ध्रुव गुप्त
गैंगस्टर विकास दुबे की गिरफ्तारी और उसके कुछ साथियों के एनकाउंटर पुलिस की बड़ी कामयाबी नहीं है। अपराधी मारे जाते हैं और नए अपराधी पैदा होते हैं। अपराधी पकड़े जाते हैं और छूट भी जाते हैं। अपराध का सिलसिला ऐसी सतही कार्रवाईयों से नहीं थमता।
उत्तर प्रदेश पुलिस को कामयाब तब माना जाना चाहिए जब वह इस घटना के बहाने उस पुलिसिया और राजनीतिक व्यवस्था पर ही चोट करे जो विकास दुबे जैसे अपराधी को खड़ा करने की ज़िम्मेदार हैं।
पुलिस के सभी स्तरों पर और राजनीति में ऐसे लोग भरे पड़े हैं जो अपराधियों की मदद कर उनसे अपने आर्थिक और सियासी हित साधते हैं। क्यों न इस अपवित्र आपराधिक गंठजोड़ को सामने लाने की शुरुआत आठ पुलिसकर्मियों के हत्यारे दुबे के मामले से ही हो ? अब तो इस नापाक गंठजोड़ का सबसे बड़ा सबूत ख़ुद दुबे पुलिस के हाथ में है।
उत्तर प्रदेश की सरकार और पुलिस की साख दाव पर है। क्या पुलिस और राजनीति में छुपे दुबे के तमाम मददगार चेहरे बेनक़ाब होंगे या फिर हमेशा की तरह कुछ दिनों की तामझाम और फिर श्मशान की शांति ? कुछ ही दिनों में मीडिया को नई सुर्खियां मिल जाएंगी और आम लोगों का जोश भी ठंढा पड़ जाएगा। लेकिन अगर दुबे के पीछे की तमाम ताक़तें सलाखों के पीछे नहीं पहुंची तो यक़ीन मानिए, आठ पुलिस वालों की शहादत व्यर्थ जाएगी और प्रदेश में रोज़ नए-नए विकास दुबे पैदा होते रहेंगे।