राजेश श्रीवास्तव
अपने देश में सियासत भी अजब-अजब रंग दिखाती है। अब तो राजनीति में शुचिता और भरोसे की कल्पना करना भी बेमानी हो गया है। देश में तकरीबन डेढ़-दो दशक पहले ऐसे नेता के रूप में मायावती को देखा था जो अपने जीवित रहते ही अपनी मूर्तियों को जगह-जगह तामीर करवा रही थीं। इसी कड़ी में नरेंद्र मोदी का नाम जुड़ जायेगा किसी ने सोचा नहीं होगा। दुनिया के सबसे बड़े मोटेरा स्टेडियम का नाम अब बदलकर नरेंद्र मोदी स्टेडियम हो गया है। हालांकि ऐसा पहली बार नहीं है जब स्पोर्ट्स स्टेडियमों के नाम नेताओं के नाम पर रखे गए हैं । जवाहर लाल नेहरू के नाम पर देश में 9 स्टेडियम, अटल बिहारी वाजपेयी के नाम पर भी देश में 2 क्रिकेट स्टेडियम, हैदराबाद का स्टेडियम राजीव गांधी के नाम पर हैं। 2०19 में फिरोज शाह कोटला स्टेडियम का नाम बदल जेटली के नाम पर रखा गया । दिलचस्प यह भी है कि भारत में किसी भी क्रिकेटर के नाम पर कोई भी क्रिकेट स्टेडियम नहीं है। हालांकि, क्रिकेट प्रशासकों के नाम पर स्टेडियमों का नामकरण जरूर हुआ है जैसे चेन्नई का एमए चिदंबरम स्टेडियम, बेंगलुरु का चिन्नास्वामी, मुंबई का वानखेड़े और मोहाली का आईएस बिद्रा स्टेडियम। हॉकी के दो दिग्गजों के नाम पर देश में दो क्रिकेट स्टेडियम जरूर हैं। एक है लखनऊ का केडी सिह बाबू स्टेडियम और दूसरा ग्वालियर का कैप्टन रूप सिह स्टेडियम।
दरअसल मोदी स्टेडियम में दो एंड का नाम – अडानी एंड और रिलायंस एंड रखा गया है। स्टेडियम के नाम बदलने के साथ साथ इन पैवेलियन एंड के नाम को लेकर भी चर्चा ज़ोर पकड़ रही है। हालांकि इस स्टेडियम के नवीनीकरण में दोनों उद्योगपतियों ने पैसा ख़र्च किया है या नहीं इसकी आधिकारिक जानकारी नहीं है । एक छोर अंबानी की कंपनी के नाम से ‘रिलायंस एंड’ कहलाएगा तो दूसरा गौतम अडानी के नाम पर ‘अडानी एंड’ कहा जाएगा। ऐसा उस स्टेडियम में हुआ है जिसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नाम पर जाना जाएगा सवाल यह है कि क्या हिन्दुस्तान के सबसे बड़े क्रिकेट स्टेडियम के दोनों छोरों के नाम नीलाम किए गये थे? क्या प्रायोजन संबंधी प्रोटोकॉल के अनुरूप ऐसा किया गया है? अगर ऐसा है तो इसकी कोई मियाद भी होगी। एक साल, दो साल, दस साल…आखिर कब तक रिलायंस और अडानी के नाम पर क्रिकेट के छोर बने रहेंगे और हमारे कमेंटेटर क्रिकेट की कमेंट्री करते समय मंत्र की तरह उनका उच्चारण करते रहेंगे? इससे क्रिकेट को क्या फायदा होगा?
गुजरात के मुख्यमंत्री रहते ही नरेंद्र मोदी ने मोटेरा स्टेडियम को लेकर एक सपना देखा था- यह बात दुनिया को बतायी गयी। वह सपना सच हुआ, यह भी हमने जाना। मगर, क्या नरेंद्र मोदी ने ऐसा सपना देखा था कि वे वल्लभ भाई पटेल स्टेडियम से पटेल का नाम हटाकर अपना नाम जोड़ लेंगे? नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बनकर अपने इस सपने को अंजाम देंगे, क्या उन्होंने कभी ऐसा सोचा होगा? हममें से कोई यकीन नहीं कर सकता कि ऐसा बहुत साल पहले सोच लिया गया होगा । एक ऐसी परंपरा पनप रही है जिसमें खुद ‘नरेंद्र मोदी स्टेडियम’ भी आगे सुरक्षित रहेगा या नहीं, कहा नहीं जा सकता। अभी इस किस्म के दावे करना आपको चौंका सकता है लेकिन इस दावे के पीछे भी अतीत की प्रवृत्तियां ही हैं। वैश्विक स्तर पर रूसी नेता लेनिन से अधिक लोकप्रिय नेता का उदाहरण नहीं मिलता, जिनकी लाश आज भी सुरक्षित है। मगर, मूर्ति? मूर्ति को जमींदोज होते दुनिया ने देखा है। लेनिनग्राद का नाम भी बदला जा चुका है। न तो वल्लभ भाई पटेल ने कभी कहा था कि उनके नाम पर स्टेडियम बनाया जाए और न ही नाम मिटाते वक्त उनकी सहमति का कोई सवाल पैदा होता है। आखिर हमने अपने देश के सर्वाधिक लोकप्रिय नेता के साथ ऐसा क्यों किया?
