आशीष नौटियाल (साभार)
‘Who After Nehru’ यानी, ‘नेहरू के बाद कौन?’ मई 27, 1964 को देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के निधन के बाद राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय अखबारों के पहले पन्नों पर यही प्रमुख शीर्षक था।
1964 में जवाहर लाल नेहरू की मृत्यु के बाद लाल बहादुर शास्त्री ने भारत के प्रधानमंत्री का पद संभाला। जिस तरह से ब्रिटेन में विंस्टन चर्चिल को ‘वॉर टाइम प्राइम मिनिस्टर’ कहा जाता है, उसी तरह से यदि लाल बहादुर शास्त्री को भी एक ऐसे समय में चुने गए प्रधानमंत्री की संज्ञा दी जाए, जब भारत हर तरफ से संकट से घिरा हुआ था तो इसमें कुछ भी गलत नहीं होगा।
प्रधानमंत्री बनने के लिए शास्त्री जी का जनादेश आसान नहीं था। जवाहरलाल नेहरू के निधन के बाद राष्ट्र का नेतृत्व करने की उनकी क्षमता को लेकर कॉन्ग्रेस पार्टी के भीतर एक खंडित सहमति थी। वहीं, 1962 की हार और एक गंभीर खाद्य संकट से जूझने के बाद भारत का मनोबल गिर गया था। 1965 में पाकिस्तान इस ‘कमजोर नेतृत्व’ का फायदा उठाना चाहता था। उम्मीदों के विपरीत, शास्त्री जी ने शुरू से ही संसद में भाषणों के माध्यम से सीमा पर पाकिस्तानी उकसावे का जवाब दिया, जिससे भारत की सीमाएँ और भावना स्पष्ट हो गईं। वह पकिस्तान के राष्ट्रपति खान को यह कठोर संदेश दे चुके थे कि दृढ़ संकल्पित राष्ट्र भारत की इच्छा नहीं है कि पाकिस्तानी क्षेत्र के एक वर्ग इंच का भी अधिग्रहण करे लेकिन कभी भी कश्मीर, जो कि भारत का अभिन्न अंग है, में पाकिस्तान द्वारा किसी भी तरह के हस्तक्षेप की अनुमति नहीं देगा।
भारत तब किन हालातों से गुजर रहा था इसका अंदाजा नेहरू की मौत के बाद सी राजगोपालाचारी द्वारा कही गई बातों से लगाया जा सकता है। उन्होंने कहा था,
“अब भारत के सामने सबसे बड़ा खतरा पाकिस्तान के साथ सौहार्दपूर्ण संबंध स्थापित कर पाने में असमर्थता या फिर इस महत्वपूर्ण मुद्दे की उपेक्षा है। कम्म्युनिस्ट आक्रामकता भारत और पाकिस्तान के सभी समझदार लोगों की पहली चिंता होनी चाहिए। मुझे यह भी लगता है कि आर्थिक धरातल पर अब सबसे बड़ा खतरा महंगे टैक्सेशन की नीति और अब तक की योजनाबद्ध सोवियत शैली की योजना भी महँगाई की ओर ले जा रही है। जनसंख्या का महत्वपूर्ण तत्व, जिस पर लोकतंत्र निर्भर करता है, मुद्रास्फीति और कराधान के बीच कुचल दिया जाता है। सामान्य शब्दों में कहें, तो सबसे बड़ा खतरा अब नई सरकार के लिए चली आ रही नीतियों में बदलाव का है।”
नेहरू की मौत के बाद प्रधानमंत्री का चुनाव
नेहरू की मौत के बाद शुरु हुई अगले प्रधानमंत्री की खोज और ये जिम्मेदारी दी गई उस वक्त कॉन्ग्रेस के अध्यक्ष के कामराज को दिया गया। वर्तमान समय में कई लोग, खासकर कॉन्ग्रेस के ही कुछ कद्दावर नेता यह तर्क देते हुए कि कॉन्ग्रेस में गैर-गाँधी/नेहरू परिवार से पहले प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ही थे। जाहिर सी बात है कि कॉन्ग्रेस के समर्थकों द्वारा दिए जाने वाले यह कुतर्क सिर्फ इस राजनीतिक दल में व्याप्त ‘डायनेस्टी पॉलिटिक्स’ के सत्य पर पर्दा डालने के लिए ही इस्तेमाल किए जाते रहे हैं।
