लोहिया की नसीहत; लोकतंत्र में विपक्ष का मतलब विरोधी नहीं

जयराम शुक्ल

डाक्टर राममनोहर लोहिया के व्यक्तित्व के इतने आयाम हैं जिनका कोई पारावार नहीं। उनसे जुडा़ एक प्रसंग प्राख्यात समाजवादी विचारक जगदीश जोशी ने बताया था, जो विपक्ष के विरोध की मर्यादा और उसके स्तर के भी उच्च आदर्श को रेखांकित करता है। बात तिरसठ-चौंसठ की है। लोहिया जी रीवा से सिंगरौली जा रहे थे। सीधी-सिंगरौली के वनवासी बेल्ट में डाक्टर लोहिया माने भगवान। लोहिया जी की जीप में जोशी जी के अलावा रीवा-सीधी के उत्साही समाजवादी युवातुर्क थे । स्वाभाविक है कि बात राजनीति की ही चल रही थी। एक उत्साही युवा ने अभद्र भाषा में नेहरू की आलोचना करनी शुरू कर दी। फिर मख्खन लगाते हुए यहां तक कह दिया कि डाक्टर साहब आपके साथ अन्याय हुआ आपको नेहरू की जगह होना चाहिए। इतना सुनते ही लोहिया जी तमतमा गए। ड्राइवर से कहा गाड़ी रोको। फटकारते हुए नेहरू पर टिप्पणी करने वाले को वहीं उतार दिया। फिर गुस्से में बोले ये आज का लड़का नेहरू पर टिप्पणी करेगा..? इतनी जुर्रत। ये जानता क्या है नेहरू के बारे में। नेहरू का विरोध लोहिया ही कर सकता है। नेहरू को वहीं होना चाहिए जहाँ वो हैं, मुझे वहीं होना चाहिए जहां मैं हूँ। विरोध करने का कोई स्तर, कोई मर्यादा होनी चाहिए कि नहीं। जोशीजी ने बताया कि डाक्टर साहब के ऐसे उग्र तेवर से हम सभी थरथराने लगे। किसी की ये हिम्मत नहीं हुई कि जीप से उतारे गए साथी के बारे में उनसे कुछ कहते कि इस जंगल में कहां जाएगा बेचारा। आठ दस किलोमीटर आगे आने के बाद लोहिया जी जब ठंडे पड़े तो उन्हीं ने उसके बारे में पूछा.. फिर जीप लौटाई,उसे बैठाया, तब आगे बढ़े।

जानते हैं आज क्या हाल है। कोई सड़कछाप या राजनीति का नया मुल्ला प्रधानमंत्री या उनके समकक्षी प्रतिपक्ष के नेता को कुछ भी कह देता है। कमाल तो यह कि अखबार,टीवी वाले दिखाते और छापते भी हैं। सोशल मीडिया का क्या कहना वह तो अब पक्का ..उड़िला साँड.. है, कहीं मुँह मारे, कहीं गोबर करे। कभी आपने यह नहीं सुना होगा कि पार्टी के नेतृत्व ने कभी अपने ऐसे कार्यकर्ता पर कोई कार्रवाई की हो। अब तो नया चलन है कि ऐसे कार्यकर्ताओं की झटपट तरक्की भी हो जाती। छोटे मझोल़ों की बात कौन करे,बडे़ नेता भी ऐसे पठ्ठे पाल के रखते हैंं,जिसका काम ही नेताजी के विरोधी को तमाम करना होता है। चैनलों की पैनलिया संस्कृति जब से चल निकली है..हम देखते हैं कि सड़ा से सड़ा आदमी बडे़ से बड़े नेता की इज्जत उतारने में लगा है। न कोई अध्ययन,न संदर्भ, न ग्यान न भाषा की समझ, इनसे विरोध की मर्यादा से क्या लेना देना। बची रहे या जाए भाड़ मे। टीवी में दिख गए सो पार्टी में धाक जम गई। नेतृत्व के लिए भी बड़े काम के। सत्ता में हैं तो निगम,मंडल की कुर्सी इन्हीं के लिए है। विपक्ष में हुए तो मंत्री, महामंत्री की सूची इन्हीं के नाम से शुरू होगी। विरोध की न कोई मर्यादा बची न स्तर..कौन जिम्मेदार हैं इस सब के लिए?