सरकार के इस क़दम से बहुत सारे लोगों को हैरत हुई है तो कई ने सवाल भी खड़े किए हैं। हैरानी की मुख्य रूप से दो वज़हें हैं। अव्वल तो यह कि जब कोई नेता किसी पद पर आसीन रहता है तो वह अमूमन ऐसा नहीं करता, क्योंकि इसे नैतिक और राजनैतिक, दोनों लिहाज़ से अच्छा नहीं समझा जाता है। आप ख़ुद अपने नाम के संस्थान खड़े करें या पहले से मौजूद संस्थानों के नाम बदलकर अपने नाम पर कर दें, इसे अच्छी नज़रों से नहीं देखा जाता है। पद पर रहते हुए किसी भी नेता से अपेक्षा की जाती है कि वह ख़ुद अपना महिमामंडन नहीं करेगा। इसे आत्मप्रचार का नग्नतम रूप समझा जाता है। पद से हटने के बाद उसकी पार्टी की अगर सरकार हुई तो ऐसा कर सकती है, बल्कि करती भी रही है। पार्टियाँ दूसरे दलों की सरकारों से भी माँग कर सकती हैं कि उनके नेता के नाम पर कुछ किया जाए। लेकिन इसकी तो मिसालें नहीं मिलतीं और अगर होंगी भी तो बहुत विरले कि किसी पदासीन प्रधानमंत्री ने ख़ुद को इस तरह से स्थापित, प्रतिष्ठित करने के लिए ये अलिखित मर्यादा तोड़ी हो।
किसी भी प्रतिष्ठित राजनेता के लिए सबसे अच्छी बात तो यह होती है कि वह अपना मूल्यांकन भविष्य पर छोड़ दे और इतिहास को अपनी जगह तय करने दे। यह समझदारी इसलिए भी अपेक्षित होती है कि इतिहास बहुत निर्मम होता है, वह किसी को बख़्शता नहीं है। ख़ास तौर पर जब कोई ख़ुद को उस पर लादने की कोशिश करता है। आत्ममुग्धता निरंकुश शासकों के स्वभाव का अंग होती है। वे आत्मरति में लीन रहते हैं। श्रेष्ठता का भाव इतना अधिक होता है कि वे अपने सामने किसी को भी कुछ नहीं समझते। उनमें एक अमिट भूख भी होती है इतिहास पर छाप छोड़ने की, अमर हो जाने की। इसके लिए वे किसी भी हद तक जा सकते हैं। अपनी इसी चारित्रिक विशेषता के चलते वे पुराने शासकों की स्मृतियों को नष्ट करते हैं और अपनी उपस्थिति हर जगह अंकित कर देना चाहते हैं। वर्तमान संसद की जगह सेंट्रल विस्ता में छेड़छाड़ करके नई संसद का निर्माण भी इस प्रोजेक्ट का हिस्सा हो सकता है और स्टेडियम का नाम बदलना भी।
इसलिए कोई हैरत नहीं होनी चाहिए कि सरदार पटेल स्टेडियम का नाम बदलने का सुझाव ऐसे ही किसी चाटुकार दिमाग़ से निकला हो और वह प्रधानमंत्री को जँच गया हो। ज़ाहिर है कि उन्हें समझाने या रोकने की हिम्मत करने वाला कोई उनके आसपास होगा नहीं, क्योंकि ऐसे लोग दरबार में टिक ही नहीं सकते। इस पर ग़ौर किया जाना चाहिए कि जिन प्रधानमंत्रियों और नेताओं की दृष्टि लोकतांत्रिक रही है, जिनका हृदय विराट रहा है, उन्होंने इस तरह की भौंडी कोशिशें नहीं कीं, बल्कि इनसे सख़्त परहेज ही किया है। प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू से लेकर मनमोहन सिह तक किसी ने भी इस तरह की हरकत नहीं की। इनमें चंद्रशेखर, देवेगौड़ा, गुजराल और अटल बिहारी वाजपेयी भी शामिल हैं। यह सही है कि पटेल ने गाँधी जी की हत्या के बाद संघ पर प्रतिबंध लगाया था। वे मानते थे कि संघ द्बारा बनाए गए माहौल की वज़ह से ही गाँधी की हत्या हुई। वे संघ की विचारधारा से असहमत भी थे। लेकिन इसके बावजूद संघ को उनकी ज़रूरत है, क्योंकि उसके पास अभी भी अपने इतिहास पुरुष नहीं हैं। वह उन्हें भी रखेगी और दूसरे नेताओं को हड़पने का अभियान भी जारी रखेगी। उन्हें इनकी ज़रूरत कांग्रेस को इनसे वंचित करने के लिए भी है। कांग्रेस को स्वतंत्रता संग्राम के नायकों से काटना भी उसकी रणनीति का ही हिस्सा है।