सबसे बुरी स्थिति, क्या होगा परिणाम, कितने लोगों की मौत… सब जोड़-घटाव करते हैं डोवाल, फिर होता है ‘स्ट्राइक’

हकीकत में ‘जेम्स बॉन्ड’ जैसी जिंदगी जी चुके भारत के वर्तमान राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोवाल (अजीत डोभाल) एक ऐसी शख्सियत हैं, जिनके जीवन से जुड़े किस्से किसी फिल्मी हीरो से कम नहीं हैं। इनकी दूरदर्शिता का ही परिणाम रहा कि भारत कई पूर्वानुमानित हमलों से सुरक्षित बच सका। न जाने कितने आतंकियों को इन्होंने बातों ही बातों में सरेंडर करवाया और न जाने कितनों को भारत के पाले में आने के लिए मना डाला।

स्थिति से निपटने और त्वरित फैसले लेने की इनकी फितरत का ही परिणाम था कि कश्मीर से लेकर मिजोरम तक में उठी विद्रोह की आवाजों का समय रहते निपटान हो सका और बाद में सर्जिकल स्ट्राइक व बालाकोट एयर स्ट्राइक के जरिए डोवाल ने साबित किया कि उनका कोई विकल्प हो ही नहीं सकता।

20 जनवरी 1945 में इस शख्सियत ने उत्तराखंड के पौड़ी गढ़वाल में जन्म लिया था। आज वह अपने जीवन के 75वें वर्ष में हैं। आर्मी परिवेश में परवरिश पाकर सिविल सर्वेंट के तौर पर करियर की शुरुआत करने वाले डोवाल के इस एक जीवन में अनेक किस्से रोमांचकारी हैं।

अजमेर मिलिट्री स्कूल से शिक्षा पाने वाले डोवाल ने 1967 में आगरा विश्व विद्यालय से अर्थशास्त्र में एमए कर स्नाकोत्तर की उपाधि ली। इसके बाद देश सेवा की इनकी भावना ने इन्हें 1968 में IPS के पद तक पहुँचाया। IPS बनने के बाद उन्होंने केरल कैडर में अपनी पोस्ट संभाली और 1972 में वह इंटेलीजेंस ब्यूरो में आ गए। हमारे राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार की सबसे खास बात यह है कि उन्होंने आईपीएस होने के बाद पुलिस वर्दी को सिर्फ़ कुछ सालों तक पहना और उसके बाद नए-नए प्रोजेक्ट के लिए अपना हूलिया बदलते रहे।

पाकिस्तान में 7 साल तक जासूस बन कर रहने वाला इनका किस्सा सबसे ज्यादा मशहूर है। लेकिन यदि इनकी जीवन यात्रा को देखें तो ये केवल एक उपलब्धि नहीं है जो एक सिविल सर्वेंट को राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार तक का सफर तय करवाती है। उनसे जुड़ी तमाम घटनाएँ हैं, जो बताती हैं कि सामान्य व्यक्ति के लिए अजीत डोवाल होना अत्यंत कठिन है। इनके नाम कई सफल ऑपरेशन रहे हैं। जैसे:

1986 में मिजोरम में इन्सर्जेंसी को खत्म करने वालों में डोवाल एक प्रमुख नाम हैं। वहीं पंजाब में भी 80 के दशक में आतंकियों को निष्क्रिय करवाने में डोवाल की भूमिका थी। कहते हैं कि 80 के दशक में जब पंजाब में विद्रोह हुआ और खालिस्तान की माँग उठने लगी, उस समय 1984 के ब्लू स्टॉर ऑपरेशन से आतंकियों का सफाया नहीं हो पाया और 1988 में ऑपरेशन ब्लैक थंडर को अंजाम दिया गया।

इस पूरे ऑपरेशन में डोवाल ने उस समय रिक्शा वाला बनकर जरूरी भूमिका निभाई थी और जब पकड़े गए थे तो आतंकियों को यह कहकर बच निकले थे कि वो पाकिस्तान के ISI से उन लोगों की मदद करने आए हैं। इस अभियान में डोवाल ने सारी जानकारी ब्लैक कमांडो तक पहुँचाई और उसी के बाद पूरे ऑपरेशन को अंजाम दिया गया। कहते हैं कि जब ब्लैक कमांडो ऑपरेशन के लिए गोल्डन टेंपल में घुसे, तब भी डोवाल वहीं मौजूद थे। इसी तरह उन्होंने पाकिस्तान के इस्लामाबाद में बतौर जासूस भेष बदल कर लंबा समय बिताया था।