नेहरू की मृत्यु के बाद तत्कालीन कॉन्ग्रेस जयप्रकाश नारायण, मोरारजी देसाई और इंदिरा गाँधी के खेमें में बँट चुकी थी। लेकिन एक ओर जहाँ मोरारजी देसाई किसी भी सूरत में मानने को राजी नहीं थे तो वहीं के कामराज खुद मोरारजी देसाई को देश की बागडोर नहीं सौंपना चाहते थे।
लेकिन क्या लाल बहादुर शास्त्री ही तब कॉन्ग्रेस की पहली पसंद थे या यह बस इंदिरा गाँधी को सत्ता तक लाने का एक जरिया मात्र था? वास्तव में, इंदिरा गाँधी को प्रधानमंत्री बनाने की जो रणनीति जवाहरलाल नेहरू ने बनाई थी, उसे धरातल तक लाने का काम के कामराज ने ही किया था। वह जानते थे कि अगर मोरार जी देसाई प्रधानमंत्री बनते हैं, तो आगे चलकर इंदिरा गाँधी की राजनीति की राह कठिन हो जाएगी।
यही वो समय था जब कॉन्ग्रेस के तत्कालीन अध्यक्ष के कामराज ने अप्रत्याशित तरीके से लाल बहादुर शास्त्री का नाम प्रधानमंत्री पद के लिये प्रस्तावित किया और सारे बड़े नाम धराशाई हो गए।
जवाहरलाल नेहरू के मन में अपने उत्तराधिकारी के तौर पर हमेशा से ही उनकी बेटी इंदिरा गाँधी थी। यह बात किसी और ने नहीं बल्कि खुद लाल बहादुर शास्त्री ने दिवंगत पत्रकार कुलदीप नैय्यर से कही थी। इसका जिक्र कुलदीप नैय्यर ने अपनी पुस्तक ‘बियॉन्ड द लाइन्स’ में किया है।
कुलदीप नैय्यर ने लिखा, ”एक बार मैंने शास्त्री का मन टटोलते हुए पूछा था कि नेहरू का उत्तराधिकारी कौन होगा? तो शास्त्री ने कहा था कि उनके (नेहरू) दिल में तो उनकी सुपूत्री (इंदिरा गाँधी) हैं। लेकिन ये आसान नहीं होगा।”
कुलदीप नैय्यर ने अपनी इस पुस्तक में इस बात का भी खुलासा किया कि लाल बहादुर शास्त्री नेहरू के दिमाग में अपने उत्तराधिकारी के लिए पहले विकल्प नहीं हैं। इन सभी घटनाक्रमों का भविष्य में क्या प्रभाव पड़ा इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि इंदिरा गाँधी लालबहादुर शास्त्री की मृत्यु के बाद दिल्ली में उनकी समाधि बनाने के पक्ष में नहीं थी।
कुलदीप नैय्यर ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि शास्त्री जी की पत्नी ललिता शास्त्री ने जब आमरण अनशन की धमकी दी तो मामले की गंभीरता को समझते हुए इंदिरा को फैसला बदलना पड़ा और दिल्ली में शास्त्री जी की समाधि बनवानी पड़ी।
इंदिरा गाँधी को प्रधानमंत्री बनाने की क्रोनोलॉजी
जवाहरलाल नेहरू ने इंदिरा गाँधी को सिर्फ 42 साल की उम्र में कॉन्ग्रेस पार्टी अध्यक्ष बनने में मदद की। कॉन्ग्रेस में वंशवाद की राजनीति का पहला चरण यही था। नेहरू की मृत्यु के बाद, इंदिरा गाँधी को राज्यसभा भेजा गया और शास्त्री सरकार में कैबिनेट मंत्री बनाया गया। लाल बहादुर शास्त्री जी के देहांत के तुरंत बाद इंदिरा गाँधी देश की प्रधानमंत्री बन गई थी।
जो लोग यह दावा करते हैं कि नेहरू के बाद प्रधानमंत्री बनने की रेस में इंदिरा गाँधी का नाम तक नहीं लिया गया था उन्हें ‘न्यूयॉर्क टाइम्स’ की उस खबर का हवाला दिया जाना चाहिए जिसमें नेहरू की मृत्यु से ठीक 5 महीने पहले ही जनवरी 09, 1964 को नेहरू के संभावित उत्तराधिकारी के रूप में इंदिरा गाँधी का उल्लेख किया गया था।
नेहरू और शास्त्री की मौत के बाद सत्ता परिवर्तन का गवाह बने कॉन्ग्रेस के वरिष्ठ नेता डीपी मिश्रा, नेहरू के इस पूरे खेल की योजना बताते हुए कहते हैं –
