मन की बात करने वाले पीएम क्यों नहीं समझ रहे अन्नदाता के मन की बात

राजेश श्रीवास्तव

अन्नदाता सड़क पर हैं। वो नए कृषि क़ानूनों को वापस लेने की माँग कर रहे हैं। संसद के ज़रिए ये क़ानून बनाए गए हैं, लेकिन आंदोलनकारी किसानों का कहना है कि इन क़ानूनों से उनके हित प्रभावित होंगे। किसान संगठनों का कहना है कि अगर मोदी सरकार ने कृषि क़ानूनों को वापस नहीं लिया तो आने वाले वक़्त में उन्हें उनकी उपज के औने-पौने दाम मिला करेंगे और खेती की लागत भी नहीं निकल पाएगी। इसके साथ ही किसानों को यह आशंका भी है कि सरकार की ओर से मिलने वाली न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी एमएसपी की गारंटी भी ख़त्म हो जायेगी। यही नहीं, लगातार सत्तारूढ़ भाजपा की ओर से यही कहा जा रहा है कि सिर्फ पंजाब और हरियाणा के ही किसान आंदोलन क्यों कर रहे हंै। बिहार, उत्तर प्रदेश या अन्य जगहों के किसान इतनी बड़ी संख्या में क्यों नहीं मुखर हो रहे हैं। आखिर यह समझने की जरूरत आपको भी है कि आखिर इन दोनों जगहों के किसान ज्यादा क्यों आदांेलित हैं।
समझिये कि एफ़सीआई मॉडल से किसानों को ‘कीमत की जो गारंटी’ मिलती है, उससे सबसे ज़्यादा फ़ायदा पंजाब और हरियाणा के बड़े किसानों को होता है, जबकि बिहार और अन्य राज्यों के छोटे किसानों को इसका ख़ास फ़ायदा नहीं मिल पाता। पंजाब में होने वाले 85 प्रतिशत गेहूँ-चावल और हरियाणा के क़रीब 75 प्रतिशत गेहूँ-चावल, एमएसपी पर ख़रीदे जाते हैं। इसी वजह से इन राज्यों के किसानों को डर है कि एमएसपी की व्यवस्था ख़त्म हुई तो उनकी स्थिति बिगड़ेगी। इन्हीं राज्यों में एपीएमसी सिस्टम पर सबसे ज़्यादा निवेश किया गया है और इन्हीं राज्यों में ये मण्डियाँ सबसे ज़्यादा विकसित हैं। इनका बढ़िया नेटवर्क वहाँ बना हुआ है। यह एक व्यवस्थित सिस्टम है जिसके ज़रिये किसान अपनी फ़सल बेच पाते हैं। लेकिन किसानों को डर है कि नये क़ानूनों का असर इन पर पड़ेगा।
हर साल, पंजाब और हरियाणा के किसान अच्छी तरह से विकसित मंडी व्यवस्था के ज़िरये न्यूनतम समर्थन मूल्य पर एफ़सीआई को अपनी लगभग पूरी उपज बेच पाते हैं जबकि यूपी, बिहार और अन्य राज्यों के किसान ऐसा नहीं कर पाते क्योंकि वहाँ इस तरह की विकसित मंडी व्यवस्था नहीं है। इसके अलावा, बिहार के ग़रीब किसानों के विपरीत – पंजाब और हरियाणा का समृद्ध और राजनीतिक रूप से प्रभावशाली किसान समुदाय यह सुनिश्चित करता है कि एफ़सीआई उनके राज्यों से ही चावल और गेहूँ की सबसे बड़ी मात्रा में ख़रीद जारी रखे। एक ओर जहाँ पंजाब और हरियाणा एफ़सीआई को अपना लगभग पूरा उत्पादन (चावल और गेहूँ) बेच पाते हैं, वहीं यूपी, बिहार में सरकारी एजेंसियों द्बारा की जाने वाली कुल ख़रीद दो प्रतिशत से भी कम है। इसी वजह से, बिहार के अधिकांश किसानों को मजबूरन अपना उत्पादन 2०-3० प्रतिशत तक की छूट पर बेचने पड़ता है।