नेहरू और लोहिया, इंदिरा जी और अटलजी का विरोध मर्यादाओं का उच्च आदर्श था। लोहिया जी तो नेहरू की बाल की खाल निकालने के लिए मशहूर थे। जोशी जी ने ढेर सारे किस्सों में एक किस्सा और बताया था कि अपोजीशन की इंटेसिटी क्या होती है। लोहिया जी एक बार रीवा से इलाहाबाद के रास्ते दिल्ली जा रहे थे। अप्रैल का महीना था। खेतों में फसलें कट रहीं थी। सड़क के किनारे एक दृश्य देखकर लोहिया जी ने गाड़ी रुकवाई। देखा एक महिला अपने धोती के पल्लू में रखे गोबर को एक गड्ढे में धो रही थी। लोहिया जी ने पूछा ये क्या है। उसने बताया-साहब ये गोबरी है..इससे अन्न छान रही हूँ, इसे सुखाकर फिर चक्की में पीसूंगी तब न इसकी रोटी बनेगी। लोहिया की आँखों में आँसू आ गए। उससे गोबरी का मुट्ठी भर अन्न लिया और अपनी रूमाल में बाँधा। सुबह दिल्ली पहुँचते ही सीधे संसद गए। सदन में वो गोबरी का मुट्ठी भर अन्न नेहरू को दिखाते हुए कहा-नेहरू तुम्हारे देश की जनता ये खाती है, लो खाकर देखो तुम भी। फिर गोबरी की पूरी कहानी संसद को बताते हुए ..चार आने बनाम पंद्रह आने..की वो ऐतिहासिक बहस की जिसकी मिसाल आज भी दी जाती है। सदन में प्रधानमंत्री का इससे भीषण विरोध और क्या हो सकता है पर विरोध का स्तर और उसकी मर्यादा दृष्टव्य है। आज प्रतिपक्ष विरोधीपक्ष हो गया है। दो भागों में बँट गया है हमारा लोकतंत्र। एक ओर सत्ता और उसके सरहंग समर्थक, दूसरी ओर विरोधीपक्ष और उसके हुल्लड़बाज। अब सदन व विधानसभाओं में दोनों पक्षों की चिन्हित हुल्लड़ ब्रिगेडें हुआ करती हैं। संसदीय रिपोरर्टिंग में जब इनका जिक्र आता है तो ये इतने में ही गौरवान्वित हो लेते हैं। अटलजी के प्रधानमंत्रित्व काल में आर्गनाइज हुल्लड़ ब्रिगेड बनी इसकी परंपरा को मनमोहन काल में भी जारी रही, अब भी चलती चली आ रही है।

संसद व विधानसभाओं में हम देखते हैं कि अब सिर्फ विरोध के लिये विरोध होता है। विपक्ष में हैं तो जरूरी से जरूरी मसला हो विरोध करेंगे। तर्क, तथ्य, संदर्भ गए तेल लेने। बजट प्रस्तावों का गुलेटिन होना आम बात हो गई। जबकि विरोध के लिए विरोध करने का सबसे ज्यादा फायदा सत्ता पक्ष को ही होता है क्यों कि आमजन में विरोध की विश्वसनीयता धीरे धीरे खत्म हो जाती है, इसी के समानांतर सत्ता की स्वेच्छाचरिता बढ जाती है। लोहिया मानते थे कि असहमति और विरोध लोकतंत्र के स्वास्थ्य का सबसे बड़ा टाँनिक है लेकिन यह हवा-हवाई नहीं तथ्यपूर्ण,तर्कसम्मत भाषाई मर्यादा में होना चाहिए। अटलजी ने सन में 71 में बांग्ला विजय पर संसद में इंदिराजी का दुर्गा कहकर अभिनंदन किया था। बांग्लादेश अभियान में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ भी कांग्रेस के स्टैंड के साथ था। इधर नानाजी देशमुख के बारे में भी पढने को मिला कि जब राजीव गांधी प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने पार्टी लाइन से उलट इनके सपोर्ट का आह्वान किया था। अब अपने देश के भीतर की बात कौन करे विदेशों में जाकर बड़े नेता एक दूसरे नेता और उसके दल की इज्ज़त उतारने में फक्र महसूस करते हैं।

आज मीडिया का युग है। समाचार, प्रचार, प्रपोगंडा, पीआर,विग्यपन, एडवर्टोरियल,इम्पैक्ट फीचर इन सब में इतना घालमेल हो गया है कि इनके बीच से सच ढू़ढ निकालना रेत के ढूहे से सुई खोजने जैसा है। बातों का वजन रद्दी के भाव है। कौन क्या कह रहा है, किसको कब क्या कह दे, कोई मर्यादा नहीं बची। निगेटिविटी चैनलों की ब्रेकिंग और अखबारों की सुर्खियां बनती हैं,भले ही फर्जी हो। लोकतंत्र में विरोध भी एक संस्थागत प्रतिष्ठान है उसकी विश्वसनीयता बची रही तो लोकतंत्र में काफी कुछ बचा रहेगा। सत्ता तो स्वमेव मदांध होती है। उसे सत्ता में बैठाने वाला ही उसकी हर बात नापतौल कर सुनता है। पक्ष और विपक्ष के शीर्ष नेतृत्व जब अपने कार्यकरताओं की अनर्गल बातों का संग्यान लेने लगेंगे तब ये उम्मीद फिर बनेगी लोकतांत्रिक व्यवस्था में तर्क, तथ्य और बहस का स्थान बचा है जो नेहरू-लोहिया के जमाने में था,जो इंदिरा-अटल के समय था।