देश की सबसे बड़ी अदालत का आदेश आने के बाद आगामी 5 अगस्त की तारीख को राम मंदिर का भूमि पूजन होना है। साल 2019 में 500 सालों तक चले इस संघर्ष का अंत हो गया। अब मंदिर बनने जा रहा है लेकिन मंदिर निर्माण के पीछे हज़ारों लोगों का बलिदान है। न जाने कितनी पीढ़ियाँ इस दिन के लिए ख़त्म हो गईं। लेकिन बात केवल इतनी नहीं है। इस मामले से जुड़ी ऐसी न जाने कितनी घटनाएँ हैं, जिनमें हिंदुओं पर हुए अत्याचार को छुपाया और दबाया गया।
इस तरह की एक घटना साल 1990 में हुई थी, जब मुलायम सिंह यादव मुख्यमंत्री थे। अयोध्या में कारसेवक इकट्ठा हुए थे, तभी समाजवादी पार्टी के शीर्ष नेतृत्व ने मौके पर ओपन फ़ायर का आदेश दे दिया। रिपब्लिक टीवी द्वारा किए गए पड़ताल में यह बात सामने आई थी कि मुलायम सिंह की सरकार ने असल मौतों का आँकड़ा छिपाया था। सरकार के मुताबिक़ वहाँ पर 16 लोगों की मौत हुई थी जबकि असल में संख्या काफी ज़्यादा थी।
सरकार ने मरने वालों की असल संख्या छिपाने के लिए हिंदुओं की लाशों का अंतिम संस्कार करने की जगह उन्हें दफ़न करवा दिया था। साल 2016 में मुलायम सिंह ने खुद इस बात को स्वीकार किया था कि उन्हें कारसेवकों पर गोली चलवाने का पछतावा है। साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि उन्हें मुस्लिम समुदाय के लोगों की भावनाओं का ध्यान रखना था। इस नरसंहार के दौरान ही कोठारी बंधुओं ने अपनी जान गँवाई थी।
मुख्य धारा मीडिया ने 2 नवंबर 1990 के दिन हिंदुओं पर हुए भयावह अत्याचार को सामने न लाने का कोई मौक़ा नहीं छोड़ा। हैरानी की बात यह है कि वह अब तक इस तरह के षड्यंत्रों में शामिल हैं। तमाम मीडिया संस्थानों ने श्रीराम जन्मभूमि आन्दोलन के बारे में ख़बरें प्रकाशित की हैं। लेकिन इस विवाद के दौरान तत्कालीन उत्तर प्रदेश द्वारा हिंदुओं पर किए गए अत्याचार का कोई ज़िक्र ही नहीं है।
वह मुग़ल शासन से लेकर अभी तक तमाम घटनाओं का उल्लेख सिलसिलेवार तरीके से करते हैं। लेकिन साल 1990 के दौरान अयोध्या में कारसेवकों पर चलाई गई गोली की घटना का कोई ज़िक्र ही नहीं करते हैं। बिज़नेस स्टैंडर्ड ने अपनी रिपोर्ट में सितंबर 1990 में लाल कृष्ण आडवाणी की गिरफ्तारी का ज़िक्र किया है। इसके बाद सीधे 2 दिसंबर 1992 के दिन हुई विवादित ढाँचे की घटना का ज़िक्र किया है।
यानी देश के प्रतिष्ठित मीडिया संस्थान इतनी गंभीर घटना को सिरे से नज़रअंदाज़ कर रहे हैं। ठीक इसी तरह द हिंदू ने भी बिज़नेस स्टैंडर्ड जैसा रवैया ही अपनाया है। इन्होंने भी अपनी रिपोर्ट में सितंबर 1990 में हुई लाल कृष्ण आडवाणी की गिरफ्तारी के बारे में बताया। लेकिन कारसेवकों पर चली गोली की घटना के बारे में कोई जानकारी नहीं दी है।
ठीक इसी तरह शेखर गुप्ता के द प्रिंट ने भी किया है। उन्होंने भी मुलायम सरकार में कारसेवकों के नरसंहार की घटना का कोई उल्लेख ही नहीं किया है। इन्होंने 25 सितंबर 1990 के दौरान गुजरात के सोमनाथ में लाल कृष्ण आडवाणी की रथयात्रा के बारे में बताया। इसके बाद सीधे पर कल्याण सिंह की सरकार के उस फैसले का ज़िक्र किया, जिसमें उन्होंने राम जन्मभूमि के पास 2.77 एकड़ की ज़मीन पर अधिग्रहण किया था।
वहीं एनडीटीवी ने इन सभी से एक कदम आगे बढ़ कर घटना के बारे में बताया। उन्होंने लिखा कि 1990 के दौरान के विश्व हिंदू परिषद के कार्यकर्ताओं ने बाबरी मस्जिद का ढाँचा गिराया। लेकिन दूसरी तरफ कारसेवकों पर चलाई गई गोली की घटना के बारे में एक शब्द भी नहीं लिखा। बेशक यह घटना इतिहास की सबसे निर्दयी घटनाओं में एक है। लेकिन अफ़सोस मुख्य धारा मीडिया की निगाह में नहीं।
वहीं फर्स्टपोस्ट ने तो 1990 का पूरा घटनाक्रम ही छोड़ दिया। उन्होंने 1989 की घटनाओं पर संक्षेप में जानकारी दी। इसके बाद वह सीधे 1992 की घटना पर आ गए, कुल मिला कर उन्होंने यह दिखाने का प्रयास किया कि 1990 के दौरान कुछ हुआ ही नहीं था।
जब भारतीय मीडिया संस्थानों ने कारसेवकों के साथ हुए अत्याचार के बारे में कुछ नहीं लिखा। ऐसे में विदेशी मीडिया संस्थाओं से इस बारे में आशा करना बेकार ही है कि वह इस घटना का ज़िक्र करेंगे। बीबीसी जो हमेशा से ही हिंदू विरोधी एजेंडे पर चलती रही है, उसने भी कुछ ऐसा ही किया है।
जब भी इतिहास से जुड़ी किसी घटना का ज़िक्र किया जाता है, तब इस बात का ख़ास ख़याल रखा जाता है कि उसमें छोटी से छोटी बात भी शामिल की जाए। भले घटनाक्रम निर्धारित किए गए प्रारूप से कितना ही बड़ा क्यों न हो जाए। राम जन्मभूमि आन्दोलन के बारे में भी ठीक ऐसा ही होना चाहिए था। पढ़ने वाला हर व्यक्ति यह उम्मीद करता होगा कि उसे पूरी घटना सिलसिलेवार तरीके से बताई जाएगी। लेकिन ऐसा हुआ नहीं।
पाठकों के सामने हर घटना का उल्लेख नहीं किया गया। लगभग आधी जानकारी ही दबा दी गई। इसका एक मतलब यह भी है कि मुख्यधारा मीडिया के लिए हिंदुओं की जान का कोई मूल्य ही नहीं है। मुलायम सिंह की सरकार में हिंदुओं के साथ हुई वह घटना बेहद भयावह और निर्दयी थी। मुख्यधारा मीडिया ने इसे पूरी तरह दरकिनार कर दिया। इस मामले में मीडिया की कोशिश यही रही है कि आम लोगों के सामने कारसेवकों के साथ हुआ अत्याचार सामने न आ पाए।