जाती है। वहां का एलओएस कमांडर और एलओएस के माओवादी उसका मार्गदर्शन करते हैं। यह तो बात हुई हार्डकोर माओवादियों की।
इसके अलावा माओवादियों और जनता के बीच पुल का कार्य करने के लिए माओवादियों का एक संगठन जनताना सरकार है। ये सादी वर्दी में गांव में रहकर कार्य करते हैं। इनका काम है कि उनके क्षेत्र में हार्डकोर माओवादी जंगल में ठहरता है तो उनके लिए खाने से लेकर अन्य इंतजाम करना। इसके अलावा अपने क्षेत्र की हर गतिविधि के बारे में हार्डकोर माओवादियों को सूचना देना। माओवादी बनने के लिए लोगों को प्रचार करना। आमजन के बीच रहकर वसूली आदि का काम भी इन्हीं के जिम्मे रहता है। जब तक यह रीढ़ नहीं टूटेगी, तब तक माओवादियों का सफाया नहीं हो सकता। हालांकि प्रशासन ने बहुत कुछ माओवादियों को सरेंडर करने पर विवश भी किया है। जनताना सरकार अब बहुत कमजोर हो रही है। माओवाद के हार्डकोर की भर्तियां भी कम हुई हैं लेकिन अभी भी बहुत कुछ बाकी है। यदि सरकार की गति ऐसे भी बनी रही तो इसे समाप्त करने में दो दशक लग जाएंगे।
माओवादियों के एक दूसरे कोर को देखें, वह है माझा पार्टी। यह ढोल मजीरा लेकर गांव के बाहर चौपाल लगाती है। इस पार्टी में भी आम आदमी ही होते हैं। यह गीत के माध्यम से सरकार के खिलाफ लोगों को भड़काते हैं और माओवादी संगठन से जुड़ने के लिए प्रेरित करते हैं। पहले तो यह खुलेआम दूर-दराज के इलाकों में काम करते थे। प्रचार के समय पुलिस भी जल्द इनके पास नहीं फटकती थी लेकिन अब पुलिस के दबाव में इनकी संख्या बहुत कम रह गयी है।
उत्तर बस्तर कांकेर में तीन वर्ष तक पत्रकारिता में रहकर जो हमने माओवाद की गंभीरता को समझा, उसका लब्बोलुआब यह है कि माओवाद को खत्म करने के लिए सरकार द्वारा अपनाये जा रहे वर्तमान कार्य सिर्फ कोनैन की गोली है। इसको यूं समझा जाय की माओवाद एक मलेरिया रोग है। यदि मलेरिया रोग से निजात के लिए अंग्रेजी दवा कोनैन तो काम आती है, जो कि फोर्स काम कर रही है लेकिन उसको जड़ से खत्म करना है तो जरूरी है कि मलेरिया के मच्छर को खत्म किया जाय। ये मच्छर हैं, वहां का पिछड़ापन। इसका अंदाजा इसी से लगा सकते हैं कि कांकेर को माओवाद का द्वार कहा जाता है। वहीं से माओवादियों के क्षेत्र की शुरूआत होती है। कांकेर का आमाबेड़ा क्षेत्र आज भी ऐसा है, जहां के लोग हिन्दी तो दूर छत्तीसगढ़ी भाषा भी नहीं बोल पाते। वे सिर्फ गोंडवी बोलते हैं। प्रशासन या केन्द्रीय फोर्स के लोग गोंडवी न जानने के कारण उनसे कभी घुल-मिल नहीं पाते। माओवादियों में एलओएस कमांडर बनने के लिए अनिवार्य योग्यता है हिन्दी, अंग्रेजी के साथ ही जिस क्षेत्र में हैं, उसकी स्थानीय भाषा को जानना। इस कारण वे आसानी से अपनी बात समझा ले जाते हैं। जो समझने को तैयार नहीं, उसे पुलिस का मुखबिर बताकर मार देते हैं। यदि एक आदमी समूह के बीच में ही मार दिया जाता है तो अगला न समझते हुए भी माओवाद को समझने के लिए विवश हो जाता है। पुलिस के पहुंचने से पहले ही माओवादी अपना काम करने में सफल हो जाते हैं। सड़क की व्यवस्था में कुछ सुधार तो हुआ है लेकिन आज भी कई ऐसे क्षेत्र हैं, जहां लोगों को 10-12 किमी तक पैदल ही चलना पड़ता है। यदि माओवाद को खत्म करना है तो सरकार को वहां सड़क, पानी के साथ ही शिक्षा की व्यवस्था पर जोर देना होगा।
हिडमा और रामदेर जैसे माओवादियों को मारने से पहले उसकी जड़ों को काटना जरूरी है वरना नये रामदेर पैदा हो जाएंगे। यह जरूरी है कि उनके आय के स्रोत को खत्म किया जाय। इसके साथ ही लोगों को समझाया जाय। छत्तीसगढ़ के लोग बहुत ही सीधे होते हैं। उनको समझाना आसान होता है, बशर्ते उनकी भाषा, उनके भाव में आप तल्लीन हो जायं। इसी भाषा का फायदा माओवादी उठाते हैं, जब इसे प्रशासन उठाने लगेगा तो फिर माओवाद समाप्त होने से कोई नहीं रोक सकता।
एक दूसरे पहलु पर विचार करें तो माओवादियों में भी स्पष्ट सिर फुटौवल है। इसका पुरा फायदा अभी तक प्रशासन नहीं उठा रहा। माओवादियों में हर उच्च पद पर तेलंगाना का आदमी बैठा है। इसका कारण है कि तेलंगाना वाले छत्तीसगढ़ वालों को हीन भावना से देखते हैं। नीचे माओवादी का काम छत्तीसगढ़ वालों से लिया जाता है। पैसे की वसूली करोड़ों में छत्तीसगढ़ से होती है लेकिन वह पैसा तेलंगाना को चला जाता है। उसमें से आतंकियों को खर्च के लिए मात्र 1200 रुपये मिलते हैं। नीचे के माओवादी को शादी से भी मनाही है लेकिन कमांडर से ऊपर के लोग शादी कर सकते हैं। इन्हीं सब कारणों से छत्तीसगढ़ के माओवादी हमेशा अपने को दबा हुआ महसूस करता है। उसमें से अधिकांश लोग बाहर निकलने के लिए प्रयास रत रहते हैं लेकिन वे भी करें तो क्या करें। माओवाद अर्थात लाल आतंक एक ऐसी जगह है, जहां से एक तरफ समुद्र है तो दूसरी तरफ पहाड़। चाहे जिधर जाएं, आपको भुगतना ही है। यदि पुलिस में सिरेंडर करने के लिए माओवादी जुगाड़ लगाता है तो पता चलते ही माओवादियों द्वारा मार दिया जाएगा। उधर यह भी डर रहता है कि पुलिस सलेंडर के नाम पर बुलाकर इंकाउंटर करके अपनी वाहवाही लुटने का प्रयास कर सकती है।
(लेखक तीन साल तक माओवादी क्षेत्र उत्तर बस्तर में राजस्थान पत्रिका के ब्यूरोचीफ रह चुके हैं।)