“नेहरू द्वारा विकसित की गई रणनीति के अनुसार, अपनी बेटी को प्रधानमंत्री पद के लिए तैयार किया जाना था, फिर मोरारजी देसाई और जगजीवन राम – दो महत्वाकांक्षी, सक्षम और प्रभावशाली प्रतिद्वंद्वियों को हटाना, और अंत में सरकार और कॉन्ग्रेस, दोनों को ऐसे पुरुष के हाथों में देना होगा जिसे उनकी बेटी द्वारा आसानी से हटाया जा सकता हो।”
“कामराज योजना के माध्यम से, उन्होंने अपनी सरकार से देसाई और जगजीवन राम को हटा दिया। कामराज को कॉन्ग्रेस अध्यक्ष चुना गया और सरकार को गुलजारीलाल नंदा, टीटी कृष्णामाचारी और लाल बहादुर शास्त्री के हाथों में छोड़ दिया।”
‘सुपर कम्युनिस्ट लाल बहादुर शास्त्री’
शास्त्री जी को रूस में ‘सुपर कम्युनिस्ट’ बुलाए जाने की घटना से शायद ही बहुत लोग वाकिफ हों। दरअसल, जनवरी 03, 1966 में ताशकंद के दौर पर गए लाल बहादुर शस्त्री ने तत्कालीन सोवियत संघ के अपने समकक्ष अलेक्सी कोशिगिन (Alexei Kosygin) द्वारा उपहार में दिए गए कोट को अपने साथ गए एक स्टाफ को दे दिया था। इससे प्रेरित होकर रूसी प्रधानमंत्री कोशिगिन ने उन्हें ‘सुपर कम्युनिस्ट’ कहा था।
जब शास्त्री जी रूस पहुँचे तो उनके शरीर पर उन्हें ठंड से बचने के लिए पर्याप्त कपड़े तक नहीं थे। यह देखकर कोशिगिन ने शास्त्री जी को एक ओवरकोट उपहार में दिया था। उनका कहना था कि ‘मैंने इसे अपने एक स्टाफ को दे दिया, जो कड़ाके की ठंड में पहनने के लिए अच्छा ऊनी कोट नहीं लाया था।’
इस पर कोशिगिन ने शास्त्री और जनरल अयुब खान के सम्मान में आयोजित सांस्कृतिक कार्यक्रम में इस घटना का जिक्र करते हुए कहा, “हम बस नाम के कम्युनिस्ट हैं, लेकिन शास्त्री सुपर कम्युनिस्ट हैं।”
शास्त्री जी के जीवन मूल्य और उनके जीवन से जुड़े कई ऐसी पहलू हैं, जो उन्हें किसी भी समय और काल के राजनेता से कहीं ऊपर साबित करते हैं लेकिन शास्त्री जी के व्यक्तित्व को समेट पाना इतना भी आसान नहीं है।
इस चित्र में शास्त्री जी के निधन के 3 महीने बाद उनकी पत्नी ललिता शास्त्री इस फसल को काट रही हैं। शास्त्री जी ने 10 जनपथ पर यह फसल खाद्य संकट के दौरान देशवासियों को प्रेरित करने के लिए उगाई थी।
चाहे कर्ज लेकर फ़िएट कार खरीदने की घटना हो, अकाल के समय अपने घर पर खेती कर देशवासियों को संदेश देने का उदाहरण या फिर सादे जीवनशीली के कारण रूस में ‘सुपर कॉमरेड’ कहलाए जाने की घटना हो, शास्त्री जी के रूप में इस देश को अकस्मात् ही सही लेकिन एक विराट व्यक्तित्व मिला था, जिसे कि दुर्भाग्यवश हमने शायद बहुत ही कम समय में खो भी दिया।
लाल बहादुर शास्त्री ने मात्र अपने 18 महीने के कार्यकाल में ही ‘नेहरू के बाद कौन?’ जैसे सवालों का बेहद सटीक जवाब दे दिया था। बेहद आम, सरल स्वभाव के शास्त्री जी ने महज 18 महीनों में नेहरू को कद के सामने एक ऐसी और कहीं अधिक मजबूत तस्वीर पेश कर डाली थी, जिसका एकमात्र ध्येय भारत निर्माण था। और ऐसा उन्होंने समकालीन नेताओं की तरह अंतरराष्ट्रीय पत्राचार, सैद्धांतिक भाषण या फोटोग्राफ से नहीं बल्कि अपने द्वारा किए गए कार्यों से कर के दिखाया। एमके गाँधी जिस परिवर्तन की बात करते थे, शास्त्री जी वो परिवर्तन स्वयं बने।