आज ‘किसान आंदोलन’ के नाम पर हिन्दुओं और सिखों को अलग-अलग दिखाने की कोशिश हो रही है, इन दोनों में दरार पैदा किया जा रहा है और वैमनस्य का माहौल बनाया जा रहा है। जिस पार्टी ने सिखों का नरसंहार करवाया, वो आज उनकी हितैषी होने का दावा कर रही है। क्या सच में ऐसा है? इसके विश्लेषण के लिए सिखों के दसवें और अंतिम गुरु गोविंद सिंह की जयंती से अच्छा मौका कब हो सकता है।
आगे बढ़ने से पहले जानते चलें कि गुरु गोविंद सिंह का जन्म आज के पटना साहिब में दिसंबर 22, 1666 में हुआ था। उनके पिता गुरु तेग बहादुर नौवें सिख गुरु थे, जिन्हें मुगलों के हाथों अत्याचार का सामना करना पड़ा। इस्लामी आक्रांताओं ने उनकी हत्या कर दी, जिसके बाद मात्र 9 वर्ष की आयु में ‘गोबिंद राय’ को गुरु की पदवी संभालनी पड़ी। उन्होंने ‘दशम ग्रंथ’ की रचना की और सिख योद्धा समुदाय ‘खालसा’ की स्थापना की।
गुरु गोविंद सिंह का नाम ही ‘गोविंद’ था, जो भगवान कृष्ण का नाम था। उनके पिता ने मौत को इसीलिए हँसते हुए गले लगा लिया, क्योंकि उन्हें कश्मीरी पंडितों पर हो रहे अत्याचार और जबरन इस्लामी धर्मांतरण का प्रतिकार करना था। गुरु गोविंद सिंह के 4 साहिबजादों ने भी धर्म के लिए क़ुरबानी दे दी। आज ये तथ्य झुठलाया नहीं जा सकता कि इस पूरे अत्याचार की जड़ इस्लामी आक्रांता थे, उनकी क्रूरता थी।
फ़तेह शाह, रुस्तम खान, पाइंदा खान, दीना बेग, वज़ीर खान, सैयद खान, रमजान खान, जबरदस्त खान और नाहर खान – ये उन इस्लामी कमांडरों के नाम थे, जिनके खिलाफ गुरु ने एक दर्जन से भी अधिक युद्ध लड़े। इनमें से अधिकतर औरंगज़ेब के पिट्ठू ही थे। इस दौरान राजा धर्मपाल जैसों ने गुरु का साथ दिया। मुग़ल इस बात से नाराज थे कि गुरु गोविंद सिंह ने सिखों को योद्धा बना दिया। वो चाहते थे कि उनके अत्याचारों का प्रतिकार ही न हो।
ख़ालसा को एक ख़ास पहचान दी, एक ख़ास कार्य सौंपा गया और इसीलिए संगत में ये ख़ास हुए। आगे के कई युद्धों में खालसा पंथ ने जो बहादुरी दिखाई, वो तो इतिहास है। 13 अप्रैल वो तारीख है, जब 1699 में गुरु गोविन्द सिंह ने खालसा पंथ की स्थापना की थी। 321 साल हो गए लेकिन सिखों का मातृभूमि और धर्म के प्रति आस्था अडिग ही होती चली गई। गुरु गोविन्द सिंह ने एक तरह से समुदाय को पुनर्जीवन दिया।
सिख गुरु हिन्दू देवी-देवताओं की ही पूजा करते थे, तीर्थाटन करते थे। गुरु नानक अयोध्या सहित पूरे देश के हिन्दू तीर्थों के यात्रा पर निकले थे। मध्यकालीन युग में हिंदू और सिख योद्धाओं और महान शख्सियतों की लड़ाई इस्लामी आक्रमण से ही थी। 11वीं शताब्दी से ही भारत में आतंक मचाने वाले इस्लामी आक्रांताओं ने तब तक अपनी क्रूरता जारी रखी, जब तक 18वीं सदी में मराठों ने उन्हें नेस्तनाबूत नहीं किया।
उससे पहले विजयनगर साम्राज्य, मराठे, राजपूत साम्राज्य और दक्षिण भारत के साम्राज्यों ने हिन्दू अस्मिता को जिंदा रखा। वो मुस्लिम आक्रांताओं से लोहा लेते रहे। भक्तिकाल आया और आम जनमानस में हिंदुत्व को जिंदा रखने का बीड़ा कवियों-संतों ने उठा लिया। गुरु ग्रंथ साहिब में भगवान श्रीराम और उनकी कथा का जिक्र है। सिख और हिंदू कभी अलग थे ही नहीं। उन्हें अलग करने की साजिश पहले मुगलों ने की, अब कुछ राजनीतिक दल कर रहे हैं। वो चाहते हैं कि सिखों को गुरु गोविंद सिंह की शिक्षा याद न रहे और वो हिन्दुओं से घृणा करें।
गुरु ग्रन्थ साहिब सिखों की सबसे पवित्र पुस्तक है। गुरु गोविंद सिंह जानते थे कि आने वाले समय में अगर गुरु परंपरा जारी रही तो इसका गलत उपयोग किया जा सकता है, इसीलिए उन्होंने गुरु ग्रन्थ साहिब को ही सिखों को गुरु के रूप में मानने का निर्देश दिया, क्योंकि इसमें सभी सिख गुरुओं की वाणी समाहित है। इसी में गुरु अमरदास ने राम का नाम परमात्मा के रूप में लिखा है। उन्होंने इसमें समझाया है:
