नई दिल्ली। लोक जनशक्ति पार्टी का गठन ऐसे नेता ने किया था, जिसे राजनीतिक मौसम का सबसे बड़ा वैज्ञानिक माना जाता है. नाम है राम विलास पासवान. राम विलास पासवान के अनुमान का ही नतीजा माना जाता है कि बिहार की सबसे छोटी पार्टियों की लिस्ट में होने के बावजूद उसकी हमेशा सत्ता में भागेदारी रहती है. लेकिन ये हिस्सेदारी उसे बिहार नहीं, बल्कि केंद्र की सत्ता में मिलती रही है. राम विलास पासवान का आज शाम लंबी बीमारी के बाद निधन हो गया.
लोक जनशक्ति पार्टी की स्थापना साल 2000 में राम विलास पासवान ने की थी. राम विलास पहले जनता पार्टी से होते हुए जनता दल और उसके बाद जनता दूल यूनाइटेड का हिस्सा रहे, लेकिन जब बिहार की सियासत के हालात बदल गए तो उन्होंने अपनी पार्टी बना ली. दलितों की राजनीति करने वाले पासवान ने 1981 में दलित सेना संगठन की भी स्थापना की थी.
एलजेपी का गठन सामाजिक न्याय और दलितों पीड़ितों की आवाज उठाने के मकसद से किया गया था. बिहार में दलित समुदाय की आबादी तो करीब 17 फीसदी है, लेकिन दुसाध जाति का वोट करीब पांच फीसदी है, जो एलजेपी का कोर वोट बैंक माना जाता है और इस जाति के सर्वमान्य नेता राम विलास पासवान माने जाते हैं.
1969 में पहली बार अलौली सीट से विधानसभा चुनाव जीतने वाले पासवान ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा और खुद को कभी अप्रासंगिक नहीं होने दिया. यही वजह है कि 1977 में पहली बार लोकसभा चुनाव जीतने वाले पासवान ने 9 बार लोकसभा सांसद रहे. फिलहाल वो बीजेपी और नीतीश कुमार के सहयोग से राज्यसभा सांसद हैं. हालांकि, जब उन्होंने एलजेपी की स्थापना की थी, तब वो यूपीए और लालू यादव के साथ थे.
एलजेपी ने 2004 के लोकसभा चुनाव में चार सीटें जीतीं. चार सीटों के साथ ही वो यूपीए का हिस्सा बने. आरजेडी भी उस वक्त कांग्रेस के साथ यूपीए सरकार का हिस्सा थी. राम विलास पासवान को केंद्र में मंत्री भी बनाया गया.
इसके बाद फरवरी 2005 में बिहार में विधानसभा चुनाव हुए. पासवान ने एक बड़ा दांव चला. केंद्र में वो कांग्रेस नेतृत्व वाली सरकार का हिस्सा रहे और बिहार में भी कांग्रेस के साथ मिलकर चुनाव लड़ा. लेकिन दूसरी तरफ यूपीए सरकार के ही सहयोगी लालू यादव की पार्टी आरजेडी के खिलाफ उन्होंने बिहार विधानसभा चुनाव में प्रत्याशी उतार दिए.
पासवान की पार्टी ने इस चुनाव में शानदार प्रदर्शन किया और 29 सीटों पर जीत दर्ज की. दूसरी तरफ किसी भी पार्टी को पूर्ण बहुमत नहीं मिल पाया. नीतीश कुमार और लालू यादव दोनों ही पासवान से समर्थन की कोशिश करते रहे लेकिन पासवान ने मुस्लिम मुख्यमंत्री की ऐसी मांग रखी कि दोनों नेताओं में से कोई भी राजी नहीं हुआ. लिहाजा, सरकार नहीं बन पाई और राष्ट्रपति शासन लागू हो गया.
इसके बाद अक्टूबर-नवंबर 2005 में फिर से चुनाव कराए गए. इस चुनाव में बाजी पलट गई और पासवान की पार्टी महज 10 सीटों पर सिमट कर रह गई. दूसरी तरफ लालू यादव को भी भारी नुकसान पहुंचा और नीतीश कुमार व बीजेपी ने मिलकर सरकार बना ली.
नीतीश कुमार सत्ता में आए तो उन्होंने दलित समुदाय को साधने के लिए दलित कैटेगरी की 22 जातियों में से 21 को महादलित घोषित कर अपनी तरफ से कोशिशें शुरू की जिसमें वो कामयाब भी रहे. इसके बाद 2018 में पासवान जाति को भी शामिल कर सभी को महादलित बना दिया. इस तरह से बिहार में अब कोई दलित समुदाय नहीं रह गया है.