साल 1999 में कंधार में आईसी-814 में यात्रियों के अपहरण के मुद्दे पर अजीत डोवाल उन 3 अधिकारियों में से एक थे, जिन्होंने रिहाई के मुद्दे पर देश की ओर से बात की थी। इसके अलावा उनको 1971 से 1999 तक हुए सभी 15 हाईजेकिंग मामलों को संभालने का अनुभव प्राप्त है।

एक दशक तक उन्होंने आईबी के ऑपरेशनों का नेतृत्व किया और मल्टी एजेंसी सेंटर के फाउंडर चेयरमैन भी रहे। 2005 में वह इंटेलीजेंस ब्यूरो से रिटायर हुए और 2009 में विवेकानंद इंटरनेशनल फाउंडेशन के फाउंडिग डायरेक्टर बने।

लंबे समय तक राष्ट्रीय सुरक्षा मामलों में अपना सर्वेश्रेष्ठ प्रदर्शन देकर वह 30 मई 2014 को भारत के पाँचवे राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार नियुक्त किए गए। उनके NSA पद संभालते ही भारत में 46 नर्सों की घर वापसी हुई।

फिर डोवाल ने सेना प्रमुख के साथ म्यांमार के बाहर चल रहे आतंकवादियों के खिलाफ अभियान में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और साल 2016 में हुई सर्जिकल स्ट्राइक में भी उनकी भूमिका को अहम माना जाता है।

2018 में उन्हें स्ट्रेटेजिक पॉलिसी ग्रुप का अध्यक्ष नियुक्त किया गया और साल 2019 में जब पाकिस्तान के आतंकियों ने पुलवामा में भारतीय जवानों पर हमला किया तो भारतीय वायुसेना ने बदले में बालाकोट एयर स्ट्राइक को अंजाम दिया। इस कार्रवाई में भी डोवाल का दिमाग था। सबसे हाल की बात करें तो जब दिल्ली दंगों के कारण उत्तर पूर्वी दिल्ली का माहौल बिगड़ा तो डोवाल ने मोर्चा संभाला और आवश्यक कार्रवाई का आदेश दिए।

राष्ट्रीय सुरक्षा के प्रति डोवाल की प्रतिबद्धता अतुलनीय है। जाहिर है किस्से भी इतने ही होंगे। लेकिन वो ये सब कैसे कर पाते हैं, इस पर उन्होंने साल 2019 में डॉ अभय जेरे को दिए साक्षात्कार में बताया था। अपनी व्यक्तिगत निर्णय-प्रक्रिया के बारे में बात करते हुए उन्होंने कहा था कि वे सबसे बुरी स्थिति को सबसे पहले दिमाग में स्पष्ट तौर पर कल्पित करते हैं। उसकी ‘कीमत’ के बारे में सोचते हैं– यहाँ तक कि लोगों की मृत्यु के खतरे को भी कीमत-बनाम-परिणाम के रूप में। फिर वे उस worst-case-scenario के छोटे-छोटे हिस्सों में छोटे-छोटे सुधार करने के तरीके ढूँढ़ते हैं।

इस प्रक्रिया को करते हुए वह worst-case-scenario को उस स्तर पर ले आने की कोशिश करते हैं, जहाँ निर्णय को लेने से होने वाला नुकसान, या उस निर्णय की ‘कीमत’, उससे होने वाले संभावित फायदे से कम हो जाए- यह उस निर्णय पर अमल करने की न्यूनतम शर्त होती है। बाद में वह इसमें और भी सुधार की जहाँ कहीं गुंजाईश हो, उसे करते रहते हैं। उनके अनुसार ‘कठिन निर्णय’ की परिभाषा है – ऐसा निर्णय, जिसके परिणाम एक बड़ी संख्या के लोगों को एक लम्बे समय के लिए प्रभावित करें। ऐसे निर्णयों में वह बताते हैं कि छोटी-सी चूक कई बार इतिहास की पूरी धारा पलट देती है।

वह कहते हैं कि उनके चरित्र, मन और मानसिक स्थिति का निर्माण किसी एक घटना या कारण से नहीं हुआ। दूसरे, इसे चैतन्य रूप से, किसी योजना के तहत नहीं बनाया जा सकता, क्योंकि जिस चीज़ की हम योजना पहले ही बना चुके हैं, उसका हमारे मन पर न्यूनतम प्रभाव होता है। असल में मन का निर्माण और विकास उन चीजों से होता है जो हमारी योजना का हिस्सा नहीं होतीं।