राम-राम करता सभ जग फिरै, राम न पाया जाए।
गुर कै शब्दि भेदिआ, इस बिध वासिया मन आए।।
इसमें उन्होंने बताया है कि सिर्फ राम नाम लेने से परमात्मा प्राप्त नहीं हो जाते, बल्कि हमें इस शब्द के मर्म को भी अपने मन में बसाना चाहिए। सिख गुरुओं ने राम और परमात्मा को एक ही माना है।ऐसे में आज अगर अचानक कुछ लोग आकर कहते हैं कि राम मंदिर सिखों का नहीं है या फिर हिन्दू और सिख अलग हैं, तो उनके मन में खोट है। नाम जपने की परंपरा हिन्दुओं में भी है, सिख गुरुओं ने भी इसकी महिमा का बखान किया है। गुरु नानक से लेकर गोविंद सिंह तक ने, किसी ने सिखों व हिन्दुओं को अलग नहीं समझा।
राम को सिखों से अलग नहीं किया जा सकता। गुरु अर्जुन दास ने ‘आदिग्रन्थ’ में ही रामकथा कह दी है। आप एक बात पर गौर कीजिए। सिख धर्म में निर्गुण की ही उपासना होती आई है और वहाँ अवतारों को लेकर उस तरह की मान्यता नहीं है। बावजूद इसके ‘हुकमि उपाई दस अवतारा‘ लिख कर गुरुवाणी ने सनातन के दशावतार को मान्यता दी है। राम-रावण युद्ध का प्रसंग भी उसमें है। “भूलो रावण मुगधु अचेति, लूटी लंका सीस समेत” वाली पंक्ति पर गौर कीजिए।
स्वयं गुरु नानक ने ही राम को गुरुमुख के रूप में चित्रित किया है। परमात्मा की शक्ति से मंडित मुक्तात्मा को ही इन ग्रंथों में ‘गुरुमुख’ कहा गया है। गुरु नानक लिखते हैं, “गुरुमुखि बाँधियों सेतु बिधातै, लंका लूटी देती संतापै। रामचंद्र मारिउ अहिं रावण, भेद बभीषन गुरुमुखि परचाईवु।” निर्गुण ब्रह्म सर्वव्यापक है और गुरु ग्रन्थ साहिब में उसे ‘राम’ कह कर ही पुकारा गया है। गुरुवाणी में बार-बार राम नाम का प्रयोग है।
Historical texts speak of the tradition, which some Sikhs till this day, observe and celebrate Dusshera, the day when Rama killed the demon Ravana. The celebration includes the reading of the Ramavatar along with other writings from the Dasam Granth. pic.twitter.com/ZEJ5bO4rfV
— Jvala Singh (@jvalaaa) July 23, 2020
अब आज बहुत से ऐसे लोग पैदा हो गए हैं, जो कहते हैं कि कबीर के राम अलग थे, तो नानक के राम अलग थे, बाल्मीकि के राम अलग थे और तुलसीदास के राम अलग थे। असल में ये सब भुलावे के लिए किया जाता है। राम एक ही थे, उन्हें विभिन्न महापुरुषों ने अलग-अलग रूप में देखा। कहीं वो मर्यादा पुरुषोत्तम हैं, कहीं एक आदर्श राजा तो कहीं परमब्रह्म। वो तीनों ही हैं। सिखों और हिन्दुओं में दरार पैदा करने के लिए इस तरह की बातें की जाती हैं।
गुरु गोविंद सिंह ने प्राचीन सनातन ग्रंथों का आम जनमानस की भाषा में अनुवाद किया। ‘गोविंद रामायण’ का जिक्र प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी किया था। गुरु गोविंद सिंह ने नैनादेवी पहाड़ के नीचे सतलज नदी के किनारे बैठ कर जुलाई 23, 1698 को ‘रामावतार’ की रचना पूरी की थी। इनमें करीब 900 श्लोक युद्ध को लेकर विस्तृत विवरण देते हैं। सिख आज भी दशहरा मनाते हैं। उन्होंने इसके अंत में लिखा है – “रामायण अनंत है। रामकथा सदा अनादि और अनंत रहेगी।“
असली बात तो ये है कि जिस 1984 के दंगे ने सिखों और हिन्दुओं के बीच दरार डाली, उसी दंगे के अपराधी आज दोनों को फिर से अलग करने में लगे हुए हैं और खुद को सिखों का हितैषी बता रहे हैं। गुरु गोविंद सिंह के जिन साहिबजादों को दीवार में जिंदा चुनवाया गया और युद्ध में मार डाला गया, उन इस्लामी आक्रांताओं के वंशजों की पैरवी की जाती है। सिख और हिंदू सनातन के ही अंग हैं और सदा रहेंगे, गुरु गोविंद सिंह की रामकथा की तरह। सिखों और हिन्दुओं में घृणा फैलाने वाले गुरु गोविंद सिंह को पढ़ें।
अनुपम कुमार सिंह (सभार)