वहीं, चुनावी दृष्टि से देखा जाए राम विलास पासवान के लिए 2009 काफी झटका देने वाला रहा. एलजेपी यूपीए से अलग होकर चौथे फ्रंट के साथ चुनाव लड़ा. इस फ्रंट में सपा और आरजेडी भी शामिल थे. लेकिन एलजेपी एक सीट भी नहीं जीत पाई. खुद पासवान अपनी हाजीपुर सीट हार गए. दूसरी तरफ झारखंड में एलजेपी की पूरी यूनिट कांग्रेस में शामिल हो गई. हालांकि, एलजेपी को एक बड़ा सहारा भी मिला और जन मोर्चा का एलजेपी में विलय हो गया. जन मोर्चा पूर्व प्रधानमंत्री वीपी सिंह ने बनाया था, जिसे बाद में उनके बेटे अजेय प्रताप सिंह संभाल रहे थे.
2010 में जब बिहार विधानसभा चुनाव का नंबर आया तो एलजेपी ने आरजेडी के साथ मिलकर ही चुनाव लड़ा. मगर, एलजेपी के लिए ये चुनाव बेहद खराब रहा. पार्टी महज 3 सीटों पर ही जीत सकी. दूसरी तरफ नीतीश कुमार बीजेपी के साथ मिलकर एक बार फिर बिहार के सीएम बन गए. एलजेपी को 2011 में एक और बड़ा झटका तब लगा जब उसके तीन में से 2 विधायक जेडीयू के साथ चले गए. ये भी कहा जाने लगा कि एलजेपी का जेडीयू में विलय हो गया है, मगर पार्टी ने इससे इनकार कर दिया.
ये वो वक्त था जब एलजेपी सत्ता से बाहर थी. मगर, एनडीए में ऐसे समीकरण बदले कि एलजेपी को फिर से सहारा मिल गया. 2013 में बीजेपी ने गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के चेहरे पर 2014 का लोकसभा चुनाव लड़ने का ऐलान कर दिया. नीतीश कुमार को मोदी की उम्मीदवार रास नहीं आई और उन्होंने बीजेपी से गठबंधन तोड़ लिया. हालांकि, बिहार में वो अपनी सरकार बचाने में कामयाब रहे. लेकिन राम विलास पासवान ने इस मौके को लपक लिया.
2014 के लोकसभा चुनाव से पहले एलजेपी बीजेपी के साथ चली गई. पार्टी ने बिहार में 7 सीटों पर चुनाव लड़ा, जिनमें से 6 पर जीत दर्ज की. मोदी लहर में एलजेपी की चांदी हो गई. राम विलास पासवान के बेटे चिराग पासवान भी जमुई सीट से पहली बार चुनाव लड़े और जीत गए. दूसरी तरफ राम विलास पासवान को केंद्र में मंत्री बनाया गया.
लेकिन जब 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव का मौका आया तो नीतीश कुमार, लालू यादव और कांग्रेस ने हाथ मिला लिया. इस महागठबंधन की ऐसी लहर चली कि बीजेपी समेत तमाम दूसरे विरोधी दल हवा हो गए. पासवान की एलजेपी महज 2 सीटें जीत पाई. मगर, केंद्र में वो एनडीए की सत्ता का स्वाद लेते रहे. वहीं, 2017 में नीतीश कुमार भी महागठबंधन से अलग हो गए और फिर से उन्होंने बीजेपी के साथ मिलकर सरकार बना ली. इस सरकार में भी एलजेपी को हिस्सेदारी मिली और राम विलास पासवान के भाई पशुपति पासवान को नीतीश कैबिनेट में मंत्री बनाया गया.
बता दें कि 2015 के चुनाव में एनडीए में रहते हुए एलजेपी ने 42 सीटों पर प्रत्याशी उतारे थे, जिसमें महज 2 विधायक जीते थे. हालांकि एलजेपी को इन सीटों पर 28.79 फीसदी वोट मिले थे, जो कि राज्य स्तर पर 4.83 फीसदी हैं. जबकि 2005 के विधानसभा चुनाव में एलजेपी को राज्य में 11.10 फीसदी वोट मिले थे.
2019 के लोकसभा चुनाव में राम विलास पासवान और बीजेपी के बीच सीटों को लेकर काफी गहमागहमी देखी गई. लंबे मंथन के बाद 40 में से बीजेपी और जेडीयू को 17-17 और एलजेपी को 6 सीटों पर लड़ने का मौका मिला. जबकि राम विलास पासवान को राज्यसभा भेजने का फैसला किया गया. पार्टी सभी 6 सीटों पर जीत गई. इसके साथ ही राम विलास पासवान ने अपने बेटे चिराग पासवान को आगे कर दिया. 5 नवंबर 2019 को चिराग पासवान को लोक जनशक्ति पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष चुना गया. अध्यक्ष पद की कमान मिलते ही चिराग ने ‘बिहार फर्स्ट, बिहारी फर्स्ट’ के नाम से बिहार में यात्रा निकाली.
अब बिहार में 2020 के विधानसभा चुनाव का मौका है. एलजेपी की कमान चिराग पासवान के हाथों में है. लेकिन वो अपने पिता के नक्शेकदम पर ही राजनीति कर रहे हैं. केंद्र में एलजेपी एनडीए के साथ बनी हुई है जबकि बिहार में चिराग पासवान ने अलग चुनाव लड़ने का फैसला किया है. जैसे राम विलास पासवान ने 2005 में यूपीए सरकार में रहते हुए किया था.