पहले से ही ‘सुनिश्चित आमदनी’ से वंचित, बिहार के किसानों ने नये क़ानूनों का स्पष्ट रूप से विरोध नहीं किया है। जबकि पंजाब और हरियाणा के किसानों को डर है कि उनकी स्थिति भी कहीं बिहार और अन्य राज्यों के किसानों जैसी ना हो जाये, इसलिए वो चाहते हैं कि एफ़सीआई मॉडल रहे और न्यूनतम समर्थन मूल्य पर उनका उत्पादन ख़रीदने की व्यवस्था भी बची रहे। वरना अगर यह व्यवस्था बदली, तो उन्हें भी प्राइवेट ख़रीदारों के सामने मजबूर होना पड़ेगा। राज्य सरकारें मंडी टैक्स में गिरावट की संभावना को लेकर चितित हैं। ग़ैर-बीजेपी शासित प्रदेशों ने खुलकर कहा है कि इन क़ानूनों से उन्हें टैक्स का घाटा होगा। भारत के विभिन्न राज्यों में मंडी टैक्स 1 से लेकर 8.5 प्रतिशत तक है जो राज्य सरकारों के खाते में जाता है। भारत में सात हज़ार एपीएमसी मार्केट हैं और कृषि उत्पादन की अधिकांश ख़रीद मंडियों के बाहर ही होती है। बिहार, केरल और मणिपुर ने एपीएमसी सिस्टम को लागू नहीं किया है। फसल स्टॉक की अनुमति को लेकर भी काफ़ी चिता है। माना गया है कि इससे कृषि क्षेत्र में ज़रूरी निवेश तो आयेगा, पर छोटे किसानों को इससे फ़ायदा होगा, इसकी संभावना कम ही है क्योंकि वो बड़े निवेशकों से मोलभाव करने की स्थिति में नहीं होंगे।
किसानों के विरोध-प्रदर्शन में सबसे बड़ा जो डर उभरकर सामने आया है वो ये है कि एमएसपी की व्यवस्था अप्रासंगिक हो जाएगी और उन्हें अपनी उपज लागत से भी कम क़ीमत पर बेचने के लिए मजबूर होना पड़ेगा। फ़सलों की बुआई के हर मौसम में कुल 23 फ़सलों के लिए सरकार एमएसपी तय करती है। हालांकि, केंद्र सरकार बड़ी मात्रा में धान, गेहूँ और कुछ ख़ास दालें ही ख़रीदती हैं। साल 2०15 में शांता कुमार कमेटी ने नेशनल सेंपल सर्वे का जो डेटा इस्तेमाल किया था, उसके मुताबिक़ केवल 6 फ़ीसदी किसान ही एमसएसपी की दर पर अपनी उपज बेच पाते हैं। केंद्र सरकार के इन तीनों नये क़ानूनों से एमएसपी सीधे तौर पर प्रभावित नहीं होती है। हालांकि एपीएमसी से अधिसूचित ज़्यादातर सरकारी ख़रीद केंद्र पंजाब, हरियाणा और कुछ अन्य राज्यों में हैं।
किसानों को डर है कि एपीएमसी मंडी के बाहर टैक्स मुक्त कारोबार के कारण सरकारी ख़रीद प्रभावित होगी और धीरे-धीरे यह व्यवस्था अप्रासंगिक हो जाएगी। किसानों की माँग है कि एमएसपी को सरकारी मंडी से लेकर प्राइवेट मंडी तक अनिवार्य बनाया जाये ताकि सभी तरह के ख़रीदार – वो चाहे सरकारी हों या निजी इस दर से नीचे अनाज ना ख़रीदें।
सरकार जो उपज ख़रीदती है, उसका सबसे बड़ा हिस्सा पंजाब और हरियाणा से आता है। पिछले पाँच साल का आंकड़ा देखें, तो सरकार द्बारा चाहे गेहूँ हो या चावल, उसकी सबसे ज़्यादा ख़रीद पंजाब और हरियाणा से हुई। इस पर भारत सरकार अरबों रुपये ख़र्च करती है।
लगभग सत्रह दिन पूरे हो गये हैं और बात-बात में रेडियो पर मन की बात करने वाले प्रधानमंत्री किसानों के मुद्दे पर किसानों के बीच जाकर क्यों नहीं बात करते हैं। क्यों उनके मंत्री किसानों को समझाने में कामयाब नहीं हो पा रहे हैं। किसान भी यह नहीं समझ पा रहा है लेकिन सरकार के रणनतिकारों को यह समझ लेना चाहिए कि इस अांदोलन पर उसे बहुत समर्थन नहीं मिल पायेगा, क्योंकि सरकार के लाख प्रयास के बावजूद किसानों को देशद्रोही नहीं ठहराया जा सकता। न ही विरोधी दल द्बारा प्रायोजित । क्योंकि खुले या दबे मन से लोगों की सहानुभूति किसानों के साथ ही है और किसान भी इस बार मन बना कर आया है कि मन की बात करने वाले सरकार के मन तक बात पहुंचा कर ही आंदोलन खत्म होगा।